मुड़ कर जाती ज़ीस्त
गुज़रते लम्हों को
शाइस्तगी से ताकीद की,
फ़र्ज़ और क़र्ज़
किसी ओर रोज़,
खोने और पाने का
हिसाब किसी ओर दिन,
मुद्द्त्तो के बाद मिली
पलक्षिण को समेट तो लू,
शाद ने भी
शाइस्तगी से ताकीद की,
हम न आएगे बार - बार..
पर हर इक की
हसरते जरूर हूँ,
मसरूफ हू पर
हर इक के नसीब में हूँ,
मैं भी इक गुज़रती
ज़ीस्त का लम्हा हूँ ..
©पम्मी
शाइस्तगी -सभ्य ,नम्र decent
शाद -ख़ुशी happiness
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-04-2016) को "फर्ज और कर्ज" (चर्चा अंक-2300) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मूर्ख दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चयन हेलु आभार, सर.
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना
जवाब देंहटाएंजी,धन्यवाद.
हटाएंक्या बात है....सुंदर अति सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुल-बहुत शुक्रिया..
हटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति :)
जवाब देंहटाएंप्रलिक्रिया हेतु अाभार..
हटाएंसुन्दर पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रिया हेलु धन्यवाद,सर.
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 06 जुलाई 2019 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जी,आभार।
हटाएंअति सुन्दर !!
जवाब देंहटाएंहसरते जरूर हूँ,
जवाब देंहटाएंमसरूफ हू पर
हर इक के नसीब में हूँ,
मैं भी इक गुज़रती
ज़ीस्त का लम्हा हूँ ..
बहुत ही लाजवाब....
वाह!!!!