वक्त कुछ इस कदर हम
बिताते रहे ।
दर्द दिल
में छिपा मुसकराते रहे ।।
जिसपे भरोसा किया उसने हमको छला।
परोपकार करके हमें क्या मिला।।
पंख हम बन गये जिनके परवाज के।
आज बदले हैं रंग उनके अंदाज के।।
मुंह फेरते हैं वही
गुन हमारे जो गाते रहे।
दर्द दिल
में छिपा मुसकराते रहे ।।
कामनाएं तड़पती सिसकती रहीं।
प्रार्थनाएं ना जाने कहां खो गयीं।।
हम वफाओं का दामन थामे रहे ।
जिंदगी हर कदम हमको छलती रही।।
जुल्म पर जुल्म हम
बारहा उठाते रहे।
दर्द दिल
में छिपा मुसकराते रहे ।।
मेहरबानियां उनकी कुछ ऐसी रहीं।
आंसुओं का सदा हमसे नाता रहा।।
नेकनीयत पर हम तो कायम रहे।
हर कदम जुल्म हम पे वो ढाते रहे।
दिल दुखाना तो उनका
शगल बन गया।
दर्द दिल में
छिपा मुसकराते रहे ।।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (03-05-2017) को "मजदूरों के सन्त" (चर्चा अंक-2959) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पंख हम बन गये जिनके परवाज के।
जवाब देंहटाएंआज बदले हैं रंग उनके अंदाज के...बहुत ही मार्मिक शब्दों को हमने भी जिया...वाह
दर्द दिल में छुपा मुस्कुराते रहे...
जवाब देंहटाएंवाह!
वाह.. अति सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंवाह,बहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंअति सुंदर
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