दिलों में बनी सरहद को अब मिटाना होगा | ||||
पानी होते खून को फिर खून बनाना होगा | ||||
मोहब्बत के लफ्ज जो नफरत की परिभाषा बने | ||||
उन्ही लफ्जों को अब अमन की माला में पिरोना होगा | ||||
वतन की मिटटी की खुशबु कहीं खो सी रही है | ||||
उसी मिटटी का तिलक अब सबके माथे पर लगाना होगा | ||||
धुंआ-धुंआ होती दिवाली बहुत मना चुके अब | ||||
मोहब्बत का दीया हर दिल में जलाना होगा | ||||
गैरों के लिए अपनों को बहुत ठोकर मार ली | ||||
बिछुड़े हुओं को फिर पलकों पर बिठाना होगा | ||||
जलवों से जिनके रोशन हैं हिन्द की सरहदें | ||||
अमन और भाईचारे से मुल्क का कर्ज चुकाना होगा | ||||
वक़्त के पहिये में हर कोई यहाँ कुचला गया हितेश | ||||
वरना मोहब्बत के जहाँ में नफरत का कहाँ ठिकाना होगा |
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आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (24-10-2016) के चर्चा मंच "हारती रही हर युग में सीता" (चर्चा अंक-2505) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'