अमर
स्वाधीनता सैनानी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
+रमेशराज
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राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस अब सीमेंट, यूरिया, आदर्श सोसायटी, 2 जी स्पेक्ट्रम,
कामन वेल्थ गेम घोटालों के लिये विख्यात हो चुकी है। काली करतूतों जैसे तस्करी, घोटालों और देशद्रोह में लिप्त रहने वाले कांग्रेसी राजनीतिज्ञों के ठीक विपरीत
राजेन्द्र बाबू जनता के सच्चे हमदर्द थे। जातिवाद या सांप्रदायिकता का भाव उन्हें छू
भी नहीं सका था। ईमानदारी की ऐसी मिसाल कि जिस पर हर भारतीय गर्व कर सकता है।
एक ठेठ किसान जैसे दिखने वाले, तन पर खद्दर के सफेद वस्त्र, बेहद सीधे-सादे,
भोले-भाले, अपने आप में पूरी तरह निराले राजेंद्र
बाबू में सच्चाई, विनम्रता और सेवाभाव कूट-कूट कर भरे थे। ऐसे
व्यक्तित्व के आगे कौन नतमस्तक नहीं होना चाहेगा? राजेन्द्र बाबू
ने न तो कभी अन्याय के सम्मुख अपना सर झुकाया और न कभी उस वर्ग के पोषक या हिमायती
बने, जो जनता का शोषण करता है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप
में देश का गौरव बढ़ाने वाले डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब वकालत की शिक्षा ग्रहण कर रहे
थे तभी उन्होंने ‘बिहारी विद्यार्थी सम्मेलन’ में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके भाषण देने की कला और जोशीले विचारों की चर्चा
पूरे देश में होने लगी।
राजेन्द्र बाबू दीन-दुखी, असहाय, पीडि़तों की सेवा को ही सर्वोपरि धर्म मानते थे।
अतः जब भी उन्हें मानवीय क्रन्दन सुनायी देता, वे करुणाद्र हो
उठते। असहायों की सहायता करने के लिये वे तुरत मैदान में कूद पड़ते।
गांधीजी के इस ‘अहिंसक सैनिक’ का जन्म बिहार के जीरादेई गांव में हुआ।
बंगाल के बड़े-बड़े प्रोफेसर उस समय बिहार को ‘बौद्धिक रूप से
दरिद्र’ मानते थे। राजेन्द्र प्रसाद ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी की
समस्त कक्षाओं में सर्वप्रथम आकर सभी को चकित कर दिया। जगदीश चन्द्रबोस और प्रफुल्लचन्द्र
राय जैसे यूनिवर्सिटी के प्रसिद्ध प्रोफेसरों ने उस समय टिप्पणी की कि-‘‘ राजेन्द्र बाबू ऐसा होनहार विद्यार्थी है कि उसे अध्यापक कभी भुला नहीं सकेंगे।’’
विद्यार्थी जीवन में ही अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय
देने वाले राजेन्द्र बाबू ने जब देखा कि नील की खेती करने वाले अंग्रेज जमींदार गरीब
किसानों पर अत्याचार कर रहे हैं तो वे उनके विरुद्ध किसानों को संगठित करने लगे। उन्होंने
चम्पारन में उन जमीदारों के खिलाफ सत्याग्रह आंदोलन तेज कर दिया जो आम कृषकों को लूटकर
मालामाल हो रहे थे। चम्पारन सत्याग्रह के दौरान ही राजेन्द्रबाबू का परिचय गांधीजी
से हुआ।
सन् 1927 में जब साइमन कमीशन
भारत आया तो उसके विरोध में एक तरफ जहां लाला लाजपत राय, भगत
सिंह आदि ने उग्र प्रदर्शन किया, लाठियां खायीं, वहीं राजेन्द्र बाबू ने 25-30 हजार कार्यकर्ताओं के साथ
साइमन कमीशन को काले झंडे दिखाकर यह सिद्ध कर दिया कि बिहार भी उनके नेतृत्व में उस
हर काले कानून की विरोधी है जो जनता के शोषण के लिये लाया गया है या लाया जा रहा है।
1929 में कांग्रेस ने जो ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ का प्रस्ताव पास किया, उसे पास कराने में राजेन्द्रबाबू ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1930 में ‘नमक तोड़ो’ सत्याग्रह आंदोलन
के वे अग्रणी सिपाही रहे।
1934 में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन
में जब राजेन्द्र बाबू को सभापति के बाद अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने कांग्रेस के
शिथिल संगठन को गति ही प्रदान ही नहीं की, बल्कि किसानों की दशा
सुधारने के अनेक प्रयास किये। बिहार और संयुक्त प्रान्त के मजदूरों में उन दिनों भयंकर
असंतोष व्याप्त था। कानपुर और डालमिया नगर में महीनों से हड़ताल चल रही थी। राजेन्द्र
बाबू ने लेबर कमीशन का प्रधान बनकर समस्या को सुलझाने का प्रयास किया, जिसमें वे किसी हद तक सफल भी हुए।
अगर यह कहा जाये कि 1942 के ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आन्दोलन
का केन्द्र इलाहाबाद से लेकर मुंगेर और भागलपुर था, तो कोई अतिशियोक्ति
नहीं होगी। यदि यह भी कहा जाये कि 1942 में समस्त भारत में स्वाधीनता
संग्राम का कार्य जितना सम्पूर्ण भारत में हुआ था, उतना अकेले
बिहार और उससे सटे हुए बलिया, गाजीपुर, बस्ती आदि जिलों ने कर दिखाया तो इसका श्रेय भी राजेन्द्र बाबू के नेतृत्व
को जाता है।
वास्तव में राजेन्द्र बाबू उन महान आत्माओं में से एक
थे जिन्होंने अपने प्राण हथेली पर रख, समाज को एक नयी दिशा दी। गांधीवादी युग के कांग्रेसी नेताओं के बीच वह अविवादास्पद,
चरित्रवान और अतुलनीय होने के कारण ही सर्वसम्मति से राष्ट्रपति पद पर
चुन लिये गये। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने हिन्दी के समर्थन में जिस प्रकार खुलकर
बोला, वह भी सतुत्य है।
राजेन्द्रबाबू का समस्त जीवन-काल अनुकरणीय और प्रेरणास्पद
है। राजनीति से निरंतर होते नैतिक मूल्यों के ह्रास ने उस कांग्रेस को आज घोटालेबाजों
की श्रेणी में ला दिया है, जिसे राजेन्द्र बाबू ने ‘नैतिकता की मिसाल’ के रूप में पहचान दी थी।
-15/109 ईसानगर, अलीगढ़
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