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5 सितंबर 2016

तंज़….

तंज़….



कभी दरिया कभी सागर से लगते हैं
नैन पतझड़ से जब बरसते हैं ।
चश्म सजते हैं गुलाबी होकर
तुमको बेरंग बना बैठे हैं ।
रात आई है कितनी बन ठन के
चराग़ बिन जले ही जलते हैं ।
अलाव, सिसकियाँ खयालों की
जिनको ख़ामोशी में समोते हैं ।
उनके गेसू में फूल टेसू के
आग जंगल की आज लगते हैं ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 06/09/2016 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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  2. उत्तर
    1. धन्यवाद् यशोदा जी आपके बहुमूल्य समय एवम प्रोत्साहन के लिए.

      हटाएं
  3. बहुत खूब ... अच्छे हैं शेर आपकी ग़ज़ल के ..

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  4. बस कुछ ख़याल हैं दिल के आ गए.. आपके समय के लिए आपका धन्यवाद

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  5. बस कुछ ख़याल हैं दिल के आ गए.. आपके समय के लिए आपका धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं

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