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16 मार्च 2018

हां देखा हैं,किसान को मरते हुए....शुभम सिसौदिया


मंद मंद आंसू,आंखो में प्यास,सरकारी चिट्टी
सूखा बदन,माथे से लगाए अपने खेत की मिट्टी

दिल में उम्मीद,सीने में दर्द,भूखा और प्यासा
कल दिखा इक किसान मुझे ओढ़े निराशा

बंगला था साहब का,साहब भी आलीशान था
बैठा था बाहर भूखा इसी देश का किसान था

वो आया था आशा लिए,संग लिए बेटी छोटी
एक पन्ना लिए हाथ में,बस मांग थी दो रोटी

जंतर मंतर पे धरना करते हुए
मैने देखा है किसान को मरते हुए

-कवि शुभम सिसौदिया 
बाराबंकी
 ss8341916@gmail.com

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और सटीक रचना

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-03-2017) को "नवसम्वतसर, मन में चाह जगाता है" (चर्चा अंक-2913) नव सम्वतसर की हार्दिक शुभकामनाएँ पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १९ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  4. काश!इन छटपटाते ,कराहते किसानों को सरकार केवल इतनी सुविधाएँ दे पाती कि सभी को रोटी खिलाने वाले के लिए अपनी रोजी-रोटी महँगी न पड़े ।.....बेहतरीन !!!!!
    सादर ।

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  5. बंगला था साहब का,साहब भी आलीशान था
    बैठा था बाहर भूखा इसी देश का किसान था। वाह बहुत सुन्दर रचना।

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