हमारी किस्सागोइ न हो..इसलिए
ख्वाबों को छोड़ हम हकीकत की
पनाह में आ गए हैं,
अजी छोड़िए..
उजालों को..
यहाँ पलकें भी मूंद जाती है,
अंधेरा ही सही..
पर आँखें तो खूल जाती है,
हमने उम्मीद कब हारी है?
नासमझी को फिर
सिफत समझदारी से समझाने में
ही कई शब गुजारी हैं,
अब सदाकत के दायरे भी सिमटे
तभी तो झूठ में सच के नजारें हैं
जख्म मिले हैं अजीजों से
निस्बत रिश्तों से कुछ दूरी बनाए रखे हैं
छोड़िए इन बातों को..
जिन्दगी ख्वाबों ,ख्यालातों और ख्वाहिशों
कहाँ गुज़रती है,
रवायतों में न सही अब खिदमतों में ही
समझदारी है ,इसलिए
ख्वाबों को छोड़ हम हकीकत की
पनाह में आ गए हैं..
©पम्मी सिंह..
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुंदर एक शिकायत भी बेपरवाह सी।
जवाब देंहटाएंउम्दा ।
शुभ संध्या ।
ख्वाब छोड़ हकीकत की पनाह में आकर ही जिन्दगी जीने का मतलब समझ आता है.....
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब...
वाह!!!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-12-2017) को "राम तुम बन जाओगे" (चर्चा अंक-2821) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हकीकत की पनाह में जितनी जल्दी आ जाएँ उतना ही अच्छा ...
जवाब देंहटाएंअर्थपूर्ण रचना है ....
वाह बेहतरीन उन्वान ...
जवाब देंहटाएंसच्ची सच्ची बोल दी
सच ही लिख दी बात
सारे चक्कर छोड़ कर
अब लो हकीकत सँभाल ! !