याद है,
तुम और मैं
पहाड़ी वाले शहर
की
लम्बी, घुमावदार,सड़क पर
बिना कुछ बोले
हाथ में हाथ डाले
बेमतलब, बेपरवाह
मीलों चला करते
थे,
खम्भों को गिना
करते थे,
मैं जब चलते चलते
थक जाता था,
तुम आंखें बन्द
कर के,
मन ही मन
उँगलियों पर
कुछ गिननें का
बहाना कर के
कहती थीं ,
बस उस अगले खम्भे
तक और ।
आज बरसों के बाद
मैं अकेला ही
उस सड़क पर निकल
आया हूँ ,
खम्भे मुझे अजीब
निगाह से देख रहे हैं
मुझ से तुम्हारा
पता पूछ रहे हैं ,
मैं थक के चूर
चूर हो गया हूँ
लेकिन वापस नहीं
लौटना है
हिम्मत कर के ,
अगले खम्भे तक
पहुँचना है
सोचता हूँ
तुम्हें तेज चलने
की आदत थी,
शायद अगले खम्भे
तक पुहुँच कर
तुम मेरा इन्तजार
कर रही होगी !
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अनूप
Anoop Bhargava
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