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31 मार्च 2016

फर्ज और कर्ज किसी ओर...

मुड़  कर जाती  ज़ीस्त 
गुज़रते  लम्हों  को 
शाइस्तगी  से ताकीद   की
फ़र्ज़  और क़र्ज़ 
 किसी  ओर  रोज़,
खोने  और  पाने  का 
हिसाब  किसी  ओर  दिन
मुद्द्त्तो  के  बाद  मिली 
पलक्षिण  को  समेट  तो  लू,
शाद  ने  भी 
शाइस्तगी  से ताकीद  की,
हम  न  आएगे  बार - बार.. 
पर  हर इक  की
 हसरते जरूर  हूँ
मसरूफ   हू   पर 
 हर इक  के  नसीब में  हूँ,
मैं  भी  इक  गुज़रती 
ज़ीस्त  का  लम्हा हूँ  .. 
                                   ©पम्मी 
                                                                                   
 शाइस्तगी -सभ्य ,नम्र decent
शाद -ख़ुशी happiness


14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-04-2016) को "फर्ज और कर्ज" (चर्चा अंक-2300) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    मूर्ख दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. क्या बात है....सुंदर अति सुंदर।

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 06 जुलाई 2019 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  4. हसरते जरूर हूँ,
    मसरूफ हू पर
    हर इक के नसीब में हूँ,
    मैं भी इक गुज़रती
    ज़ीस्त का लम्हा हूँ ..
    बहुत ही लाजवाब....
    वाह!!!!

    जवाब देंहटाएं

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