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5 नवंबर 2014

हर रोज बैठे रहते हैं अकेले -- संध्या शर्मा


हर रोज बैठे रहते हैं अकेले 
कभी टी वी के निर्जीव चित्र देखते 
कभी मोटे चश्मे से अखबार छानते 
एक वक़्त था कि फुर्सत ही न थी 
एक पल उसकी बातें सुनने की
आज कितनी याद आती है वह 
वही सब मन ही मन दोहराते
बीच-बीच में नाती से कुछ कहते 
क्या कहा कोई सुनता नहीं 
अभी - अभी बहु ने गुस्से से 
ऐसे पटकी चाय की प्याली 
फूटी क्यों नहीं वही जानती होगी 
बेटों ने ऐसे कटाक्ष किये कि
जख्मों पर नमक पड़ गया  
तन-मन में सुलगती आग
फिर भी गूंजी एक आवाज़ 
"बेटा शाम को घर कब आएगा"
ठण्ड से कांपता बूढ़ा शरीर
सिहर उठता है रह-रह कर
अपनी ही आँखों के आगे  
अपने शब्द और अस्तित्व 
दोनों को  धूं -धूं करके
गुर्सी की आग में जलते देख 
जो उड़कर बिखर रहे हैं 
वक़्त क़ी निर्मम आंधी में 
कागज़ के टुकड़ों क़ी तरह...!!



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