रणभूमि :एक रण जीवन का
भ्रष्टाचार के दावानल में भस्मासात् जनता सारी
हे विश्वेश्वर !हमें बचाओ क्यों भ्रष्ट भए हैं नर नारी
अवलोकित कलिकाल दशा को डमरू वाला मुस्काया
कर्मविरत! मत मुझे पुकारो सजी तुम्हारी रणभूमि
माया रंग से रंजित होकर जीव ब्रह्म विसराता है
पाकर कुछ भौतिक सपनों को खुद को धन्य समझता है
जीव पतंगा जग दीपक में निज अस्तित्व मिटाता है
माया तो बस खेल खिलाए जीव त्यागता रणभूमि
पंकज पंख में बिलख रहे पर आंचल मोह का न त्यागा
पृथक् डाल से नलिनी को कर गज काल पाएगा लीला
हंस अकेला अनत गगन में उड़ा प्रीत से मिलने को
देह मिलेगी पंच तत्व में छूटेगी यह रणभूमि
पाना है यदि खुद को तो अध्व मध्य से साध्य को जा
त्याग भोग कर कष्ट देह का सुगत वचन से प्रगत बना
अमल -धवल निर्मल को पाकर प्रकाशित होगी ज्योति
मिलेगा पद निर्वाण का तुझको साक्ष्य रहेगी रणभूमि
कामिनी कांचन कालदूत जब कुटिल कुपथ दिखलाएगी
शक्ति विवेक की दिव्य अस्त्र बन कर्माकर्म बताएगी
सज्जित कर निज को शस्त्रों से रक्षित होने को जग में
मृगतृष्णा का कर आलिंगन क्यों देखे तू रणभूमि
ज्ञानज्योति की दीप्त शिखा से जो भासित हो जाता है
निज स्वरूप का दर्शन कर वह ब्रह्मरूप कहलाती है
अवबोधन कर जीव ब्रह्म का त्वम् असि दोहराया है
सत्य ज्ञान और नित्य ब्रह्म बस रहती उसकी रणभूमि
धरा बने रणक्षेत्र जगत् का मोह बने रणशूर यहाँ
प्रणव को तू गाण्डीव बना कर आत्म रूप यह शस्त्र चला
ब्रह्म है तेरा परम लक्ष्य अब ध्यान लगा संधान चला
लक्ष्यभेद तू विजय बनेगा जयघोष करेगी रणभूमि
ब्रह्म सत्य है जगत् भ्रमित है जीव तो है बस अज्ञानी
माया का जो सत्य समझ ले नित्य शुद्ध सच्चा ज्ञानी
परम सत्य का तिनका है तू न कह जग अपना प्राणी
माया भेद का कर अवबोधन ब्रह्म बनेगी रणभूमि
कस्तूरी मृग बन मुझे खोजता वन वन क्यों भागा भटका
मैल हटा निज अंतर्मन की शांतचित्त से ध्यान लगा
वहीं बसा उर अंतर मन में मैं को तू बस दूर भगा
सुंदर स्थिर स्थित मन से हंकार मिटाए रणभूमि
जीवन के दो पहिए सुख दुख नित करते इसको गतिमान्
दुख का भी कर मन से स्वागत बढ जाएगा तेरा मान
साम्यभाव रख कर सुख स्वागत फैलेगी गरिमा पूरी
भावों के सम संगम तट पर चरण पखारे रणभूमि
साहस का तू आँचल थामे बजा दे जीवन की भेरी
शत योजन सागर सा जीवन पार करेगा तू प्रणी
दुष्कर है पर अगम नही है आह्वान कर मन को जगा
भीमरूप धर बजरंगी सा जामवंत है रणभूमि
रंगों से संसार सुसज्जित ऋतुराज ने की है तैयारी
राधा माधव मोहन गिरिधर खेले विमल धवल होली
प्रेम के हर रंग मन में भरकर वर्णिका बनी राधारानी
प्रणय वंदना के इस पर्व का स्वागत करती रणभूमि
लंपट लोलुप भोगी जन की देव करे क्यों रखवाली
मधुशाला आकण्ठ्य लगाकर वर्णहीन न कर होली
द्वारिकाधीश के नंदन वन में मंजुलता सी है होली
रंग दे धरती अपने रंग में तिलक लगाए रणभूमि
तारकमय वेणी बंधन जब निशा का जगमग करता है
वसुधा को आगोश में भरकर श्यामल गात पसरता है
चंचल चितवन मंथर गति से रजनी चदरिया ढके पूरी
छुडाए सुधबुध तन मन धन की स्वप्न नगरिया रणभूमि
संध्या सुंदरी मंद मुकुंद सी मृदुल मुदित मन करती है
मंद समीर मदमस्त मधुरता जीवन राग सुनाती है
दिवसेश्वर रथ मणिमय मण्डित आरुणि की रक्तिम लाली
प्रात प्रभात की सुखमय बेला देखो बन गई रणभूमि
मन उपवन में भाव सुमन के लेकर जब मैं चलता हूँ
अलग अलग पथ भँवर बनाकर नौका डगमग करते हैं
माझी कुशल तो सुमन सुमन के विरही प्रीत मिलाते हैं
माझी यदि मझधार में छोडे आस बँधाती रणभूमि
अस्त व्यस्त इस आपाधापी में बिसरी थी निंदिया प्यारी
तुम आई ज़िंदा हूँ मैं भी अहसास हुआ मन को भारी
अठखेली हठ तेरे खेल खिलौने सब मेरे संगी साथी
प्रेम के रस में सराबोर हो, फिर बचपन बन गई रणभूमि!!
नर नारी अभेद अवस्थित अविरल है अचला सारी
बाल बालिका यौवन बचपन सबमें पूजित है नारी
कन्या जन्म जो दुखभूधर है बालक जन्म क्यों दीवाली
दुहिता जन्म की दीवाली की राह देखती रणभूमि
हिम पर्वत उच्च शिखर पर ध्यानावस्थित केदारी
हाथ जोड करबद्ध निवेदन करता हूँ गंगाधारी
पथभ्रम मतिभ्रम दिग्भ्रम होकर न कोई भटके संसारी
निज स्वरूप का कर अवबोधन पार करें सब रणभूमि
शब्दब्रह्म की विजयपताका किंकर का रण पूर्ण करे
रणवीर बनाकर विजित करे अरु जन जन को रणशूर करे
साहस शौर्य सन्मार्ग दिखाकर रणविजय बनाकर पार करे
अकाट्य कवच बन कठिन समर में सदा रहेगी रणभूमि |
"डॉ. विमल ढौंडियाल "
भ्रष्टाचार के दावानल में भस्मासात् जनता सारी
हे विश्वेश्वर !हमें बचाओ क्यों भ्रष्ट भए हैं नर नारी
अवलोकित कलिकाल दशा को डमरू वाला मुस्काया
कर्मविरत! मत मुझे पुकारो सजी तुम्हारी रणभूमि
माया रंग से रंजित होकर जीव ब्रह्म विसराता है
पाकर कुछ भौतिक सपनों को खुद को धन्य समझता है
जीव पतंगा जग दीपक में निज अस्तित्व मिटाता है
माया तो बस खेल खिलाए जीव त्यागता रणभूमि
पंकज पंख में बिलख रहे पर आंचल मोह का न त्यागा
पृथक् डाल से नलिनी को कर गज काल पाएगा लीला
हंस अकेला अनत गगन में उड़ा प्रीत से मिलने को
देह मिलेगी पंच तत्व में छूटेगी यह रणभूमि
पाना है यदि खुद को तो अध्व मध्य से साध्य को जा
त्याग भोग कर कष्ट देह का सुगत वचन से प्रगत बना
अमल -धवल निर्मल को पाकर प्रकाशित होगी ज्योति
मिलेगा पद निर्वाण का तुझको साक्ष्य रहेगी रणभूमि
कामिनी कांचन कालदूत जब कुटिल कुपथ दिखलाएगी
शक्ति विवेक की दिव्य अस्त्र बन कर्माकर्म बताएगी
सज्जित कर निज को शस्त्रों से रक्षित होने को जग में
मृगतृष्णा का कर आलिंगन क्यों देखे तू रणभूमि
ज्ञानज्योति की दीप्त शिखा से जो भासित हो जाता है
निज स्वरूप का दर्शन कर वह ब्रह्मरूप कहलाती है
अवबोधन कर जीव ब्रह्म का त्वम् असि दोहराया है
सत्य ज्ञान और नित्य ब्रह्म बस रहती उसकी रणभूमि
धरा बने रणक्षेत्र जगत् का मोह बने रणशूर यहाँ
प्रणव को तू गाण्डीव बना कर आत्म रूप यह शस्त्र चला
ब्रह्म है तेरा परम लक्ष्य अब ध्यान लगा संधान चला
लक्ष्यभेद तू विजय बनेगा जयघोष करेगी रणभूमि
ब्रह्म सत्य है जगत् भ्रमित है जीव तो है बस अज्ञानी
माया का जो सत्य समझ ले नित्य शुद्ध सच्चा ज्ञानी
परम सत्य का तिनका है तू न कह जग अपना प्राणी
माया भेद का कर अवबोधन ब्रह्म बनेगी रणभूमि
कस्तूरी मृग बन मुझे खोजता वन वन क्यों भागा भटका
मैल हटा निज अंतर्मन की शांतचित्त से ध्यान लगा
वहीं बसा उर अंतर मन में मैं को तू बस दूर भगा
सुंदर स्थिर स्थित मन से हंकार मिटाए रणभूमि
जीवन के दो पहिए सुख दुख नित करते इसको गतिमान्
दुख का भी कर मन से स्वागत बढ जाएगा तेरा मान
साम्यभाव रख कर सुख स्वागत फैलेगी गरिमा पूरी
भावों के सम संगम तट पर चरण पखारे रणभूमि
साहस का तू आँचल थामे बजा दे जीवन की भेरी
शत योजन सागर सा जीवन पार करेगा तू प्रणी
दुष्कर है पर अगम नही है आह्वान कर मन को जगा
भीमरूप धर बजरंगी सा जामवंत है रणभूमि
रंगों से संसार सुसज्जित ऋतुराज ने की है तैयारी
राधा माधव मोहन गिरिधर खेले विमल धवल होली
प्रेम के हर रंग मन में भरकर वर्णिका बनी राधारानी
प्रणय वंदना के इस पर्व का स्वागत करती रणभूमि
लंपट लोलुप भोगी जन की देव करे क्यों रखवाली
मधुशाला आकण्ठ्य लगाकर वर्णहीन न कर होली
द्वारिकाधीश के नंदन वन में मंजुलता सी है होली
रंग दे धरती अपने रंग में तिलक लगाए रणभूमि
तारकमय वेणी बंधन जब निशा का जगमग करता है
वसुधा को आगोश में भरकर श्यामल गात पसरता है
चंचल चितवन मंथर गति से रजनी चदरिया ढके पूरी
छुडाए सुधबुध तन मन धन की स्वप्न नगरिया रणभूमि
संध्या सुंदरी मंद मुकुंद सी मृदुल मुदित मन करती है
मंद समीर मदमस्त मधुरता जीवन राग सुनाती है
दिवसेश्वर रथ मणिमय मण्डित आरुणि की रक्तिम लाली
प्रात प्रभात की सुखमय बेला देखो बन गई रणभूमि
मन उपवन में भाव सुमन के लेकर जब मैं चलता हूँ
अलग अलग पथ भँवर बनाकर नौका डगमग करते हैं
माझी कुशल तो सुमन सुमन के विरही प्रीत मिलाते हैं
माझी यदि मझधार में छोडे आस बँधाती रणभूमि
अस्त व्यस्त इस आपाधापी में बिसरी थी निंदिया प्यारी
तुम आई ज़िंदा हूँ मैं भी अहसास हुआ मन को भारी
अठखेली हठ तेरे खेल खिलौने सब मेरे संगी साथी
प्रेम के रस में सराबोर हो, फिर बचपन बन गई रणभूमि!!
नर नारी अभेद अवस्थित अविरल है अचला सारी
बाल बालिका यौवन बचपन सबमें पूजित है नारी
कन्या जन्म जो दुखभूधर है बालक जन्म क्यों दीवाली
दुहिता जन्म की दीवाली की राह देखती रणभूमि
हिम पर्वत उच्च शिखर पर ध्यानावस्थित केदारी
हाथ जोड करबद्ध निवेदन करता हूँ गंगाधारी
पथभ्रम मतिभ्रम दिग्भ्रम होकर न कोई भटके संसारी
निज स्वरूप का कर अवबोधन पार करें सब रणभूमि
शब्दब्रह्म की विजयपताका किंकर का रण पूर्ण करे
रणवीर बनाकर विजित करे अरु जन जन को रणशूर करे
साहस शौर्य सन्मार्ग दिखाकर रणविजय बनाकर पार करे
अकाट्य कवच बन कठिन समर में सदा रहेगी रणभूमि |
"डॉ. विमल ढौंडियाल "