तुम्हारे घर सुना सबेरा बहुत है
यहाँ रात बीती अँधेरा बहुत है
समय की हैं बातें सबेरे-अँधेरे
कहीं नींद, कहीं रतजगा बहुत है
तुम्हें मिलते हैं साथी बहुत से
हमें तन्हाई का सहारा बहुत है
याद करना और आँसू बहाना
वक्त बिताने का बहाना बहुत है
कभी तो निकलोगे रस्ते हमारे
दीदार का ये आसरा बहुत है
मिलना तो कहना भुलाया नहीं था
जीने को बस ये फसाना बहुत है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-12-2017) को "ढकी ढोल की पोल" (चर्चा अंक-2822) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उम्मीद ज़रूरी है हर पल ...
जवाब देंहटाएंमाँ के अवसाद भरे लमहों को लिखा है ... बहुत अच्छी रचना ...
सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
बहुत सुन्दर...
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