टेलकम पाउडर की तरह
रास्ते की धूल से
लिपटा बदन ,
और ढेर सारे तेल से पुते
चिपचिपाते
कस कर काढ़े गये बाल ,
आँखों में कभी ना
थमने वाली लगन
और लोगों की झिड़कियाँ
सहने की आदी
खुरदुरी मोटी खाल !
ज्येष्ठ अषाढ़ की
चिलचिलाती धूप हो
या अगहन पूस की
ठिठुरन भरी सर्दी ,
मिलते हैं ये बच्चे
सुबह से रात तक
अपनी ड्यूटी पर तैनात
पहने हुए जिस्म पर
नाम मात्र के
कपड़ों की वर्दी !
हर लाल बत्ती वाले
चौराहे पर थामे हुए
अपने दुर्बल हाथों में
किताबें या पत्रिकायें ,
खिलौने या गजरे ,
छिला नारियल या अखबार ,
या और कई तरह के
उपयोग में आने वाले
वो सामान जिनकी सबको
होती है दरकार !
सामान के साथ-साथ
हथेलियों पर लिये
अपना आत्म सम्मान ,
दिखाई देते हैं भागते दौड़ते
उन कारों के पीछे
जिनमें बैठे होते हैं
भाँति-भाँति के
श्रीमती और श्रीमान !
पेट की भूख मिटाने को
और चार पैसे कमाने को
मजबूरी में करते हैं यह काम ,
लेकिन चल कहाँ पाता है
उनका सोचा यह
छोटा सा भी इंतजाम !
अपना सामान बेचने को
सबके सामने
गिड़गिड़ाते हैं, चिरौरी करते हैं
लेकिन चरौरी के बदले में
पाते हैं दाम कम और
उससे कहीं अधिक फटकार ,
ये तो वो नीलकंठ हैं
जो शायद अपने
घर परिवार वालों की
मुस्कराहट को बचाये
रखने के लिये
सहते हैं हर मौसम की मार
और भगवान शिव की तरह
ज़माने भर की
उपेक्षा और अपमान ,
अवहेलना और तिरस्कार
का गरल लेते हैं
अपने कंठ में उतार !
लेखक परिचय - साधना वैद
सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंआप का बहुत बहुत आभार।
साधना वैद जी की मर्मस्पर्शी रचना "चौराहों के बच्चे" की प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंमकर सक्रांति की हार्दिक मंगलकामनाएं!
बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंदिल को छूते अनुपम भाव
जवाब देंहटाएंबिखरता हुआ बचपन । मर्म - स्पर्शी , व्याकुल कर देने वाली प्रस्तुति । ग्लानि होती है कि हम उनके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं । निशब्द ।
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