रामचरन हिय दुख अति भारी
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खायौ विषधर कारे नै, दै
रह्यौ झाग रे
कब कौ तैने बदलौ लीनौ बनकर के नाग रे।
फन फैलायौ आज, हाथ
से उड़ौ जाय मेरौ तोता रे
दुखियारी कूं और दुक्ख दै नींद चैन की सोता रे
रुठि गयौ करतार हमारौ फूटि गयौ भाग रे।
तन ढकने को नहीं वस्त्र हैं बनता कोई काम नहीं
कैसी उल्टी दशा बन गयी रहयौ हमारो धाम नहीं
छाती के सम्मुख मेरौ लाला बनि गयौ आग रे।
पिया अछूत की करी चाकरी राजपाट सब छूटौ है
विधिना नै कैसौ करि दीनौ हाय नसीबा फूटौ है
तक ढकने को वस्त्र नहीं लागौ कैसौ दाग रे।
लेकर लाल चली जब तारा फिर मरघट में रोय परी
रामचरन हिय दुख अति भारी आयी कैसी अशुभ घरी
रोती है तारा जल्दी से लाला मेरे जाग रे।
---------------------------------------------+लोककवि रामचरन गुप्त
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