हर रोज बैठे रहते हैं अकेले
कभी टी वी के निर्जीव चित्र देखते
कभी मोटे चश्मे से अखबार छानते
एक वक़्त था कि फुर्सत ही न थी
एक पल उसकी बातें सुनने की
आज कितनी याद आती है वह
वही सब मन ही मन दोहराते
बीच-बीच में नाती से कुछ कहते
क्या कहा कोई सुनता नहीं
अभी - अभी बहु ने गुस्से से
ऐसे पटकी चाय की प्याली
फूटी क्यों नहीं वही जानती होगी
बेटों ने ऐसे कटाक्ष किये कि
जख्मों पर नमक पड़ गया
तन-मन में सुलगती आग
फिर भी गूंजी एक आवाज़
"बेटा शाम को घर कब आएगा"
ठण्ड से कांपता बूढ़ा शरीर
सिहर उठता है रह-रह कर
अपनी ही आँखों के आगे
अपने शब्द और अस्तित्व
दोनों को धूं -धूं करके
गुर्सी की आग में जलते देख
जो उड़कर बिखर रहे हैं
वक़्त क़ी निर्मम आंधी में
कागज़ के टुकड़ों क़ी तरह...!!
आभार...
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