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12 मई 2018

शहर

शहर

शहर ..... ही शहर है,
फैला हुआ,
जहाँ तलक जाती नजर है 
शहर ..... ही शहर है|

फैली हुई कंक्रीट 
और का बड़ा अम्बार,
वक्त की कमी से बिखरते रिश्ते,
बढ़ती हुयी दूरी का कहर है,
शहर ..... ही शहर है|

पैरो से कुचला हुआ,
है अपनापन,
बस खुद से खुद के साथ,
विराना सफर है,
शहर ...... ही शहर है|

मेरे दिल को ना भाया यह शहर,
इसमें मेरे गाँव जैसी बात नहीं,
यही मेरे शहर से गाँव,
 तक का सफर है,
शहर ..... ही शहर है|


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3 टिप्‍पणियां:

  1. पत्थर के ये शहर किसको सुहाते हैं ...
    मजबूरी में बनते हैं शायद ... गहरी रचना ...

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  2. मेरे दिल को ना भाया यह शहर,
    इसमें मेरे गाँव जैसी बात नहीं,
    यही मेरे शहर से गाँव,
    तक का सफर है,
    शहर ..... ही शहर है|.... गभीर रचना

    जवाब देंहटाएं
  3. पैरो से कुचला हुआ,
    है अपनापन,
    बस खुद से खुद के साथ,
    विराना सफर है, शानदार। बहुत खुब।

    जवाब देंहटाएं

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