हिंदीग़ज़ल में होता है ऐसा !
+रमेशराज
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‘हिन्दी-ग़ज़ल’
के अधिकांश समर्थक, प्रवर्त्तक
, समीक्षक,
लेखक और उद्घोषक मानते हैं कि -‘ग़ज़ल
शब्द मूलतः अरबी भाषा का शब्द है, जिसका
अर्थ है-‘नारी के सौन्दर्य का वर्णन
तथा नारी से बातचीत।’
‘नालंदा अद्यतन
कोष’ में ग़ज़ल का अर्थ-[
फारसी और उर्दू में ] शृंगार रस की कविता’ दिया
गया है। लखनऊ हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित ‘उर्दू
हिन्दी शब्दकोष’ में ग़ज़ल
का अर्थ ‘प्रेमिका
से वार्तालाप है’। यह तथ्य
‘तुलसी प्रभा’
के अंक सित.-2000 में
श्री विनोद कुमार उइके ‘दीप’
ने अपने लेख ‘हिन्दी
ग़ज़ल-एक अध्ययन’
में स्वीकारे और उजागर किये हैं । ‘हिन्दी
ग़ज़ल विशेषांक’ के रूप में
प्रकाशित उक्त पत्रिका के इसी अंक में डॉ. नीलम
महतो का भी मानना है कि-‘ग़ज़ल शब्द
का अर्थ ‘सूत का ताना’
है। जब यह शब्द स्त्रियों के लिए प्रयुक्त होता है तो
स्त्रिायों से प्रेम-मोहब्बत की
बातचीत हो जाता है। उनकी सुन्दरता की तारीफ करना हो जाता है।’’
ग़ज़ल
विधा के अनुभवी अध्येता चानन गोविन्दपुरी ग़ज़ल के उक्त रूप या चरित्र को यूँ परिभाषित
करते हैं-‘‘ग़ज़ल वह
सुन्दरी है, जिसे ढीली-ढाली
पोशाक पसंद नहीं, उसे चुस्त
लिबास ही भला लगता है। खूबसूरत सुन्दरी से मुराद, उसकी
केवल मुख की सुन्दरता या शरीर की लम्बाई ही नहीं, जिस्म
के सभी अंगों में एक आनुपातिक सुडौलता होनी चाहिए।’’
इसी
हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक के सम्पादकीय में श्री प्रेमचन्द्र मंधान लिखते हैं कि-‘ग़ज़ल
की बुनियाद हुस्न-इश्क पर आधारित
होने के कारण उर्दू और हिन्दी की ग़ज़लों में प्रेमालाप की सम्भावनाएँ अनंत हैं।’
उक्त
सारे प्रमाण और तथ्य, इस सत्य को
स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं कि ग़ज़ल का विधागत स्वरूप,
कथ्य अर्थात् उसके आत्म या चरित्र के आधार पर तय किया
गया। ठीक इसी प्रकार कथ्य या चरित्र के आधार पर, अन्य
विधाओं या उपविधाओं जैसे क़लमा, मर्सिया,
ख्याल, कसीदा,
हज़्ल, व्यंग्य,
भजन, वन्दना,
प्रशस्ति, अभिनन्दन,
मजाहिया, कहमुकरिया,
पहेली आदि का भी निर्माण हुआ। इस कथ्य या चरित्र को
प्रस्तुत करने में शरीर [ शिल्प ] की भूमिका सदैव गौण रही या रहती है। अर्थात् किसी
भी निश्चित छंद की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं रही। उदाहरण के लिए ईश्वर के प्रति व्यक्त
की जाने वाली भावना को भजन के रूप में-दोहा,
रोला, कवित्त,
सवैया, घनाक्षरी,
चौपाई, सोरठा
आदि अनेक छन्दों के माध्यम से व्यक्त किया जाता रहा है। ठीक इसी प्रकार की कथ्य सम्बन्धी
विशेषताओं को लेकर कबीर के दोहों को साखी, सबद,
रमैनी आदि कहा गया। बधाई,
विनय, मंगलाचार,
श्रद्धांजलि, पहेली,
उलटबांसी, गारी,
बन्ना, आरती,
मल्हार, मान
या कजैतिन के गीत आदि का भी जब हम शास्त्रीय विवेचन करते हैं तो ये विधाएँ या उपविधाएँ
भी किसी शिल्प-विशेष या
छन्द-विशेष के परिचय की मोहताज न
होकर, हर प्रकार अपने कथ्य या चरित्र-विशेष
को ही मुखरित करती हैं। यही चारित्रिक विशेषाताएँ इन विधाओं की स्पष्ट पहचान है।
ठीक
इसी प्रकार के चरित्र को लेकर ग़ज़ल की स्थापना ‘प्रेमिका
से प्रेमपूर्ण बातचीत’ के संदर्भ
में की गयी। इसके लिए कोई छन्द-विशेष
न पहले प्रधान था, न आज है।
ग़ज़ल अनेक छन्दों अर्थात् बह्रों में कही जाती है। ग़ज़ल में प्रयुक्त अनेक छंदों
[ बह्र ] में से प्रयुक्त कोई छन्दविशेष अपनी निश्चित तुक-व्यवस्था
या निश्चित पद-व्यवस्था
के अन्तर्गत एक विशेष प्रकार के कथ्य को आलोकित करता है। इसी कथ्य के आलोक के संदर्भ
में ग़ज़ल का ग़ज़लपन तय किया जाता रहा है। अतः ‘नालंदा
शब्दकोष’ में ग़ज़ल को ‘शृंगार
की कविता’, ‘उ.प्र.
हिन्दी संस्थान’ की
पुस्तक ‘हिन्दी-उर्दू
शब्दकोश’ में-‘प्रेमिका
से वार्तालाप’, डॉ.
नीलम महतो की दृष्टि में-
‘सूत का ताना, जो
कि स्त्रियों के संदर्भ में आमोद-प्रमोद
करना है’ या चानन गोबिन्दपुरी की दृष्टि
में-‘एक आनुपातिक सुडौलता’
के रूप में उभरता है तो ग़ज़ल की एक स्पष्ट और शास्त्रीय
पहचान बनती हुई दिखाई देती है। ग़ज़ल का ग़ज़लपन तय होता हुआ परिलक्षित होता है। इसलिए
प्रेमचंद मंधान का यह मानना कि-‘ग़ज़ल
की बुनियाद हुस्न-इश्क पर आधारित
है, अतः ग़ज़ल में प्रेमालाप की
सम्भावनाएं अनंत हैं।’ मंधान यह
कहकर ग़ज़ल के वास्तविक अर्थ और मूल स्वरूप की पकड़ करते हैं। उनकी इस बात में अजीब
या अटपटा कुछ भी महसूस नहीं होता। लेकिन उनके द्वारा सम्पादित इसी अंक के आलेखों या
कथित ग़ज़लों के स्वर जब इन्हीं तर्कों का उपहास करते हुए दिखाई देते हैं तो एक असारगर्भित,अशास्त्रीय
अटपटानपन, प्रेत की
तरह प्रकट होता है, जिसकी काली
छाया में ग़ज़ल का स्वरूप, अर्थ और उसका
ग़ज़लपन थर-थर काँपने
लगता है।
श्री
विनोद कुमार उइके ‘दीप’
के आलेख के अन्तर्गत डॉ.
राही मासूम रजा की मान्यता है कि-‘ग़ज़ल
केवल एक फार्म है और इस फार्म की शैली हिन्दुस्तान के सिवाय दुनिया में कहीं है ही
नहीं। दो लाइनों पर आधारित यह फार्म दोहा है।’
डॉ.
साहब ने यह बात सम्भवतः इस आधार पर कही होगी कि ग़ज़ल
का हर शे’र बजाते-खुद-मुक़म्मल
और दूसरे शेरों से बेनियाज होता है। फिर भी
यहाँ विचाणीय तथ्य यह है कि-
1-अगर ग़ज़ल
एक फार्म-भर है तो
ग़ज़ल के चरित्र अर्थात् कथ्य सम्बन्धी पहलू पर ‘नालंदा’
और ‘उ.प्र.
हिन्दी संस्थान’ के
शब्दकोश क्यों जोर देते हुए ग़ज़ल को ‘प्रेमिका
से वार्तालाप’ या ‘शृंगार
की कविता’ घोषित करने
पर तुले हुए हैं?
2-ग़ज़ल का
शे’र यदि एक दोहा है तो फिर दोहा
क्या है?
3- अगर यह मान
भी लिया जाए कि ग़ज़ल में दो लाइनों पर आधारित यह फार्म दोहा ही है तो इसे शे’र
कहने, मानने,
मनवाने का औचित्य?
4-डॉ.
राही मासूम रजा के इस बयान को यदि हम ‘दो
पंक्तियों के माध्यम से कही गयी किसी सम्पूर्ण बात’ के
संदर्भ में लें और शे’र तथा दोहे
की इसी ‘मुकम्मल बयानी’
की विशेषता के साम्य को दृष्टि में रखते हुए विचार करें
तो क्या इसी अंक में प्रकाशित ‘धरोहर’
के अन्तर्गत हरिश्चन्द्र ‘रसा’
की कथित ग़ज़ल [ जहाँ देखो वहाँ.. ] या कबीर की [ हमन
है इश्क मस्ताना..] को ग़ज़ल की परिभाषाओं के अंतर्गत लाकर,
इनका ग़ज़लपन तय कर सकते हैं?
क्योंकि गौरतलब यह है कि ये रचनाएँ गीतात्मकता,
कथ्य और भाव की एकरूपता को,
सम्पूर्णता के साथ अपने में सँजोये हुए ही नहीं हैं,
इनमें विनय और वन्दना के स्वर आदि से लेकर अन्त तक शृंखलाबद्ध
तरीके से मौजूद हैं। अर्थात् ग़ज़ल के प्रत्येक शे’र
से दोहे जैसी कथन की सम्पूर्णता या मुकम्मलपन पूरी तरह गायब है। ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल
के समर्थक ऐसी रचनाओं को ग़ज़ल या हिन्दी-ग़ज़ल
की श्रेणी में रखकर अगर खुश होते हैं तो होते रहें, ये
रचनाएँ विनय या वन्दनाएँ हैं।
अतः काँटे का सवाल यह भी है कि-आज
शे’र के कथ्य के मुकम्मलपन को
दरकिनार कर ‘रसा’
और ‘कबीर’
की रचनाओं को
ग़ज़ल के अन्तर्गत रखा गया है तो क्या भविष्य में ‘रत्नाकर’
के ‘उद्धव
शतक’ को भी ग़ज़ल की श्रेणी में
लाने का प्रयास होगा? क्योंकि ‘उद्धव
शतक’ के कवित्तों में भले ही शे’र
जैसा मुकम्मलपन मौजूद न हो, लेकिन रदीफ-काफियों
को व्यवस्था ग़ज़ल की ही तरह मौजूद है।
कथित
ग़ज़ल की टाँग-पूँछ के ही
दर्शन कर उसे ग़ज़ल कहने, मानने या
मनवाने वालों से कुछ सवालों के उत्तर और पूछे जाने चाहिए कि यदि ग़ज़ल एक फार्म-भर
है तो इस फार्म में कोई सरस्वती, लक्ष्मी
या अन्य किसी देवी-देवता की
वन्दना करे तो उसे ‘वन्दना’
पुकारा जायेगा या ग़ज़ल?
इसी शिल्प के अन्तर्गत कोई,
गणेश, शिव,
विष्णु, पार्वती
आदि की आरती समाविष्ट करता है तो क्या ‘आरती’
के स्थान पर यह भी ग़ज़ल का एक नमूना बनेगा?
ठीक इसी प्रकार के शिल्प में यदि कोई ‘बधाई’,
‘गारी’, ‘बन्ना’,
‘कजैतिन’ या
‘मान’
के गीतों को समाहित करता है तो क्या हम इन्हें उक्त
विधाओं या उपविधाओं के स्थान पर ग़ज़ल कहकर ही संतुष्ट होंगे?
क्या वे इसे भी ग़ज़ल की गौरवमय परम्परा का उत्कृष्ट
नमूना बतायेंगे? ग़ज़ल के
व्यामोह में फँसा हुआ ग़ज़ल-फोबिया का शिकार व्यक्ति ही,
उक्त विधाओं के कथ्य या चरित्र को दरकिनार कर,
इन्हें ग़ज़ल बतलाने का दुस्साहस अपने अन्दर पैदा कर
सकता है।
अस्तु!
यह ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल पर बयानबाजी का दौर है। ग़ज़ल
के समर्थक, उद्घोषक,
इधर हिन्दी में कुछ ज्यादा ही उपज रहे हैं। जिन्हें
ग़ज़ल लिखने या कहने का सलीका या तरीका नहीं आता, वे
ग़ज़ल पर आलेख-दर आलेखों
की भरमार कर रहे हैं। ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य को बीमार कर रहे हैं।
इसी
विशेषांक में ग़ज़ल के विद्वान् लेखक अनिरुद्ध सिन्हा अपने आलेख ‘ग़ज़ल
की समझ का विरोध’ के अन्तर्गत
भले ही कितने भी असरदार या बज़्नदार तर्क देकर अपने तथ्यों को पाठकों के समक्ष रखते
हों, लेकिन उनके इस लेख के साथ,
इसी विशेषांक में पृ.
31 पर प्रकाशित, उनकी
ही एक ग़ज़ल, उनकी ‘समझ
की पोल’ खोलकर रख देती है। श्री अनिरुद्ध
सिन्हा की ‘दूसरी ग़ज़ल’
पाँच शे’रों
की है। इसमें प्रयुक्त छः काफ़ियों में से दो काफिये ‘शाम’
और ‘काम’
तो ठीक हैं। बाकी काफिये ‘नाम’
की बार-बार
आवृत्ति के कारण काफिये के स्थान पर रदीफ की तरह प्रयुक्त हुए हैं,
जो हर प्रकार ‘अशुद्ध
प्रयोग’ का ही परिचय देते हैं। रदीफ
की तरह काफियों को प्रयोग करने की यह ‘ग़ज़ल
की समझ’, क्या ग़ज़ल के मूल स्त्रोतों
पर आघात नहीं है?
श्री
विनोद कुमार उइके ‘दीप’
अपने आलेख ‘हिन्दी
ग़ज़लः एक अध्ययन’ के अन्तर्गत
इस बात को खुले मन से स्वीकारते हैं कि ग़ज़ल का हर शे’र
बजाते खुद मुकम्मल और दूसरे शेरों से बेनियाज होता है। लेकिन इस विशेषांक के पृ.
63 पर प्रकाशित उनकी प्रथम ग़ज़ल के समस्त शे’र
उनके इन्हीं तथ्यों पर उपहास की मुद्रा में खड़े हैं। यह ग़ज़ल,
ग़ज़ल के नाम पर ‘आइना-ए-अदल’,
‘कँवल’, ‘असल’
है या ‘छल’
है? यह
कैसी ग़ज़ल है, जिसका प्रत्येक
शे’र एक दूसरे का पूरक है। ऐसी
अशास्त्रीय ग़ज़लों को डॉ. नीलम महतो
यह कहकर श्रेष्ठ रचना-धर्मिता का
नूमना बताती हैं कि-‘‘ग़ज़ल-गीत
नाम से आने वाली ग़ज़ल में भावगत अलगाव यह है कि यह अपनी बुनावट में तो ग़ज़ल ही हैं
परंतु इनकी आत्मा गीत-सी है। ऐसी
ग़ज़लों के शे’र आपस में
अनुस्यूत-से हैं,
उनके पहले शे’र
के भावों की पुष्टि ग़ज़ल का दूसरा शे’र
करता है, जो नज्म का-सा
रूप खींचता है। ठीक इसी प्रकार हिन्दी ग़ज़लगो शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
ने अपनी एक ग़ज़ल ‘मर्सिया
शैली’ में कही है।’’
डॉ.
नीलम महतो ने उक्त बातें इसी विशेषांक में प्रकाशित
अपने आलेख-‘ग़ज़ल का
उत्स और हिन्दी ग़ज़ल में प्रयोग की दिशाएँ’ के
अन्तर्गत कही हैं। उनकी यह बातें कहाँ तक सही हैं, यहाँ
भी सवालों की शृंखलाएँ उभर रही हैं-
1.क्या हिन्दी
में ग़ज़ल के नाम पर ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप और उसके मूल स्त्रोतों को आघात देकर
ही ‘हिन्दी ग़ज़ल’
कही जायेगी?
2.जैसा कि आजकल
हिन्दी ग़ज़ल के समर्थक विभिन्न पत्रिकाओं के माध्यम से घोषणाएँ कर रहे हैं कि ‘हिन्दी
में आकर ग़ज़ल ने अपने परम्परागत स्वरूप [ शिल्प और कथ्य ] से मुक्ति पा ली है’,
तो यहाँ सोचने का विषय यह है कि इनमें ग़ज़ल जैसा क्या
रह गया है, जिसे ‘ग़ज़ल’
के नाम से विभूषित किया जाये?
क्या ऐसे ग़ज़ल-मर्मज्ञों
को ‘ग़ज़ल की समझ’
या जानकारी है भी या नहीं?
3.अगर ऐसे विद्वान्
तेवरी को भी ग़ज़ल का ही एक रूप मानने या मनवाने पर तुले हैं तो ऐसे मनीषियों को क्या
कहा जाये?
4.अगर हिन्दी
में आकर ग़ज़ल, गीत के निकट
जा सकती है, तो क्या भविष्य
में गीत भी ग़ज़ल के निकट जाकर कोई नया गुल खिलायेगा,
क्या वह भी हिन्दी ग़ज़ल हो जायेगा?
5.आज ग़ज़ल,
गीत और मर्सिया शैली में लिखी गयी है तो क्या वह भविष्य
में वन्दना, बधाई,
भजन, कसीदा,
कलमा, मल्हार,
मंगलाचार, अभिनन्दन
और वन्दन शैली में भी लिखी जायेगी?
6.जैसा कि डॉ.
नीलम महतो ने अपने आलेख में लिखा है कि-‘डॉ.
रोहिताश्व अस्थाना, जहीर
कुरैशी, आभा पूर्वे की अनेक ग़ज़लें
‘दोहा-ग़ज़ल’
नाम से प्रकाश में आयी हैं।’
तो क्या ग़ज़ल की बह्र की हत्या कर,
भविष्य में ग़ज़ल हिंदी-छंदों
के नाम के साथ-चौपाई ग़ज़ल,
रोला ग़ज़ल, घनाक्षरी
ग़ज़ल, गीतिका ग़ज़ल,
हरिगीतिका ग़जल, सोरठा
ग़ज़ल आदि-आदि नामों
से जानी जायेगी? आभा पूर्वे
की इसी अंक में प्रकाशित दोहा ग़ज़लों में मुखरित छन्द सम्बन्धी दोष भी क्या हिन्दी
ग़ज़ल की कोई विशेषता बनकर उभरेगा?
अस्तु,
जब हिन्दी में आकर ग़ज़ल,
अपने ग़ज़लपन, मूलस्त्रोतों,
शास्त्रीयता अर्थात् समस्त प्रकार की विशेषताओं को खोकर
‘हिन्दी ग़ज़ल’
बनने का प्रयास कर रही है तो ऐसे में डॉ.
कैलाश नाथ द्विवेदी ‘तुलसीप्रभा’
के इसी विशेषांक में प्रकाशित अपने आलेख में ‘हिन्दी
कविता और ग़ज़ल’ के अन्तर्गत,
हिन्दी कविता में ‘ग़ज़ल
मिश्रित’ [ ग़ज़ल नहीं ] पंक्तियों के
नमूने प्रस्तुत करने लगें और एक कवि ‘बेढ़ब’
के इसी तरीके से बने हुए ग़ज़ल के कथित हास्यास्पद रस
को अमृत बताने लगें तो आश्चर्य कैसा? हिंदीग़ज़ल
में होता है ऐसा!
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001
मो.-9634551630
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