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22 अक्तूबर 2016

दिलों की सरहद

दिलों में बनी सरहद को अब मिटाना  होगा
पानी होते खून को फिर खून बनाना होगा 
मोहब्बत के लफ्ज जो नफरत की परिभाषा बने 
उन्ही लफ्जों को अब अमन की माला में पिरोना होगा 
 
वतन की  मिटटी की खुशबु कहीं खो सी रही है 
उसी मिटटी का तिलक अब सबके माथे पर लगाना होगा 
धुंआ-धुंआ होती दिवाली बहुत मना चुके अब 
मोहब्बत का दीया हर दिल में जलाना होगा 
गैरों के लिए अपनों को बहुत ठोकर मार ली 
बिछुड़े हुओं को फिर पलकों पर बिठाना होगा 
जलवों से जिनके रोशन हैं हिन्द की सरहदें 
अमन और भाईचारे से मुल्क का कर्ज चुकाना होगा 
वक़्त के पहिये में हर कोई यहाँ कुचला गया हितेश  
वरना मोहब्बत के जहाँ में नफरत का कहाँ ठिकाना होगा 

1 टिप्पणी:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (24-10-2016) के चर्चा मंच "हारती रही हर युग में सीता" (चर्चा अंक-2505) पर भी होगी!
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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