इस तंत्र की सारी मक्कारियाँ
समझता है आदमी
आदमी देख और समझ रहा है
जिस तरह होती है सौदेबाज़ी
भूख और रोटी की
जैसे रचे जाते हैं
धर्म और जाति के प्रपंच
गढ़े जाते हैं
शब्दों के फरेब
लेकिन व्यवस्था के सारे छल-प्रपंचों के बीच
रोटी की जद्दोजहद में
आदमी को मौका ही नहीं मिलता
कुछ सोचने और बोलने का
और इसी रस्साकसी में
एक दिन मर जाता है आदमी
साहेब!
असल में आदमी मरता नहीं है
मार दिया जाता है
वादों और नारों के बोझ तले
लोकतांत्रिक शांतिकाल में
यह एक साजिश है
तंत्र की अपने लोक के खिलाफ
उसे खामोश रखने के लिए
कब कौन आदमी जिन्दा रह पाया है
किसी युद्धग्रस्त शांत देश में
जहाँ रोज गढ़े जाते हैं
हथियारों की तरह नारे
आदमी के लिए
आदमी के विरुद्ध
लेकिन हर मरे हुए आदमी के भीतर
सुलग रही है एक चिता
जो धीरे-धीरे आँच पकड़ेगी
हवा धीरे-धीरे तेज़ हो रही है
बृजेश नीरज
bahut marmik rachna ....
जवाब देंहटाएंआभार आपका!
हटाएंआपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (18-04-2015) को "कुछ फर्ज निभाना बाकी है" (चर्चा - 1949) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत आभार
हटाएंबहुत आभार
हटाएंइस धीरे धीरे तेज हो रही हवा को आंधी में परिवर्तित होते हुए देखना है
जवाब देंहटाएंजी बिलकुल! प्रतिरोध की सफलता इसी में है!
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंवाह ! मन के भावों की कशमकश को रचना मे बहुत सुंदर ढंग से उकेरा है
जवाब देंहटाएंबहुत आभार भाई जी!
हटाएंsundar prastuti
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंजहाँ रोज गढ़े जाते हैं
जवाब देंहटाएंहथियारों की तरह नारे
आदमी के लिए
आदमी के विरुद्ध ---------हवा तेज हो रही है -----सत्य बयान , बधाई
बहुत आभार
हटाएंबहुत आभार
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