हिन्दीग़ज़ल
में कितनी
ग़ज़ल? [भाग-1]
-रमेशराज
……………………….........................................................................
हिन्दी
में ग़ज़ल
अपने विशुद्ध शास्त्रीय
सरोकारों
के साथ
कही या
लिखी जाए, इस
बात पर
किसे आपत्ति
हो सकती
है। ग़ज़ल
का ग़ज़लपन
यदि उसके
सृजन में
परिलक्षित
नहीं होगा
तो उसे
ग़ज़ल
मानने
या मनवाने
की जोर-जबरदस्ती
केवल धींगामुश्ती
ही कही
जाएगी।
हिन्दी में
थोक के
भाव ग़ज़ल-संग्रह
निकल रहे
हैं और
हर ग़ज़ल
संग्रह
में ग़ज़ल
के शिल्प
और कथ्य
के सत्य
को दूसरों
को समझाने
या बताने
के लिए
लम्बी-चैड़ी
भूमिका
के रूप
में बयानबाजी
भी [ग़ज़ल
के पंडित
या किसी
मुल्ला-काजी
की तरह]
उसमें
मौजूद
है। इससे
ग़ज़ल
का क्या
भला होगा, यह
सोचने
का विषय
इसलिए
है क्योंकि
हर हिन्दी
ग़ज़लकार
ग़ज़ल
के इश्किया
रचाव से
बँधा हुआ
है और
ग़ज़ल
को सामाजिक
क्रान्ति
का जरूरी
औजार भी
बता रहा
है।
हिन्दी में
आकर यदि
ग़ज़ल
की शक़्ल
क्रान्तिकारी
हो गयी
है तो
उन ग़ज़लों
के बारे
में क्या
कहा जाएगा
जिनमें
रनिवास, प्यास, देह
के रास
का मधुप्रास
मौजूद
है। हिन्दी
में आकर
यदि ग़ज़ल
एक अग्निलय
है तो
उससे चुम्बन-आलिंगन
का परिचय
नहीं मिलना
चाहिए।
एक ही
ग़ज़ल
के एक
शे’र
में अभिसार
के क्षणों का
सीत्कार
और दूसरे
शे’र
में बलत्कृत, शोषित, पीडि़त
नारी का
चीत्कार, क्या
यह नहीं
दर्शाता
कि ग़ज़लकार
किसी मानसिक
हीनग्रन्थि
का शिकार
है।
प्रेमिका को
बाँहों
में भरकर
सामाजिक
आक्रोश
या सामाजिक
सरोकारों
के होश
की बातें
करना ग़ज़ल
के क्षेत्र
में इधर -उधर मुँह
मारने
के सिवा
क्या हो
सकता है? सम्भवतः
ग़ज़लकारों
की इसी
कलाकारी
से खीजकर
डाॅ. प्रभाकर
माचवे
ने सटीक
टिप्पणी
की- ‘‘बाजार
में माल
चल गया, फिर शुद्ध के
नाम पर
क्या-क्या
वनस्पतियाँ
मिलावट
में आ
गयीं, जिसका
विश्लेषण
सामान्य
पाठक तो
नहीं कर
पाता।
हिन्दी
के सम्पादक
भी नहीं
कर पाते।
हिन्दी
में लिखी
जाने वाली
‘ग़ज़ल’ नामक
रचना न
उत्तम
कविता
है, न
उत्तम
गीत।... आज
ग़ज़ल
के नाम
पर हिन्दी
में जो
कुछ छप
रहा है, ऐसी
रचनाओं
को देखकर
ही कभी
समर्थ
रामदास
ने मराठी
में कहा
था-‘‘ शायरी
घास की
तरह उगने
लगी है।
किसी ने
उर्दू
में कहा-‘‘ शायरी
चारा समझकर
सब गधे चरने
लगे। [प्रसंगवश,फर.-1994, पृ.51
सवाल यह
है कि
डॉ. प्रभाकर
माचवे
यह कहकर
कि ' हिन्दी
में लिखी
जाने वाली
‘ग़ज़ल’ नामक
रचना न
उत्तम
कविता
है, न
उत्तम
गीत', हिन्दी
ग़ज़ल
को उत्तम
कविता
क्यों
नहीं मानते? इस
सवाल के
उत्तर
के लिए
आइए ग़ज़ल
के उस
शास्त्रीय
पक्ष पर
नजर डालें, जिससे
उसका ग़ज़लपन
तय होता
है-
‘‘ग़ज़ल
मूलतः
अरबी भाषा
का शब्द
है, जिसका
अर्थ है-‘नारी
के सौन्दर्य का
वर्णन
तथा नारी
से बातचीत’।
नालंदा
अद्यतन
कोष में
ग़ज़ल
का अर्थ
[ फारसी
और उर्दू
में ] ‘ शृंगार
की कविता’ दिया
गया है।
लखनऊ हिन्दी
संस्थान
द्वारा
प्रकाशित
'उर्दू-हिन्दी
शब्दकोष' में
ग़ज़ल
का अर्थ-‘प्रेमिका
से वार्तालाप
है।’
डॉ. नीलम
महतो का
भी मानना
है-‘ ग़ज़ल
अरबी शब्द
है जिसका
अर्थ-‘सूत
का ताना
है। जब
यह शब्द
स्त्रियों
के सन्दर्भ
में प्रयुक्त
होता है
तो उनसे
प्रेम-मोहब्बत
की बातें
करना हो
जाता है।
उनकी सुन्दरता
की तारीफ
करना हो
जाता है।
उनके साथ
आमोद-प्रमोद
करना हो
जाता है।’’ {तुलसी
प्रभा, सित-2000 पृ. 18}
हिन्दी ग़ज़लकार
या
इसके
पैरोकार
इसी
प्रेमिका
से
प्रेमपूर्ण
बातचीत
करने
वाली
विधा ग़ज़ल
के
कैसे-कैसे
अर्थ
निकालते
हैं, उन
पर
गौर
फरमाइएँ-
डॉ . पुरुषोत्तम
सत्यप्रेमी
कहते हैं-‘‘ग़ज़ल
की विधा
उर्दू
से हिन्दी
में क्या
आयी कि
गोया गुल्लो-बुलबुल
की सहोदर
से निकलकर
जीवन की
सीमाओं
में दाखिल
हो गयी।’’
डॉ. गोपालकृष्ण
शर्मा
कहते हैं - ‘‘स्वयं
ग़ज़लकारों
ने अपने
जीवन में
सामाजिक
विसंगतियों
को भोगा
और झेला
है, तभी
तो उनका
चित्रण
विश्वसनीय
और यथार्थ
बन पड़ा
है। उनके
रचना-संग्रहों
के स्वर
बड़े बेवाक
सशक्त
और मनमस्तिष्क
को आन्दोलित
करने वाले
हैं।’’
हिन्दी ग़ज़ल
के वरिष्ठ
हस्ताक्षर
डॉ. शेरजंग
गर्ग ने
भी यही
रट लगायी
कि-‘‘ हिन्दी
ग़ज़ल
का उदय
देश की
आज़ादी
के साथ
हुआ और
आज़ादी
के बाद
देश की
व्यवस्था
से मोहभंग
की स्थिति
तथा वर्गसंघर्ष
ने इसे
जनवादी
स्वरूप
प्रदान
किया।’’ {सौगात, अप्रैल-09, पृ.3}
डॉ. प्रभा
दीक्षित
के स्वरों
से भी
हिन्दी
ग़ज़ल
को लेकर
‘हाँ-हाँ’ उभरी
और उन्होंने
भी ग़ज़ल
के तेवरों
को बदलते
हुए उसे
जनवादी
जेबर पहनाये
और अपना बयान
दर्ज कराया-‘‘ आज
भूमण्डलीकरण
के दौर
में जब
साम्राज्यवादी
उपभोक्ता, अपसंस्कृति
मिलकर
आम आदमी
को गुलाम
या मशीन
बनाने
का प्रयास
कर रही
है, ऐसी
स्थिति
में जो
साहित्य
आमजन की
पक्षधरता
में अपनी
साहित्य-धर्मिता
का निर्वाह
कर रहा
है, उसमें
आधुनिक
ग़ज़ल
अपने जनवादी
तेवरों
के साथ
अगली पंक्ति
में दृष्टिगत
हो रही
है।’’ {सौगात, अप्रैल-2009, पृ.4}
एक
जरूरी
प्रश्न
अवहेलना
या
उपेक्षा
की
खाक
में
……
ग़ज़ल
में चारित्रिक
बदलाव
और उसके
नये जनवादी
चरित्र
के रचाव
को लेकर
दिये गये
बयानों
से इतर
भी ग़ज़ल
के यथार्थवादी
स्वर को
लेकर अच्छा-खासा
हो हल्ला
है। इस
हो-हल्ले
के बीच
एक सार्थक
सवाल कि
ग़ज़ल
के इस
बदले हुए
चरित्र
का आकलन
कैसे किया
जाए या
इस चरित्र
को नया
क्या नाम
दिया जाए, एक
बवाल बनकर
रह गया
है। इससे
हर कोई अपनी
जान छुड़ाने
की फिराक
में है।
कुल मिलाकर
यह एक
जरूरी
प्रश्न
अवहेलना
या उपेक्षा
की खाक
में है?
कोठे की चम्पाबाई और रानी लक्ष्मी बाई में अंतर कब महसूस करेंगे हिदी ग़ज़लकार ?
ग़ज़ल में कथित रूप से आये चारित्रिक बदलाव जिसमें ग़ज़ल अब कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई के स्थान पर रानी लक्ष्मी बाई बन अब तलवार लेकर शोषकों पर वार कर रही है, इसे फिर भी ग़ज़ल क्यों कहा जाये या रानी लक्ष्मी बाई के स्थान पर इसे चम्पाबाई ही क्यों पुकारा जाये , इस प्रश्न का सही और सार्थक उत्तर
हिन्दी
ग़ज़लकार
के पास
नहीं है।
उसके पास
तो हिन्दी
ग़ज़ल
के जनवादी
तेवर की
काँव-काँव
है। मेंढ़क
जैसी टर्र-टर्र
है। बन्दर
जैसी घुड़की
है कि
ग़ज़ल
के इस
बदले हुए
रूप को
जानो-पहचानो
और मानो।
ग़ज़ल
अगर कथित
उर्दू
से हिन्दी
में आकर
हाथों
में लगी
मशाल हो
गयी है, तो
हिन्दी
में थोक
के भाव
लिखी जा
रही ऐसी
ग़ज़लों
को क्या
पुकारा
जाये, जिनके
कथन में
आज भी
देह का
मधुमास
है, मिलन
की प्यास
है, संयोग-वियोग
का रत्यात्मक
इतिहास
है। इस प्रश्न पर हर ग़ज़लकार मौन है |
हिन्दी
की ग़ज़लों
के पास
अपनी कोई
सार्थक
ज़मीन
है ही
नहीं .......
हिन्दी में
प्रेमी
से अभिसार, चुम्बन
की बौछार
करने वाली
विधा का
नाम भी
ग़ज़ल
और जनवादी
तेवर के
जेबर पहनने वाली
विधा का
नाम भी
ग़ज़ल
| अंतर्विरोधों
से भरी
हुयी है हिंदीग़ज़ल
की शक़ल। दो
विपरीत
चरित्रों
के घालमेल
की खिचड़ी
का आस्वादन
करने के
बाद ही
सम्भवतः
ज्ञान
प्रकाश
विवेक
ने यह
बात कही-‘‘ इधर
लिखी जा
रही अधिसंख्य
ग़ज़लों
को पढ़कर
ऐसा प्रतीत
होता है
कि हिन्दी
की ग़ज़लों
के पास
अपनी कोई
सार्थक
ज़मीन
है ही
नहीं।’’ [प्रसंगवश, फरवरी-94, पृ. 52]
ग़ज़ल के
प्रणयानुभूति
में सामाजिक
सरोकारों
की विभूति
देखकर
ही संभवतः
कैलाश
गौतम ने
तो यहाँ
तक कह
दिया- ‘‘आज
ग़ज़ल
धीरे-धीरे
गरीब की
बीवी होती
जा रही
है। लोग
उसकी सिधाई
[सीधापन]
का भरपूर
और ग़लत
फायदा
उठा रहे
हैं। हर
रचनाकार
ग़ज़ल
पर हाथ
साफ कर
रहा है
और ग़ज़ल
‘टुकुर-टुकुर’ मुँह
देख रही
है।’’ [प्रसंगवश, फर.-94 पृ. 51]
हिन्दी में
आकर ‘ग़ज़ल’ शब्द
का अर्थ
इतना असमर्थ
और लाचार
हो चुका
है कि
न तो
उसका कोई
शास्त्रीय
सरोकार
शेष बचा
है और
न उसे
किसी भी
तरह का
‘आज
का बदलाव’ पचा
है। किन्तु
हिन्दी
में आयी
ग़ज़ल
के पैरोकार
हैं कि
फिर भी
मगजमारी
कर रहे
हैं ।
प्रेमिका
को आगोश
में लेकर
उसमें
असंतोष, विरोध, विद्रोह
और जोश
भर रहे
हैं। ‘जोर
लगा के
हैईशा’ की
तर्ज पर
ग़ज़ल
के शास्त्रीय
या शब्दकोषीय
मूल अर्थ
को पीछे
धकेल रहे
हैं। उसमें
नया जनवादी
चरित्र
फिट कर
रहे हैं
| यथा ....
‘‘औरत
अगर घर
सम्हालने
और प्रसव
पीड़ा
सहने के
अलावा
सामाजिक
क्षेत्रों
में सक्रिय
होकर संघर्ष
करने लगी
तो क्या
वह औरत
नहीं रहीं? जैसे
मनुष्य
के शरीर
का, चिन्तन
का और
कर्मक्षेत्र
का विकास
होता है, हिन्दी
ग़ज़ल
ने भी
उसी तरह
सार्थक
विकास
पाया है।
अब ग़ज़ल
के तेवर
रोमानी
दुनिया
से ऊपर
उठकर दमन-शोषण
के खिलाफ
सुलगती
हुई मशाल
बन गये
हैं। यह
उसके कथ्य
का उल्लेखनीय
विस्तार
है।’’ [प्रसंगवश, फर.-94-पृ. 46]
ग़ज़ल
के रोमानी
तेवर भले
ही आज
दमन-शोषण
के खिलाफ
जलती हुर्ठ
मशाल बन
गये हों, किन्तु
इन तेवरों
का आकलन
क्या ग़ज़ल
की पृष्ठभूमि, उसके
उद्भव
या शास्त्रीय आधार
पर किये
गये नामकरण
के द्वारा
किया जा
सकता है? यह
सवाल आज
भारी अफसोस
और मलाल
के साथ
उत्तर
की प्रतीक्षा
में खड़ा
है।
हिंदी
ग़ज़ल
में सीत्कार
और
चीत्कार
को
एक
ही
खाने
में
फिट
करने
का
फार्मूला
हिट
!!
माना औरत, औरत
ही होती
है, किन्तु
जब वह
किसी से
ब्याह
कर लेती
है तो
ब्याहता
कहलाती
है। प्रसव-पीड़ा
सहने के
बाद शिुशु
को जन्म
देती है
तो माँ
बन जाती
है। वही
औरत जब
सामाजिक
संघर्ष
में कूदती
है तो
और कुछ
कहलाये
न कहलाये-वीरांगना
कहलाती
है। नारी
के कमक्षेत्र
को स्पष्ट
करने के
लिये नारी
के जो
स्वरूप
बनते हैं, उनकी
सार्थकता
इन्हीं
सार्थक
नामों
या संज्ञा
विशेषणों
में नहीं
है तो
आखिर किसमें
है? नारी
के सीत्कार
और चीत्कार
को एक
ही खाने
में फिट
करने का
फार्मूला
भले ही
हिट है, पर
ये ऐसी
गिटपिट
है जिसमें
तुकें
तो मिलती
हैं लेकिन
नाम की
सार्थकता
को खोकर।
ऐसे न
तो
ग़ज़ल
का
भला
होगा
न
हिन्दी
ग़ज़ल
का
ग़ज़ल
का रोमानी
संस्कारों
को त्यागकर
दमन-शोषण
के खिलाफ
मशाल बनकर
यदि यही
कथ्य का
ही उल्लेखनीय
विस्तार
है तो
क्या इसी
तर्ज पर
लघुकथा
का विस्तार
उपन्यास
तक किया
जा सकता
है! अगर
यह सम्भव
है तो
क्या ऐसे
उपन्यास
को उपन्यास
नहीं ‘लघुकथा’ बताया
जा सकता
है? जाहिर
है, इस
प्रकार
के विचारों
या चिन्तन
से न
तो ग़ज़ल
का भला
होगा न
हिन्दी
ग़ज़ल
का। हिन्दी
में ग़ज़ल
की यदि
कोई नयी
पहचान
बनी है
तो यह
पहचान
एक नये
नाम की
मांग भी
कर रही
है?
ग़ज़ल
की
बहर
‘‘ग़ज़ल
में लयात्मक
ओज भरने
के लिये
विशिष्ट
छन्द अर्थात्
बहर का
प्रयोग
किया जाता
है। ब-हर
उन खास
शब्दों
को कहते
हैं जिन
पर शे’र
को तोला
जाता है
और जाँचा
जाता है
कि शे’र
का वज़्न
ठीक है
या नहीं।
बहर जिन
टुकड़ों
से बनती
है, उनको
अरक़ान
और उसके
हर किस्से
को रुक़्न
कहते हैं।
उर्दू
शायरी
में कुल
9 रुक्न-
‘फऊलुन’, ‘फाइलुन,’ ‘मुफाईलुन’, ‘मुस्तफलुन’, ‘मुतफाइलुन’, ‘फाइलातुन’, मऊफलात, ‘फऊल’, ‘फेलुन’ प्रचलित
हैं। [ विनोद
कुमार
उइके ‘दीप’, तुलसीप्रभा, फर. 09पृ. 17 ]
रुक़्न से
अरक़ान
तक के
सधे हुए
प्रयोग
से ग़ज़ल
की बहर
बनती है।
एक ग़ज़ल
में एक ही
प्रकार
की बहर
का प्रयोग
ग़ज़ल
के हर
मिसरे
में किया
जाता है।
ग़ज़ल
का ग़ज़लपन
उसकी बहर
के बिना
तय नहीं
किया जा
सकता।
रुक़्न
या अरकान
भी ग़ज़ल
की जान
होते हैं।
किन्तु
हिन्दी
में ग़ज़ल
की इस
शक़्ल
से हिन्दी
ग़ज़लकार
नाक-भौं
सिकोड़ता
है, वह
ग़ज़ल
के साथ
अपनी ही
एक ख़ासियत
जोड़ता
है। बहर
के भीतर
का ओज
निचोड़ता
है, उसे
तोड़ता-फोड़ता
है और
एक नया
जुमला
छोड़ता
है-‘‘ फैलुन-फाइलातुन’ ये
सब क्या
है? क्या
हिन्दी
और संस्कृत
के व्याकरण
व छन्द
शास्त्र
इतने गरीब
हैं कि
इसका जवाब
हमारे
पास नहीं
है।’’ ;विज्ञानव्रत, सौगात, अप्रैल-09, पृ.9द्ध
जहाँ तक
हिन्दी
और संस्कृत
के व्याकरण
या छन्द-शास्त्र
का सवाल
है तो
इस पर
शंका-आशंका
करना, आसमान
पर थूकने
के समान
होगा।
बात उरुज/ फैलुन-फाइलुन
से दामन
छुड़ाने
और ग़ज़ल
में हिन्दी-छन्दशास्त्र
अपनाने
की है।
ग़ज़ल के
छंदशास्त्र
[उरूज ] से
नाक-भों
सिकोड़ने
वाले हिन्दी
के छंद-शास्त्र
की कोई
भी विधा
अपना सकते
हैं और
स्वाभिमान
के साथ
बता सकते
हैं कि
हम हिन्दी
में ग़ज़ल
की नकल
नहीं करेंगे? ग़ज़ल
की विषय-वस्तु
या उसकी
बहरों
से तो
भारी विद्रोह, पर
ग़ज़ल
शब्द के
साथ महामोह
में खरपतवार
की तरह
होता हिन्दी
ग़ज़ल
का सृजन
संदिग्ध
तो रहेगा
ही।
ग़ज़ल में
हिन्दी
छंदों
के प्रयोग
को लेकर
उर्दू
की बहर
के जानकार
क्या कहते
हैं आइये
देखें -‘‘ ग़ज़ल
एक बेहद
महीन काव्य-शैली
है। इसका
मिजाज
और सुझाव
काफी लजीज
होता है। दरअसल
जो अब
तक इन
बारीकियों
को ठीक
से नहीं
समझ पाये
हैं, वे
ही ग़ज़ल
को मात्रिक
छन्द मानने
की कुचेष्टा
करने में
लगे हुए
हैं। [डॉ. मधुसूदन
साहा, तुलसी
प्रभा
सित-07 पृ. 20]
हिन्दी ग़ज़ल
में मात्रिक
छन्द से
पैदा किया
गया मकरन्द
उर्दू
वालों
के लिये
क्यों
कसैला
है? क्या
इस बात
पर हिन्दी
वालों
को सोचना
नहीं चाहिए? जापान
से हाइकु
हिन्दी
में आया
लेकिन
बदशक्ल
नहीं हुआ।
उर्दू
वालों
ने दोहे
लिखे किन्तु
दोहे की
सम्पूर्ण शर्तों
के साथ।
दोहे में
रुक्न
और अरकान
का विधान
उन्होंने
दोहे की
शान के
खिलाफ
समझा, जबकि
दोहे के
लिए एक
नयी बहर ईजाद
की जा
सकती है
किन्तु, ऐसे
दोहे से
क्या हिन्दी
कविता
समृद्धि पा
सकती है? अगर
दोहे के
साथ रुक्न-अरकान
का जोड़-घटाव
दोहे के
घाव पैदा
कर सकता
है तो
क्या हिन्दी
छन्दों
के प्रयोग
से उर्दू
के जानकारों
के मन
में टीस
या घाव
पैदा नहीं
होंगे?
बहर और
हिन्दी-छन्द
के घालमेल
को लेकर
सशक्त
हिन्दी
ग़ज़लकार जहीर
कुरैशी
को आत्मग्लानि
का ऐसा
बुखार
चढ़ा कि
उन्हें
यह स्पष्ट
करना ही
पड़ा कि-‘‘दोहा
मात्रिक
छंद में
ग़ज़ल
नहीं हो
सकती।
अतः ग़ज़ल
को मात्रिक
और वर्णिक
छन्द में
बांधने के
लिये यह
एक प्रबल
अवरोध
का प्रश्न
खड़ा करेगा।
मैंने
भी यही
सब सोचकर
दोहा-ग़ज़ल
कहना समाप्त
कर दिया
है। [तुलसी
प्रभा, सित-09, पृ.20]
हिन्दी
में ग़ज़ल
नहीं, ‘ग़ज़ल-गीतशैली’, ‘ग़ज़ल-गीत’, ‘ग़ज़ल
मर्सिया-शैली’, ‘दोहा-शैली’, ‘ग़ज़लमिश्रित-शैली’ की
भरी हुई
थैली खूब
बिक रही
है। इस
हिन्दी
ग़ज़ल
में बहर
को तलाशना
मना है।
हिन्दी
ग़ज़लकार
ग़ज़ल
नाम पर
तो फिदा
है, लेकिन
उसकी ग़ज़लों
से उरूज, बहर, रुक्न, अरकान
का लयात्मक
ओज लापता
है। उर्दू
के जानकारों
के लिये
ये खता
है तो
खता है? इस
खता पर
यह कहकर
पर्दा
डाला नहीं
जा सकता
कि-‘‘ जिस
व्याकरण
को हम
नहीं जानते
और जो
हिन्दी
भाषा के
‘मूड’ के
ठीक विपरीत
पड़ती
है उसे
‘टच’ करना
हमारी
मौलिकता
को लांछित
करेगा
ही।’ डॉ. उर्मिलेश, ग़ज़ल
से ग़ज़ल
तक, पृ.11] -------------------------------------------------------------------------------
सम्पर्क .. 15\109, ईसानगर , निकट थाना सासनी गेट ,
अलीगढ..२०२००१
मोबा. ९६३४५५१६३०
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