शहर |
फैला हुआ,
जहाँ तलक जाती नजर है
फैली हुई कंक्रीट
और का बड़ा अम्बार,
वक्त की कमी से बिखरते रिश्ते,
बढ़ती हुयी दूरी का कहर है,
पैरो से कुचला हुआ,
है अपनापन,
बस खुद से खुद के साथ,
विराना सफर है,
मेरे दिल को ना भाया यह शहर,
इसमें मेरे गाँव जैसी बात नहीं,
यही मेरे शहर से गाँव,
तक का सफर है,
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पत्थर के ये शहर किसको सुहाते हैं ...
जवाब देंहटाएंमजबूरी में बनते हैं शायद ... गहरी रचना ...
मेरे दिल को ना भाया यह शहर,
जवाब देंहटाएंइसमें मेरे गाँव जैसी बात नहीं,
यही मेरे शहर से गाँव,
तक का सफर है,
शहर ..... ही शहर है|.... गभीर रचना
पैरो से कुचला हुआ,
जवाब देंहटाएंहै अपनापन,
बस खुद से खुद के साथ,
विराना सफर है, शानदार। बहुत खुब।