‘ विरोधरस ‘---7.
विरोधरस के
अनुभाव
+रमेशराज
-----------------------------------------
मन
के स्तर पर जागृत हुए भाव का शरीर के स्तर पर प्रगटीकरण अनुभाव कहलाता है। भाव मनुष्य
की आंतरिक दशा के द्योतक हैं, जबकि
अनुभाव वाह्य दशा के। अतः भाव यदि एक क्रिया है तो अनुभाव अनुकिया या फिर एक प्रतिक्रिया।
हमारे मन में कौन-सा
भाव जागृत है, इसका पता
हम अनुभाव के ही द्वारा लगाते हैं। यदि मन में स्थायी भाव शोक है तो आंखों से अश्रुपात,
स्वर में भंगता, कम्पन
या आह-कराह की तीव्रता का प्रगट होना
स्वाभाविक है।
जहां तक ‘विरोध-रस’
के स्थायी भाव ‘आक्रोश’
की बात है तो यह ‘करुण-रस’
के स्थायी भाव ‘शोक’
से इसलिए अलग है क्योंकि शोक में किसी प्रिय वस्तु,
व्यक्ति आदि के अनिष्ट की आशंका अथवा इनके विनाश से
उत्पन्न दुःख की संवेगात्मक स्थिति तो बनती है लेकिन यह संवेगात्मक अवस्था प्रिय की
मधुर स्मृतियों से सिक्त होती है।
वियोग में भी योग या संयोग रहता है। निःश्वास,
छाती पीटना, रुदन,
प्रलाप, मूच्र्छा,
कंप, विषाद,
क्षोभ, जड़ता,
दैन्य, उन्माद,
व्याधि आदि
के बावजूद शोक-संतप्त प्राणी,
प्रिय से बिछुड़कर भी उससे बिछुड़ना नहीं चाहता। प्रेम
को खोकर भी उसी प्रेम को पाना चाहता है। वह तो
विछोह में ‘चंहु दिशि
कान्हा-कान्हा की टेर आंसुओं के बहते
हुए पनालों’ के साथ लगाता
है। विरहाग्नि में जलता है। सिर को धुनता है।
सच्चे प्रेम में यदि प्रेमी या प्रेमिका के बीच
यदि वियोग का संयोग बनता है तो इस में भी मोह या रति का आरोह-अवरोह
रहता है। जबकि ‘आक्रोश’
से सिक्त प्राणी के निःश्वास,
छाती पीटना, रुदन,
प्रलाप, कंप,
विषाद, क्षोभ,
जड़ता, दैन्य,
उन्मादादि में रति या सम्मति के ठीक विपरीत असहमति का
समावेश होने के कारण इसकी दुःखानुभूति तीक्ष्ण, क्षोभपरक
और दाहक होती है।
विरति की गति को ग्रहण करने वाले भाव का नाम आक्रोश
है। आक्रोशित प्राणी प्रिय से विश्वासघात या छल पाने की स्थिति में अप्रिय लगने लगता
है। विश्वास में चोट खाया प्राणी विश्वासघाती को मात देने की सोचता है। उसमें रति नहीं,
घृणा घनीभूत होती है,
जो उसे आक्रोश तक ले जाती है।
मान लीजिए-कोई
प्रेमी अपने स्वार्थ-भरे प्रेम
को पाने में असफल रहता है और प्रेमिका के चेहरे पर तेजाब फैंक देता है। तेजाब से झुलसी
उस प्रेमी की कथित प्रेमिका इस घटना को लेकर क्रन्दन जरूर करेगी। उसके नेत्र अश्रुधारा
के अविरल प्रपात बन जाएंगे। वह व्याकुल भी होगी। उसमें क्षोभ या विषाद भी सघन होगा।
किंतु उसकी दुःखानुभूति शोक को नहीं आक्रोश को जन्म देगी। उसमें रति नहीं,
विरति जागृत होगी। वह ऐसे प्रेमी के समूल नाश की कामना
करेगी। वह उसे दुआ नहीं, बद्दुआ देगी।
ठीक इसी प्रकार एक एय्याश पति का प्यार उस नारी
पर प्यार की नहीं, कटु और लीक्ष्ण
अनुभवों की बौछार करेगा, जिसे पता
चला है कि उसका पति कोठों पर नोटों के हार लुटाता है या परनारी को अपनी भोग्या बनाता
है। सौतन से किया गया प्यार उसे डाह और कराह की ओर ले जाएगा।
एक भाई की सम्पत्ति को अनैतिक और बलात् तरीके से
हड़पने वाला दूसरा भाई, पहले भाई
को भ्रातत्व की हत्या करने वाला कसाई दिखायी देगा। वह उसे हर हालत में नीच कहेगा।
किसी मजदूर की भूमि को छल और बलपूर्वक छीनने वाला
दबंग, मजदूर के अंग-अंग
को शोक से नहीं आक्रोश से भरेगा। भले ही वह उसे भीमकाय को देखकर डरेगा,
किंतु उसकी वाणी से दिन-रात
अपशब्दों का प्रपात झरेगा।
किसी को उधार दिया धन जब वापस नहीं आता तो धन को
दबोचने वाले के प्रति मन एक सीमा तक याचना, निवेदन
करने के बाद ऐसे क्षोभ व विषाद से तिलमिलाता है जिसमें मलाल,
धिक्कार का
अंबार लग जाता है। कुछ मिलकार धन हड़पे जाने
को लेकर ‘आक्रोश’
जग जाता है जिसकी निष्पत्ति ‘विरोध-रस’
में होती है।
‘विरोध-रस’
से सिक्त प्राणी के अनुभाव उस घाव का बयान होते हैं
जो विश्वास में की गयी घात से उत्पन्न होते हैं। इन अनुभावों को केवल परंपरागत तरीके
से नहीं समझा जा सकता है। ‘विरोध-रस’
को समझने के लिए आवश्यक है कि पहले हम आलंबनगत उद्दीपन
विभाव अर्थात् आलंबन के अनुभावों तक पहुंचने का प्रयास करें और इन अनुभावों के आधार
पर आश्रय में बनने वाले रस को परखें।
-------------------------------------------------------------
+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
-------------------------------------------------------------------
+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
स्वागत है आप का इस ब्लौग पर, ये रचना कैसी लगी? टिप्पणी द्वारा अवगत कराएं...