हर शख्स तो बिकता नहीं है
·
राजेश त्रिपाठी
खुद को जो मान बैठे हैं खुदा ये जान लें।
ये सिर इबादत के सिवा झुकता नहीं है।।
वो और होंगे, कौड़ियों के मोल जो बिक गये।
पर जहां में हर शख्स तो बिकता नहीं है।।
दर्दे जिंदगी का बयां कोई महरूम करेगा।
यह खाये-अघाये चेहरों पे दिखता नहीं है।।
पैसे से न तुलता हो जो इस जहान में ।
लगता है अब ऐसा कोई रिश्ता नहीं है।।
जिनके मकां चांदी के , बिस्तर हैं सोने
के।
उन्हें इक गरीब का दुख दिखता नहीं है।।
इक कदम चल कर जो मुश्किलों से हार गये।
उन्हें मंजिले मकसूद का पता मिलता नहीं
है।।
वो और होंगे जो निगाहों में तेरी खो गये।
जिंदगी के जद्दोजेहद में, प्यार अब टिकता
नहीं है।।
मत भागिए दौलत, शोहरत की चाह में।
तकदीर से ज्यादा यहां मिलता नहीं है।।
सुहाने ख्वाब दिखा ऊंची कुरसियों में बैठ
गये।
लगता है उनका मजलूम के दर्द से रिश्ता
नहीं है।।
यह अंधेरा दिन ब दिन घना होता जा रहा है
मगर।
उम्मीद का सूरज हमें अब तलक दिखता नहीं
है।।
आइए अब तो हम ही कोई जतन करें।
मंजिलों तक जो ले जाये राहबर दिखता नहीं
है।।
आपाधापी मशक्कत में ना यों बेजार हों।
यहां किसी को मुकम्मल जहां मिलता नहीं है।।
चाहे जितने पैंतरे या दांव-पेंच खेले मगर।
किस्मत पे किसी का दांव तो चलता नहीं है।।
चाहे कुछ भी हो हौसला अपना बुलंद रखिएगा।
हौसला ही पस्त हो तो काम फिर बनता नहीं
है।।