हिन्दीग़ज़ल
में कितनी
ग़ज़ल? [ भाग-2 ]
-रमेशराज
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ग़ज़ल
के
हर
शेर
की
स्वतंत्र
सत्ता
ग़ज़ल
के हर
शेर की
सत्ता
स्वतंत्र
होती है
जैसे एक
दोहे के
कथ्य से
दूसरे
दोहे की
विषयवस्तु
को अलग
करके रख
जाता है, ठीक
उसी प्रकार
ग़ज़ल
का हर
शे’र
गीत की
तरह एक
दूसरे
का पूरक
या बँधा
हुआ नहीं
होना चाहिए।
‘अफसाने-सुखन’ नामक
पुस्तक
में जनाब
मुमताजुर्रशीद
लिखते
हैं-‘ ग़ज़ल
वह नज्म
है, जिसका
हर शे’र
बजाते
खुद मुकम्मल
और दूसरों
से बेनियाज
होता है।’’
शे’र
की इस
स्वतंत्र
सत्ता
के अन्तर्गत
चूंकि
बाँधना ग़ज़ल
को ही
होता है, अतः
शे’रों
के स्वतंत्र
कथन का
अर्थ यह
भी नहीं
होना चाहिए
कि ग़ज़ल
का ग़ज़लपन
[प्रेमानुभूति]
ही खण्डित
हो जाए।
परस्पर
घोर विरोधी कथनों
को उजागर करने वाले एक
ग़ज़ल
के विभिन्न शे’र
रस की
परिपक्व
अवस्था
को खण्डित
कर सकते
हैं। अतः
रसाभास
से बचने
के लिए
शे’रों
का स्वतंत्र
अस्तित्व
भी ग़ज़ल
के किसी
विशिष्ट
या स्थायी
भाव का
पूरक अवश्य
होना चाहिए।
ग़ज़ल के
हर शे’र
की स्वतंत्र
सत्ता
का अर्थ
यह कैसे
सम्भव
है, कि
एक शेर
में व्यवस्था
विरोध
तो दूसरे
शे’र
में नायिका
के विरह
की आग
में जलने
का बोध-
हर
कदम पर
है यहाँ
खूने-तमन्ना-कत्ले
आम / काम
था जो
भेडि़ए
का आदमी
करते रहे।
बिस्तरे
गुल पर
मोहब्बत
हो रही
थी बेकरार
/ शम्मा
की लौ
पर मगर
हम शायरी
करते रहे।
शम्मा
की लौ
पर की
गयी उक्त
शायरी
से बनी
ग़ज़ल
के बिम्ब
चूंकि
परस्पर
विरोधी हैं
अतः यह
न तो
शृंगार
तक पहुँचाएँगे
और न
आदमी के
भेडि़येपन
का ‘विरोध’ कर
पाएँगे।
ऐसी ग़ज़ल
की कहन
से या
तो रसाभास
पैदा होगा
या उपहास।
ऐसे में
ग़ज़ल
के ग़ज़लपन
की मिठास
बेमानी
हो जाएगी।
एक ही
विषय पर
कहे गये
दस दोहों
का आस्वादन
जैसे मन
के भीतर
रस की
उत्तरोत्तर
वृद्धि
कर सकता
है, ठीक
उसी प्रकार
ग़ज़ल
के तीन, पांच
या सात
शे’र
स्वतंत्र
होते हुए
भी ग़ज़ल
को एक
ही रस
की ऊँचाइयाँ
प्रदान
करते हैं
तो ग़ज़ल
की उत्तमता
असंदिग्ध्
होगी।
सार यह
है कि
ग़ज़ल
का हर
शे’र
भले ही
दोहे की
तरह अपनी
विषयवस्तु
को लेकर
स्वतंत्र
होता है
लेकिन
इन शे’रों
से रचित
ग़ज़ल
को यही
शे’र
एक ही
जमीन, एक
ही स्थायी
भाव या
रस प्रदान
करते हुए
होने चाहिए।
ग़ज़ल के
संदर्भ
में इन
सब बातों
को जानते
या मानते
हुए या
अनजाने
हिन्दी
के ग़ज़लकारों
की मति
की लय, ग़ज़ल
के आशय
के उस
परिचय
को धो देना
चाहती
है जो
शे'र
की स्वतंत्र
सत्ता
को खंडित
नहीं करता
बल्कि
एक समान
प्रकार
की रसात्मकता
में एक
प्रकार
के विष
को घुलने
या घोलने
से बचाता
है ।
हिंदी
ग़ज़लकार
तो ग़ज़ल
के नाम
पर शे’रों
का एक
ऐसा जंगल
बो देना
चाहता
है जिसमें
काँटे
ही काँटे
हों, चाँटे
ही चाँटे
हों।
हिन्दी ग़ज़ल
के प्रखर
प्रवक्ता
डॉ . उर्मिलेश
परमाते
हैं-‘‘ डॉ . यायावर
ने उर्दू
ग़ज़ल
के पारम्परिक
मिथक को
तोड़ते
हुए कुछ
अलग हटकर
कार्य
किया है।
मसलन, उर्दू
ग़ज़ल
में हर
शे’र
स्वतंत्र
सत्ता
रखता है, लेकिन
डॉ . यायावर
की अधिसंख्य
ग़ज़लों
के शे’र
एक ही
विषयवस्तु
को आगे
बढ़ाते
हैं। गीत
में जैसे
एक ही
केन्द्रीय
भाव को
विविध
बंधों -उपबंधों में
निबद्ध किया
जाता है, उसी
तरह डॉ . यायावर
भी अपनी
ग़ज़लों
में गीत
की इसी
प्रक्रिया
को दुहराते-से
नजर आते
हैं [सीप
में समंदर, पृ.8]।
लीक से
हटकर कार्य
करने की
सनक से
ग़ज़ल
के पारम्परिक
स्वरूप
के मिथक
को तोड़ने
के परिणाम
भले ही
हिन्दी
ग़ज़लकार
को विवादास्पद
बना दे, किन्तु
परिणाम
की चिन्ता
से लापरवाह
आज का
हिन्दी
ग़ज़लकार
यह गुनाह
कर रहा
है। ग़ज़ल
को गीत
बना रहा
है और
उसे ‘हिन्दीग़ज़ल’ बता
रहा है।
ग़ज़ल के
पारम्परिक
मिथकों
की तोड़-फोड़
की होड़
ने ग़ज़ल
को कैसा
रूप प्रदान
किया है, बानगी-प्रस्तुत
है- '' सन्ध्या
डूबी खिली
चांदनी/ लौट
नहीं पाया
है नथुआ, सोच
रही माँ
खड़ी द्वार
पर/ क्यों
न आज
आया है
नथुआ।'' -सीप
में समन्दर, ग़ज़ल
संग्रह
डॉ. रामसनेही
लाल ‘यायावर’ की
हिन्दी
ग़ज़ल
के शे’र-
[सन्ध्या
डूबी खिली
चांदनी/ लौट
नहीं पाया
है नथुआ, सोच
रही माँ
खड़ी द्वार
पर/ क्यों
न आज
आया है
नथुआ]
को
देखकर
यह पता
लगा पाना
कठिन है
कि यह
किसी गीत
का मुखड़ा
है या
किसी ग़ज़ल
का मतला है।
इसमें
सन्ध्या
के डूबने, चाँद
के निकलने
के बेशक
जीवंत
और मार्मिक
बिम्ब
हैं। इन्हीं
जीवंत-मार्मिक
बिम्बों
के बीच
द्वार
पर खड़ी
नथुआ की
माँ चिन्ताग्रस्त
है। चिन्ता
का कारण
नथुआ का
देर रात
तक घर
न आना
है। माँ
के मन
के भीतर
‘क्यों’ की
‘शृंखलाबद्ध
चिन्ता-लड़ी’ बेटे
को सकुशल
पाने के
लिए घटनाक्रम
को आगे
बढ़ने
या बढ़ाने
का आभास
दे रही
है। अतः
स्पष्ट
है कि
यह पंक्तियाँ गीत
का उम्दा
मुखड़ा
तो हो
सकती हैं, ग़ज़ल
का मतला
शे’र
नहीं।
इसी पुस्तक
के पृ. 75 पर
प्रकाशित
एक ग़ज़ल
के प्रारम्भ
के दो
शेरों
की शक़्ल
देखिए-
महामहिम
श्रीमान! आपसे
क्या कहिए, नवयुग
के भगवान! आपसे
क्या कहिए
पाँच
साल के
बाद कुटी
तक आ
पहुँचे, जय-जय
कृपानिधान
आपसे क्या
कहिए।
हिन्दी
ग़ज़ल
के उपरोक्त
दो शे’रों
में से
प्रथम
शे’र
में महामहिम, श्रीमान, नवयुग
का भगवान
कौन है, जिस
पर ग़ज़लकार
व्यंग्य
की बौछार
कर रहा
है? इस
प्रश्न
का उत्तर
प्रथम
शे’र
में नहीं
है, और
कहीं है।
आइए उसे
टटोलते
हैं। यायावरजी
दूसरे
शे’र
में क्या
बोलते
हैं। जिसे
वे ‘श्रीमान’, ‘महामहिम’, ‘नवयुग
का भगवान’ बता
रहे हैं, वह
इसी शेर
में पाँच
साल के
बाद आया
है, जिसकी
‘कृपानिधान’ कहकर
जय-जयकर
की जा
रही है।
भारतीय नेता
के चरित्र
की बखिया
उधेड़ती
ग़ज़ल
के शे'र - [ महामहिम
श्रीमान! आपसे
क्या कहिए, नवयुग
के भगवान! आपसे
क्या कहिए
पाँच साल
के बाद
कुटी तक
आ पहुँचे, जय-जय
कृपानिधन
आपसे क्या
कहिए ] का
कथन माना
व्यंग्य-भरा
है, युगबोध
की सही
पहचान
कराता
है और
सत्योन्मुखी
है किंतु
इस ग़ज़ल
की भी
शक़्ल
बता रही
है कि
यह अपने
ग़ज़लपन
से भयभीत
है। कारण
यह कि
यह ग़ज़ल, ग़ज़ल
के नाम
पर कुकुरमुत्ते
की तरह
उगता हुआ
गीत है।
दोनों
शे’रों
का कथन
एक दूसरे
का चूंकि
पूरक है, अतः
यह ग़ज़ल
नहीं, ग़ज़ल
का मुलम्मा
है, जिसे
गीत पर
चढ़ा दिया
गया है।
इस लेख
के बढ़ते
हुए क्रम
के आधार
पर यदि
ग़ज़ल
के ग़ज़लपन
को हिन्दी
ग़ज़ल
के साथ
जोड़कर
आकलन किया
जाए तो
स्पष्ट
है कि
हिन्दी
में ग़ज़ल
अपने पारम्परिक
चरित्र
[ प्रेमालाप
] से तो
काटी ही
गयी है, उसकी
बहरों
की भी
शल्यक्रिया
कर दी
गयी है।
यही नहीं
उसके शे’रों
की मुकम्मलबयानी
को धूल
चटा दी
गयी है।
ग़ज़ल
के
रदीफ
और
काफिये
‘ग़ज़ल
के चरित्र, ‘बहर
और शे’र’ का
कचूमर
निकालने
के बाद
ग़ज़ल
में उसके
प्राण-तत्व
रदीफ और
काफिया
और शेष
रह जाते
है। हिन्दी
ग़ज़लकार
के पैने
औजार इन्हें
भी काट-छाँट
कर कैसा
रूप दे
रहे हैं, इस
कौतुक
का ‘लुक’ भी
ध्यान
से देखने
योग्य
है-
किसी पद्य
के चरणों
के अन्त
में जब
एक जैसे
स्वर सहित
अक्षर
आते हैं, तब
इन अक्षरों
की आवृत्ति
को-वर्ण
मैत्री
को-‘तुक’ कहा
जाता है।
तुक का
दूसरा
नाम अन्त्यानुप्रास
है। उर्दू-फारसी
में उसे
काफिया
कहा गया
है।
[फने
शाइरी
] ले. अल्लामा
इख्लाक
दहलवी
के अनुसार-वो
मुअय्यन
हुरूफ
[निश्चित
अक्षर]
जो मुख्तलिफ
भिन्न-भिन्न
अल्फाज
[शब्दों]
में मतला
और बैत
[एक शेर]
के हर
मिसरा
[पंक्ति]
और हर
शे’र
के दूसरे
मिसरा
के आखिर
में मुकर्रर
[बार-बार]
आएं और
मुस्तकिल
[स्थायीद्ध
न हों, काफिया
कहलाते
हैं। -महावीर
प्रसाद
मूकेश, ग़ज़ल
छन्द चेतना, पृ.91
यदि ग़ज़ल
में काफियों
की व्यवस्था
को देखें
तो समान
स्वर के
बदलाव
को बाधित
न करने
वाली तुक
का नाम
काफिया
है। जबकि
रदीफ वह
है जो
शब्दों
के रूप
में काफिये
के बाद
ज्यों
की त्यों
दुहराया
जाता है।
ग़ज़ल में
काफिये
की बन्दिश
को लेकर
काफी सजग
रहना पड़ता
है। मतला
शे’र
के दोनों
मिसरों
में काफिया
मिलाया
अवश्य
जाता है, लेकिन
आगे के
शे’र
में काफियों
का रूप
कैसा होगा, इस
विधान
का निर्धारण
भी मतला
ही तय
करता है।
मसलन, मतला
में यदि
‘नदी’ की
तुक ‘सदी’ से
मिलायी
गयी है
तो इस
ग़ज़ल
के आगे
के उत्तम
काफिये
‘द्रौपदी’, 'लदी' ‘बदी’ आदि
ही सम्भव
हैं। यदि
मतला में
‘नदी’ की
तुक ‘आदमी’ से
मिलायी
गयी है
तो आगे
के शे’रों
में ‘रोशनी’, जि़न्दगी, ‘भली’, ‘सखी’ आदि
तुकें
आसानी
से प्रयुक्त
हो सकती
हैं।
काफिये के
रूप में
समान स्वर
के बदलाव
का आधार
यदि ‘आ’ है
तो इसकी
तुक ‘ई’,‘ई’, ‘उ’, ‘उफ’, ‘ए’, ‘ऐ’ स्वर
के साथ
बदलाव
नहीं उलझाव
को प्रकट
करेगी।
इसी प्रकार
‘आकाश’ की
तुक ‘प्यास’, ‘मन’ की
तुक ‘प्रसन्न’, ‘हँसता’ की
तुक ‘खस्ता’ ग़ज़ल
में ओज
नहीं, अंधकार
भरेगी।
तुकों के
सधे हुए
प्रयोग
से ही
ग़ज़ल
का ग़ज़लपन
सुरक्षित
रखा जा
सकता है।
ग़ज़ल
के प्रारम्भ
के दो
तीन शेरों
में ‘हार’ की
तुक ‘प्यार’, ‘वार’ लाना
और उसके
आगे के
शेरों
में ‘याद’, ‘संवाद’ ‘दाद’ आदि
तुकों
को क्रमबद्ध
तरीके
से सजाना
हर प्रकार
नियम के
विरुद्ध है।
ग़ज़ल
के काफियों
का केवल
वही रूप
शुद्ध है
जिसमें
समान स्वर
के आधार
पर बदलाव
परिलक्षित
होता हो।
हिन्दी में
प्रयुक्त
होने वाले
काफियों
का रूप
तो देखिए
हिन्दी
ग़ज़लकार
‘रुठे’ की
तुक ‘फूटे’ और
‘मूठें’ निभा
रहा है
[शेरजंग
गर्ग, प्रसंगवश, फर. 94, पृ.116] और
इसे श्रेष्ठ
हिन्दी
ग़ज़ल
बता रहा
है।
हिंदी ग़ज़ल
में तुकों
यह खेल
भले ही
बेमेल
हो लेकिन
इसमें
नकेल डालने
को कोई
तैयार
नहीं।
मतला में
‘सुलाया’ की
तुक ‘जलाया’ लाने
के बाद
‘लगाया’, ‘मुस्काया’ [डॉ. यायावर, सीप
में संमदर, पृ.55] लाने
का प्रावधान
हिन्दी
ग़ज़लकार
को कथित
रूप से
महान बनाता
है तो
बनाता
है। यह
तो हिन्दी
ग़ज़लकार
का काफियों
से ऐसा
नाता है
जिसमें
तुक ‘रात’ के
साथ ‘हाथ’ मिल
रहे हैं।
अनूठे
सृजन के
कमल खिल
रहे हैं।
हिन्दी ग़ज़ल
के सम्राट
विष्णुविराट
की एक
ग़ज़ल
में काफिया
और रदीफ
किस तकलीफ
से गुजरते
हुए प्रयुक्त
हुए हैं, यह
तो विराट
जानें, लेकिन
‘प्रसंगवश
फर. 94 पृ. 73’ पर
प्रकाशित
उनकी ग़ज़ल
के मतला
में काफिया
‘सजाने’ और
‘जलाने’ तथा
रदीफ दोनों मिसरों
में ‘वाले’ है, तो
अगले शे'र में
तुक के
रूप में
शब्द ‘मकड़जाले’ ने
रदीफ और
काफिये
की व्यवस्था
को सुबकने
और सिसकने
पर मजबूर
कर दिया
है।
हिन्दी ग़ज़लकार
नित्यानंद
तुषार
की प्रसंगवश पत्रिका
के इसी
अंक में
पृ.89 पर
संयुक्त
रदीफ-काफिये
में लिखी
हुई ग़ज़ल
प्रकाशित
है। तुकों
के विधान
के रूप
में लाये
गये शब्दों
‘तीरगी’, ‘रोशनी’ ‘कभी’, ‘नमी’, ‘त्रासदी’, ‘घड़ी’ और
‘तभी’ को
यदि मिलाकर
देखा जाए
तो ऐसा
भूत नजर
आता है, जिसके
दर्शन
कर मन
थर्राता
है। भूत
धमकाता
है, इसे
हिन्दीग़ज़ल
मानो।
इसमें
लापता
हुए रदीफ-काफियों
को ढूंढो-छानो।
नवोदित कैसे समझें क्या है हिंदी ग़ज़ल ?
हिन्दी
में ग़ज़ल
के रदीफ-काफियों
के ये
उन दिग्गजों
के उदाहरण
हैं, जो
हिन्दीग़ज़ल
लिखकर
ही नहीं, अपने-अपने
तर्क देकर
इसे ऊँचाईयाँ
प्रदान
करना चाहते
हैं। उन
बेचारे
नवोदित
ग़ज़लकारों
के बारे
में क्या
कहना जो
इनकी छत्रछाया
में ग़ज़ल
के बारे
में सोच-समझ
रहे हैं
और ग़ज़ल
लिख रहे
हैं।
अस्तु! सार
यही है
कि हिन्दी
ग़ज़ल
का भविष्य
ग़ज़लकारों
की दृष्टि
में भले
ही उज्जवल
हो, लेकिन
हिन्दीग़ज़ल
की इस
चकाचौंध ने
ग़ज़ल
के पारम्परिक
चरित्र
के अर्थ, उसकी
बहर , शे’र
की स्वतंत्र
सत्ता, रदीफ-काफियों
को अँधा बना
दिया है।
और इसी
अंधेपन
के सहारे
ग़ज़ल
हिन्दी
में अपने
ग़ज़लपन
को खोज
रही है।
हिन्दीग़ज़लकार
है कि
अपने इस
कारनामे
को लेकर
अट्टहास
की मुद्रा
में है।
हिन्दी ग़ज़ल
में ग़ज़ल के नाम पर एक महारास हो रहा है | इस
महारास
का अर्थ
यह है
कि यदि
हिंदी
में ग़ज़ल
लिखनी
है तो- ‘‘1.मतला
और मक्ता
से मुक्ति
पाओ 2. शे’र
की स्वतंत्र
सत्ता
का पत्ता
काट दो
3. रूमानी
कथ्य से
किनारा
कर लो
4. सीमित
बहर अपनाओ
और थोक
में हिन्दी
छन्द लाओ
5. गेयता
लयात्मकता
से जितनी
जल्दी
हो सके
अपना पिण्ड
छुड़ाओ।
[महेश अनघ, प्रसंगवश, फर. 39 ] अर्थ
यह कि
ग़ज़ल
का कचूमर
निकालकर
हिन्दी
ग़ज़ल
बनाओ।
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सम्पर्क .. 15\109, ईसानगर , निकट थाना सासनी गेट ,
अलीगढ..२०२००१
मोबा. ९६३४५५१६३०
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