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21 फ़रवरी 2017

ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है? +रमेशराज




ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है?

+रमेशराज
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   ग़ज़ल को प्रधानता से छापने वाली पत्रिका लफ्ज़-2’ सम्मुख है। पत्रिका का आलोक, बिना किसी रोक-टोक अन्तर्मन की गहराइयों को ऊर्जावान बनाता है। पत्रिका पढ़ते-पढ़ते एक जादू-सा छा गया। अनेक ग़ज़लों का कथन, मौलिकपन के साथ संवाद करता हुआ उपस्थिति होता है। सहज-सरल विधि से कही गयी अनेक ग़ज़लों का विमल स्वरूप, जाड़े की धूप-सा प्रतीत होता है। इन ग़ज़लों में प्रशंसनीय और वन्दनीय बहुत कुछहै।
   इस अंक में एक ओर जहाँ ग़ज़लों के उत्तम नमूने अपनी सुन्दर छटा बिखेरते हैं, वहीं कई ग़ज़लें ऐसी भी हैं, जिनसे प्राणवायु [ रदीफ और काफिया ] अनुपस्थित हैं। श्री अहमद कमाल की ग़ज़ल [ पृ. 37 ] के मतला में आयाऔर हुआतुकों का निर्वाह हुआ है। रदीफ की अनुपस्थिति में कही गयी इस ग़ज़ल ने कौन-सी ऊचाईयों को छुआ है? इस ग़ज़ल में आगे चलकर काफिये की सुव्यवस्था भी तब बिखर जाती है, जब आयाकी  तुक आयाकी माया [ काफिये को खोकर ] रदीफ की काया बन जाती है। इस प्रकार यह ग़ज़ल अपने ही ग़ज़लपन के विरुद्ध चाकू की तरह तन जाती है।
   ठीक इसी प्रकार की सही तुकों की लाचारी या बीमारी का क्रम, परवेज अख्तर, कैसर-उल-जाफरी, विकास शर्मा राज’, सरफराज, शाकिर, महेश जोशी, शशि जोशी, शारिक कैफ़ी और कई अन्य की ग़ज़लों को बेदम किये है। क्या समांत और स्वरांत अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था की हत्या कर, ग़ज़ल को प्राणवान बनाया जा सकता है? क्या तुकों के इस प्रयोग को सार्थक ठहराया जा सकता है?
   इसी अंक में ग़ज़ल का एक दूसरा पक्ष भी यक्ष की तरह खड़ा है, जिसका हर सवाल ग़ज़ल के वक्ष में काँटे की तरह गड़ा है। श्री शहरयार की ग़ज़ल के घटक फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलुनहैं। इन्हें मिलाकर ही सम्भवतः यह रचना छन्दबद्ध और लयबद्ध की गयी है। इस ग़ज़ल के चौथे शेर की पहली पंक्ति [ रेत फैली और फैली दूर-दूर ] के दूर-दूरशब्द फाइलुनघटक द्वारा व्यक्त किये गये हैं। फाइलुनके अनुसार क्या शब्दों की मात्रा गिराकर इन्हें दर-दूरया दूर-दरपढ़ा जायेगा? इस पंक्ति को लयभंगता से कौन बचायेगा?
   श्री अशरत रजा की ग़ज़ल के घटक फाइलातुन, मफाइलुन, फेलुनहैं। इस ग़ज़ल के दूसरे शेर की तीसरी पंक्ति [ वह है जैसा कुबूल है यारो ] के प्रारम्भ में ही वह है जैसाशब्दों के बीच फाइलातुनघटक बुरी तरह घायल हो जाता है। यह पढ़ने वाले पर निर्भर है कि वह यहाँ किस शब्द या अक्षर को गिराता है। ठीक इसी प्रकार छन्द की लय का मकरन्द शारिक कैफी की ग़ज़ल के चौथे शेर की दूसरी पंक्ति [ हाँ इक उम्मीद सही, हमेशा थी ] में  हाँ- इक उम्मीदके बीच कसैला होकर उभरता है।
ग़ज़ल में मात्राएँ क्यों गिरायी जाती हैं? क्या बिना मात्रा गिराये ग़ज़ल नहीं कही जा सकती? घटक या घटक समूह के अनुरूप ही शब्दों को सँजोना थोड़ा दुष्कर कार्य अवश्य है, लेकिन घटक या घटक-समूह के अनुरूप निर्मित शब्द विन्यास ग़ज़ल के लयात्मक सौन्दर्य में वृद्धि ही करता है। ओज ही भरता है।
   उर्दू में ग़ज़ल को कहे जाने के लिए अगर बह्र का प्रयोग घटकों के योग से सम्पन्न होता है तो हिन्दी में इसी प्रकार के घटक, गण के रूप में प्रयोग किये जाते हैं, जैसे जगण, तगण, सगण, मगण आदि। इधर अगर घटक फैलुनहै तो उधर सगणके रूप में सलगाहै। संत तुलसीदास की एक पंक्ति प्रस्तुत है- उक्त पंक्ति में सगण के रूप में सलगाघटक का मात्राओं के क्रम [ लघु लघु दीर्घ ] के अनुसार बिना मात्रा गिराये सफल निर्वाह हुआ है, जिसका विभाजन [ तक़्ती ] इस प्रकार किया जा सकता है-
पुर ते, निकसीं, रघुवी, र वधू , धरि धी , र दये, मग में,  डग द्वै।
सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा।
   वर्णिक छन्दों के अतिरिक्त हिन्दी में मात्रिक छंद भी हैं, जिनमें मात्राओं की गिनती कर छन्द पूरा किया जाता है। मात्रिक छंदों में [ वर्ण के अनुरूप ] घटक या घटक-समूह का प्रयोग नहीं होता। उर्दू में घटक या घटक-समूह का ही प्रयोग होता है, किंतु इन घटकों के प्रयोग का अर्थ तब व्यर्थ अनुभव होता है, जब घटक के वर्ण या अक्षर के अनुरूप प्रयोग नहीं मिलते। प्रयोग के अनुरूप की तो बात छोड़ें, चाहे जब-चाहे जहाँ मात्रा गिराने का चलन, एक फैशन बनता जा रहा है। ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है?
   हिन्दी में यदि घटक सलगाके माध्यम से पुर ते, निकसीं, रघुवी, ‘र वधू आदि शब्द-समूह ज्यों के त्यों बनाये जा सकते हैं तो उर्दू में घटक फेलुनके समान शब्द-समूह जैसे आ अब’, ‘ले मत’, ‘ है नमके स्थान पर रख-अब’ ‘रख जा’, ‘सुन ले’, शब्द समूह बनाया जाना क्या घटकों की उठापटक को दर्शाना नहीं हैं? बह्र का एक मात्रिक छंद बन जाना नहीं हैं?
   इन तब तथ्यों को प्रस्तुत करने के पीछे मेरा उद्देश्य न तो यह दर्शाना है कि मैं कोई साहित्य का महान पंडित हूँ या हिन्दी और उर्दू कविता के किसी विशेष ज्ञान से महिमामंडित हूँ। मैं तो साहित्य का एक बालक मात्र हूँ और निरंतर कुछ न कुछ सीखने की प्रक्रिया में हूँ। अपने अल्पज्ञान या अज्ञान को सहज स्वीकारता हूँ। मेरा उद्देश्य यह भी नहीं है कि हिन्दी और उर्दू की सांस्कृतिक साझेदारी को नष्ट किया जाये। इस पहचान का योग ही तो हिन्दुस्तान या भारतवर्ष है, इस बात को कहते हुए मुझे कोई विषाद नहीं, हर्ष ही हर्ष है। यह तो एक विचार-विमर्श है, जिसकी मिठास में कड़वेपन का आभास उत्पन्न नहीं होना चाहिए।
अतः आइए-इस सांस्कृतिक साझेदारी के एक अन्य पहलू पर भी विचार करें- इसी अंक में आपके खतके अंन्तर्गत अशोक अंजुम, राजेन्द्र रहबर के पत्र और उन पर सम्पादक एवं श्री नौमान शौक का स्पष्टीकरण भी पढ़कर लगा कि श्री नौमान शौक विद्वान आलोचक हैं, इसलिये उनकी हर बात का अर्थ, समर्थ न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? शब्दों के तद्भव और देशज रूपों से चिढ़ रखने का उनका अभ्यस्त मन, शब्दों की तत्समता में ही अन्ततः रमता है। तभी तो उनकी आलोचना का शब्दों के मूल उद्गम से कुछ अधिक ही नाता है। किन्तु यह कैसी विषमता है कि इसी अंक में प्रकाशित उनकी ग़ज़ल के बदन में [ मन में नहीं ] भटकी सदा जब गुंजायमान होती है तो यह पता ही नहीं चलता कि उन्होंने इस अंक में प्रकाशित अपनी ग़ज़ल में जिसकोभी पहन रखा है, ‘उसेपैंट की तरह पहन रखा है या शर्ट की तरह पहना है या यह कोई गहना है? इस बारे में हम जैसे मंदबुद्धि को कुछ नहीं कहना है। अतः स्वीकारे लेते हैं कि किसी को इस प्रकार पहन कर किया गया, उनका यह अलौकिक कर्म, लौकिक रूप से सुन्दर दिखने का ही प्रयास होगा।
उनकी ग़ज़ल के इस सौन्दर्य-बोध के मध्य यदि रखाशब्द रक्खा[ रक्षा-बंधन  की राखीका बड़ा रूप ] को भी ध्वनित करने लगे तो चलेगा। तत्सम शब्द प्रस्तरके स्थान पर पत्थरभी भलेगा [ भला लगेगा ]। इस मौन स्वीकृति के उपरांत, यदि शौकजी जैसा ही कोई सम्भ्रांत आलोचक अपने सवाल में यह मलाल दर्शाने लगे कि कवि या शायरों को तत्सम् शब्द ही अपनाने चाहिए तो बात अटपटी अनुभव होती है।
   हिन्दी और उर्दू वाले समान रूप से अपनी कविताओं में अचरज’, ‘अनमोल’, ‘अँगूठा’, ‘कीड़ा’, ‘काठ’, ‘कोयल’, ‘नींद’, ‘छाता’, ‘नाम’, ‘गाँव’, ‘गधा’, ‘दाँत’, ‘घिन’, ‘बड़ा’, ‘डंक’, ‘आम’, ‘आसरा’, ‘आँसू’, ‘नंगा’, ‘आग’, ‘इकट्ठा’, ‘तिनका’, ‘थल’, ‘जमुना’, ‘काम’, ‘जीभ’, ‘खेत’, ‘नैन’, ‘नाच’, ‘गिद्ध’, ‘दूधआदि शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, जबकि इनका तत्सम रूप क्रमशः आश्चर्य’, ‘अमूल्य’, ‘अंगुष्ठ’, ‘कीट’, ‘काष्ठ’, ‘वृह्द’, ‘दंश’, ‘आम्र’, ‘आश्रय’, ‘अश्रु’, ‘नग्न’, ‘अग्नि’, ‘एकत्र’, ‘तृण’, ‘स्थल’, ‘यमुना’, ‘कार्य’, ‘जिव्हा’, ‘क्षेत्र’, ‘नयन’, ‘नृत्य’, ‘गृद्ध’, और दुग्धहै। इन तत्सम रूपों को हिन्दी या उर्दू वाले कितना प्रयोग कर रहे हैं? इन सवाल पर दोनों के मुख पर ताले जड़ रहे हैं।
   अस्तु! शब्द, ‘मोहब्बतऔर मुहब्बतया महब्बत’, ‘हालातऔर हालातोंया बचपनीकी बहस में उलझे यह विद्वान क्या बतलाने का कष्ट करेंगे कि उर्दू में चट्टानेंका चटानें[इब्राहीम अश्क, पृ. 40] नदीका नद्दी[खालिद किफायत, पृ. 48] खण्डहरका खंडर[राही, पृ. 41] एकका इक[शारिक कैफी,पृ.52] चन्द्रका चाँद[रईस, पृ.48], ‘ऋतुओंका  रुतें[इब्राहीम, पृ. 40], ‘रावणका रावन[अतीक इलाहाबादी, पृ. 40], ‘सिरहानेका सिराने[मुहम्मद अली मौज, पृ. 45] शब्द के रूप में प्रयोग करना किस कोण से उचित है? जबकि यह सर्वविदित है कि ये शब्द तत्सम न होकर या तो तद्भव है या देशज। अरबी-फारसी शब्दों के तत्सम रूप के प्रयोग पर बल देने वालों को हिन्दी के तत्सम रूपों के प्रयोग पर भी बल देना चाहिए। नहीं तो ऐसे निरर्थक विवाद खड़े करने पर भी पूर्ण-विराम लेना चाहिए।
   ‘लफ्ज़के इसी अंक की ग़ज़लों का थोड़ा और अवलोकन करें तो सिरको सर’ ‘सर्पको साँप’, ‘फुल्लको फूल’, ‘दुःखको दुख’, ‘उच्चको ऊँचा’, ‘रहनाको रहियो’, ‘पृष्ठको पीठ’, ‘समुद्रको समन्दर’, ‘अग्निको आग’, ‘पक्षीको पंछी’, ‘सूर्यको सूरज’, ‘आश्रयको आसरा’, ‘हस्तको हाथ’, ‘योगको जोग’, ‘मुखको मुँह’, ‘गौरीको गोरी’, ‘कण्टकको काँटा’, ‘रात्रिको रात’, ‘अधरको अधराबनाकर कविता में प्रयोग करने पर जब हिन्दी और उर्दू वालों में एक मीठी सहमति बन सकती है तो अरबी या फारसी शब्दों के तद्भव या देशज रूप पर असहमति की एक पृथक अँगीठी क्यों सुलगती है? यदि पानीको पानियों[फिराक जलालपुरी, पृ.42] बनाकर बहुवचन का आभास दिया जाना कोई सार्थक कर्म है तो हालातसे हालातोंया बचपनसे बचपनीका निर्माण कैसे अधर्म है? क्या यहाँ भी कोई हिन्दी या मुस्लिम मर्म है? जिसकी साम्प्रदायिकता के बीच सामान्यजन [आम आदमी] की बोलचाल की भाषा का रक्तरंजित होते जाना ही उसकी नियति है। यह कैसा स्थायी भाव रति है, जिसका रस परिपाक विरोधको जन्म देता है। हिन्दी और उर्दू के बीच अवरोध को जन्म देता है।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001
मो.-9634551630

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