ग़ज़ल
के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है?
+रमेशराज
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ग़ज़ल को प्रधानता से छापने
वाली पत्रिका ‘लफ्ज़-2’
सम्मुख है। पत्रिका का आलोक,
बिना किसी रोक-टोक
अन्तर्मन की गहराइयों को ऊर्जावान बनाता है। पत्रिका पढ़ते-पढ़ते
एक जादू-सा छा गया। अनेक ग़ज़लों का
कथन, मौलिकपन के साथ संवाद करता
हुआ उपस्थिति होता है। सहज-सरल विधि
से कही गयी अनेक ग़ज़लों का विमल स्वरूप, जाड़े
की धूप-सा प्रतीत होता है। इन ग़ज़लों
में प्रशंसनीय और वन्दनीय ‘बहुत कुछ’
है।
इस अंक में एक ओर जहाँ ग़ज़लों
के उत्तम नमूने अपनी सुन्दर छटा बिखेरते हैं, वहीं
कई ग़ज़लें ऐसी भी हैं, जिनसे प्राणवायु
[ रदीफ और काफिया ] अनुपस्थित हैं। श्री अहमद कमाल की ग़ज़ल [ पृ.
37 ] के मतला में ‘आया’
और ‘हुआ’
तुकों का निर्वाह हुआ है। रदीफ की अनुपस्थिति में कही
गयी इस ग़ज़ल ने कौन-सी ऊचाईयों
को छुआ है? इस ग़ज़ल
में आगे चलकर काफिये की सुव्यवस्था भी तब बिखर जाती है,
जब ‘आया’
की तुक ‘आया’
की माया [ काफिये को खोकर ] रदीफ की काया बन जाती है।
इस प्रकार यह ग़ज़ल अपने ही ग़ज़लपन के विरुद्ध चाकू की तरह तन जाती है।
ठीक इसी प्रकार की सही तुकों
की लाचारी या बीमारी का क्रम, परवेज
अख्तर, कैसर-उल-जाफरी,
विकास शर्मा ‘राज’,
सरफराज, शाकिर,
महेश जोशी, शशि
जोशी, शारिक कैफ़ी और कई अन्य की ग़ज़लों
को बेदम किये है। क्या समांत और स्वरांत अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था की हत्या कर,
ग़ज़ल को प्राणवान बनाया जा सकता है?
क्या तुकों के इस प्रयोग को सार्थक ठहराया जा सकता है?
इसी अंक में ग़ज़ल का एक दूसरा
पक्ष भी यक्ष की तरह खड़ा है, जिसका
हर सवाल ग़ज़ल के वक्ष में काँटे की तरह गड़ा है। श्री शहरयार की ग़ज़ल के घटक ‘फाइलातुन,
फाइलातुन, फाइलुन’
हैं। इन्हें मिलाकर ही सम्भवतः यह रचना छन्दबद्ध और
लयबद्ध की गयी है। इस ग़ज़ल के चौथे शे’र
की पहली पंक्ति [ रेत फैली और फैली दूर-दूर
] के ‘दूर-दूर’
शब्द ‘फाइलुन’
घटक द्वारा व्यक्त किये गये हैं। ‘फाइलुन’
के अनुसार क्या शब्दों की मात्रा गिराकर इन्हें ‘दर-दूर’
या ‘दूर-दर’
पढ़ा जायेगा? इस
पंक्ति को लयभंगता से कौन बचायेगा?
श्री अशरत रजा की ग़ज़ल के
घटक ‘फाइलातुन,
मफाइलुन, फेलुन’
हैं। इस ग़ज़ल के दूसरे शे’र
की तीसरी पंक्ति [ वह है जैसा कुबूल है यारो ] के प्रारम्भ में ही ‘वह
है जैसा’ शब्दों के बीच ‘फाइलातुन’
घटक बुरी तरह घायल हो जाता है। यह पढ़ने वाले पर निर्भर
है कि वह यहाँ किस शब्द या अक्षर को गिराता है। ठीक इसी प्रकार छन्द की लय का मकरन्द
शारिक कैफी की ग़ज़ल के चौथे शे’र
की दूसरी पंक्ति [ हाँ इक उम्मीद सही, हमेशा
थी ] में ‘हाँ-
इक उम्मीद’ के
बीच कसैला होकर उभरता है।
ग़ज़ल में मात्राएँ क्यों गिरायी जाती हैं?
क्या बिना मात्रा गिराये ग़ज़ल नहीं कही जा सकती?
घटक या घटक समूह के अनुरूप ही शब्दों को सँजोना थोड़ा
दुष्कर कार्य अवश्य है, लेकिन घटक
या घटक-समूह के अनुरूप निर्मित शब्द
विन्यास ग़ज़ल के लयात्मक सौन्दर्य में वृद्धि ही करता है। ओज ही भरता है।
उर्दू में ग़ज़ल को कहे जाने
के लिए अगर बह्र का प्रयोग घटकों के योग से सम्पन्न होता है तो हिन्दी में इसी प्रकार
के घटक, गण के रूप में प्रयोग किये
जाते हैं, जैसे जगण,
तगण, सगण,
मगण आदि। इधर अगर घटक ‘फैलुन’
है तो उधर ‘सगण’
के रूप में ‘सलगा’
है। संत तुलसीदास की एक पंक्ति प्रस्तुत है-
उक्त पंक्ति में सगण के रूप में ‘सलगा’
घटक का मात्राओं के क्रम [ लघु लघु दीर्घ ] के अनुसार
बिना मात्रा गिराये सफल निर्वाह हुआ है, जिसका
विभाजन [ तक़्ती ] इस प्रकार किया जा सकता है-
पुर
ते, निकसीं,
रघुवी, र
वधू , धरि धी ,
र दये, मग
में, डग
द्वै।
सलगा,
सलगा, सलगा,
सलगा, सलगा,
सलगा, सलगा,
सलगा।
वर्णिक छन्दों के अतिरिक्त
हिन्दी में मात्रिक छंद भी हैं, जिनमें
मात्राओं की गिनती कर छन्द पूरा किया जाता है। मात्रिक छंदों में [ वर्ण के अनुरूप
] घटक या घटक-समूह का प्रयोग
नहीं होता। उर्दू में घटक या घटक-समूह
का ही प्रयोग होता है, किंतु इन
घटकों के प्रयोग का अर्थ तब व्यर्थ अनुभव होता है, जब
घटक के वर्ण या अक्षर के अनुरूप प्रयोग नहीं मिलते। प्रयोग के अनुरूप की तो बात छोड़ें,
चाहे जब-चाहे
जहाँ मात्रा गिराने का चलन, एक फैशन बनता
जा रहा है। ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है?
हिन्दी में यदि घटक ‘सलगा’
के माध्यम से ‘पुर
ते, निकसीं,
रघुवी, ‘र
वधू ’ आदि शब्द-समूह
ज्यों के त्यों बनाये जा सकते हैं तो उर्दू में घटक ‘फेलुन’
के समान शब्द-समूह
जैसे ‘आ अब’,
‘ले मत’, ‘ है
नम’ के स्थान पर ‘रख-अब’
‘रख जा’, ‘सुन
ले’, शब्द समूह बनाया जाना क्या
घटकों की उठापटक को दर्शाना नहीं हैं? बह्र
का एक मात्रिक छंद बन जाना नहीं हैं?
इन तब तथ्यों को प्रस्तुत करने
के पीछे मेरा उद्देश्य न तो यह दर्शाना है कि मैं कोई साहित्य का महान पंडित हूँ या
हिन्दी और उर्दू कविता के किसी विशेष ज्ञान से महिमामंडित हूँ। मैं तो साहित्य का एक
बालक मात्र हूँ और निरंतर कुछ न कुछ सीखने की प्रक्रिया में हूँ। अपने अल्पज्ञान या
अज्ञान को सहज स्वीकारता हूँ। मेरा उद्देश्य यह भी नहीं है कि हिन्दी और उर्दू की सांस्कृतिक
साझेदारी को नष्ट किया जाये। इस पहचान का योग ही तो हिन्दुस्तान या भारतवर्ष है,
इस बात को कहते हुए मुझे कोई विषाद नहीं,
हर्ष ही हर्ष है। यह तो एक विचार-विमर्श
है, जिसकी मिठास में कड़वेपन का
आभास उत्पन्न नहीं होना चाहिए।
अतः आइए-इस सांस्कृतिक
साझेदारी के एक अन्य पहलू पर भी विचार करें- इसी
अंक में ‘आपके खत’
के अंन्तर्गत अशोक अंजुम,
राजेन्द्र रहबर के पत्र और उन पर सम्पादक एवं श्री नौमान
शौक का स्पष्टीकरण भी पढ़कर लगा कि श्री नौमान शौक विद्वान आलोचक हैं,
इसलिये उनकी हर बात का अर्थ,
समर्थ न हो, ऐसा
कैसे हो सकता है? शब्दों के
तद्भव और देशज रूपों से चिढ़ रखने का उनका अभ्यस्त मन,
शब्दों की तत्समता में ही अन्ततः रमता है। तभी तो उनकी
आलोचना का शब्दों के मूल उद्गम से कुछ अधिक ही नाता है। किन्तु यह कैसी विषमता है कि
इसी अंक में प्रकाशित उनकी ग़ज़ल के बदन में [ मन में नहीं ] भटकी सदा जब गुंजायमान
होती है तो यह पता ही नहीं चलता कि उन्होंने इस अंक में प्रकाशित अपनी ग़ज़ल में ‘जिसको’
भी पहन रखा है, ‘उसे’
पैंट की तरह पहन रखा है या शर्ट की तरह पहना है या यह
कोई गहना है? इस बारे में
हम जैसे मंदबुद्धि को कुछ नहीं कहना है। अतः स्वीकारे लेते हैं कि ‘किसी
को इस प्रकार पहन कर किया गया, उनका
यह अलौकिक कर्म, लौकिक रूप
से सुन्दर दिखने का ही प्रयास होगा।
उनकी ग़ज़ल के इस सौन्दर्य-बोध
के मध्य यदि ‘रखा’
शब्द ‘रक्खा’
[ रक्षा-बंधन
की ‘राखी’
का बड़ा रूप ] को भी ध्वनित करने लगे तो चलेगा। तत्सम
शब्द ‘प्रस्तर’
के स्थान पर ‘पत्थर’
भी भलेगा [ भला लगेगा ]। इस मौन स्वीकृति के उपरांत,
यदि शौकजी जैसा ही कोई सम्भ्रांत आलोचक अपने सवाल में
यह मलाल दर्शाने लगे कि कवि या शायरों को तत्सम् शब्द ही अपनाने चाहिए तो बात अटपटी
अनुभव होती है।
हिन्दी और उर्दू वाले समान
रूप से अपनी कविताओं में ‘अचरज’,
‘अनमोल’, ‘अँगूठा’,
‘कीड़ा’, ‘काठ’,
‘कोयल’, ‘नींद’,
‘छाता’, ‘नाम’,
‘गाँव’, ‘गधा’,
‘दाँत’, ‘घिन’,
‘बड़ा’, ‘डंक’,
‘आम’, ‘आसरा’,
‘आँसू’, ‘नंगा’,
‘आग’, ‘इकट्ठा’,
‘तिनका’, ‘थल’,
‘जमुना’, ‘काम’,
‘जीभ’, ‘खेत’,
‘नैन’, ‘नाच’,
‘गिद्ध’, ‘दूध’
आदि शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं,
जबकि इनका तत्सम रूप क्रमशः ‘आश्चर्य’,
‘अमूल्य’, ‘अंगुष्ठ’,
‘कीट’, ‘काष्ठ’,
‘वृह्द’, ‘दंश’,
‘आम्र’, ‘आश्रय’,
‘अश्रु’, ‘नग्न’,
‘अग्नि’, ‘एकत्र’,
‘तृण’, ‘स्थल’,
‘यमुना’, ‘कार्य’,
‘जिव्हा’, ‘क्षेत्र’,
‘नयन’, ‘नृत्य’,
‘गृद्ध’, और
‘दुग्ध’
है। इन तत्सम रूपों को हिन्दी या उर्दू वाले कितना प्रयोग
कर रहे हैं? इन सवाल पर
दोनों के मुख पर ताले जड़ रहे हैं।
अस्तु!
शब्द, ‘मोहब्बत’
और ‘मुहब्बत’
या ‘महब्बत’,
‘हालात’ और
हालातों’ या ‘बचपनी’
की बहस में उलझे यह विद्वान क्या बतलाने का कष्ट करेंगे
कि उर्दू में ‘चट्टानें’
का ‘चटानें’
[इब्राहीम अश्क, पृ.
40] ‘नदी’
का ‘नद्दी’
[खालिद किफायत, पृ.
48] ‘खण्डहर’
का ‘खंडर’
[राही, पृ.
41] ‘एक’
का ‘इक’
[शारिक कैफी,पृ.52]
‘चन्द्र’
का ‘चाँद’
[रईस, पृ.48],
‘ऋतुओं’ का
‘रुतें’
[इब्राहीम, पृ.
40], ‘रावण’
का ‘रावन’
[अतीक इलाहाबादी, पृ.
40], ‘सिरहाने’
का ‘सिराने’
[मुहम्मद अली मौज, पृ.
45] शब्द के रूप में प्रयोग करना किस कोण से उचित है?
जबकि यह सर्वविदित है कि ये शब्द तत्सम न होकर या तो
तद्भव है या देशज। अरबी-फारसी शब्दों
के तत्सम रूप के प्रयोग पर बल देने वालों को हिन्दी के तत्सम रूपों के प्रयोग पर भी
बल देना चाहिए। नहीं तो ऐसे निरर्थक विवाद खड़े करने पर भी पूर्ण-विराम
लेना चाहिए।
‘लफ्ज़’
के इसी अंक की ग़ज़लों का थोड़ा और अवलोकन करें तो ‘सिर’
को ‘सर’
‘सर्प’ को
‘साँप’,
‘फुल्ल’ को
‘फूल’,
‘दुःख’ को
‘दुख’,
‘उच्च’ को
‘ऊँचा’,
‘रहना’ को
‘रहियो’,
‘पृष्ठ’ को
‘पीठ’,
‘समुद्र’ को
‘समन्दर’,
‘अग्नि’ को
‘आग’,
‘पक्षी’ को
‘पंछी’,
‘सूर्य’ को
‘सूरज’,
‘आश्रय’ को
‘आसरा’,
‘हस्त’ को
‘हाथ’,
‘योग’ को
‘जोग’,
‘मुख’ को
‘मुँह’,
‘गौरी’ को
‘गोरी’,
‘कण्टक’ को
‘काँटा’,
‘रात्रि’ को
‘रात’,
‘अधर’ को
‘अधरा’
बनाकर कविता में प्रयोग करने पर जब हिन्दी और उर्दू
वालों में एक मीठी सहमति बन सकती है तो अरबी या फारसी शब्दों के तद्भव या देशज रूप
पर असहमति की एक पृथक अँगीठी क्यों सुलगती है? यदि
‘पानी’
को ‘पानियों’
[फिराक जलालपुरी, पृ.42]
बनाकर बहुवचन का आभास दिया जाना कोई सार्थक कर्म है तो ‘हालात’
से ‘हालातों’
या ‘बचपन’
से ‘बचपनी’
का निर्माण कैसे अधर्म है?
क्या यहाँ भी कोई हिन्दी या मुस्लिम मर्म है?
जिसकी साम्प्रदायिकता के बीच सामान्यजन [आम आदमी] की
बोलचाल की भाषा का रक्तरंजित होते जाना ही उसकी नियति है। यह कैसा स्थायी भाव रति है,
जिसका रस परिपाक ‘विरोध’
को जन्म देता है। हिन्दी और उर्दू के बीच अवरोध को जन्म
देता है।
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रमेशराज,
15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001
मो.-9634551630
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