ब्लौग सेतु....

27 जनवरी 2018

तुम तितली बन जाओ.....पंकज भूषण पाठक"प्रियम"

चली वासन्ती मलयन
भ्रमरों का ये अनुगूंजन है
नवकलियों का यौवन
देता निश्छल आमन्त्रण है

कामदेव का रति से
चला प्रणय अनुराग है
बावली बन फिर रही
तितली बैठी पराग है।

वासन्ती रंग रँगी वसुधा
फिजां में छाई बहार है।
फूलों का ओढ़ चादर
प्रेमरस भरा श्रृंगार है।

रस से भीगी है रसा जो
बनी हर कली शबाब है
तुम तितली बन जाओ
 बने हम तेरा गुलाब हैं।

फूलों से तितली का जीवन
तितली फूलों का श्रृंगार है
तूम पी लो सारा रस मेरा
हम मुरझाने को तैयार हैं।
©पंकज भूषण पाठक"प्रियम"

22 जनवरी 2018

मधुमास के प्रथम दिवस में......पंकज भूषण पाठक "प्रियम"


मधुमास के प्रथम दिवस में
है प्रियम का ये अभिनन्दन प्रिये
पूर्णचन्द्र की क्षीण कला सी
अम्बर को छूती चपला सी
लहराई यूँ कनक लता सी
धरा अम्बर का है ये मिलन प्रिये।
अंतर की मधुमयी विकलता
अधरों में छलकी थिरकन
सांसों के मनमोहक सुर में
पलकों का निश्चल आमन्त्रण प्रिये।
याद कर रही अलस सुबह में
रतजगी पलको का स्पंदन
द्वार देहली खड़ी निरखती
भ्रमरों का मादक अनुगूँजन प्रिये।
अरे!वही तो फिर फिर आती
विम्बाधर में मादक थिरकन
अधखुले अधरों पर मानो
जलगुलाब की आयी छलकन प्रिये।
मृदु लालित्य बासन्ती मलयन
की हल्की हल्की सी सिहरन
स्वप्निल मादक नयनों से
मन्दिर माधवी का अभिनन्दन प्रिये।
नवकलिओं के स्पर्श को
सुनो मधुकर का अनुगूँजन
धूप में नहायी पहली किरण
कर रही कैसी प्रणय निवेदन प्रिये।
नींद से भारी अलसायी
यौवन की खुमारी छायी
बोझिल पलके बार बार
किस कदर भेदती उर निर्मम प्रिये।
बौराये आम्र तरुओं से
टपकते रसमंजरी से
भीगी रसा मदहोश
चला मरुत करने आलिंगन प्रिये।
मतवाली कोयल काली
पुष्पबोझ में झुकी डाली
बाल मन तरंगों वाली
मन माधव का अभिनन्दन प्रिये।
इस मधुरिम बेला में
न रूठो मेरी प्रियतमे
आओ करीब बाहों में
भर करूँ जी भर आलिंगन प्रिये।
-पंकज भूषण पाठक "प्रियम"

20 जनवरी 2018

एक औरत का वेश्या बनना / मंजरी श्रीवास्तव


जब अजनबी थे हम
तुमने मुझे जानना चाहा
मैंने भी हंसकर
अपने बारे में तुम्हें बताया
हम दोस्त बने
जब तुमने दोस्ती का हाथ बढ़ाया
फिर तुमने मुझे प्रेमिका कहा
जब मैंने प्रेम में अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया
तो सबसे पहले
तुमने ही मुझे
बनाया ‘वेश्या’!





19 जनवरी 2018

अन्याय के विरुद्ध / पूनम तुषामड़

शहर में कोई हिन्दू मरा
मैं इसके खिलाफ हूं
कोई मुस्लिम
दंगों का शिकार हुआ
मैं उसके खिलाफ हूं
किसी सिक्ख के धर्म का अपमान हुआ
मैं उसके भी खिलाफ हूं
किसी ईसाई को अपने ही देश में
विदेशी कह कर मारा जाए
मैं इसके भी खिलाफ हूं

मैं लडूंगी
हर धर्म हर सम्प्रदाय
में होने वाली हर ज्यादती के खि़लाफ
परन्तु
क्यों नहीं आता कोई हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई
मेरे साथ
उस अन्याय के विरुद्ध
जो कभी खैरलांजी
झज्जर दुलीना और गोहाना
का कहर बन
बरस जाता है
मेरे समाज पर
क्या कोई देगा साथ
मेरे हकों की लड़ाई में
उनके लिए जो
बार-बार अनेकों बार
बहलाए गए फुसलाए गये
और धकेल दिए गये हाशिए पर
धर्म और जाति के दोज़ख़ में
कभी दलित सिक्ख और दलित ईसाई बनाकर...?

18 जनवरी 2018

तलाक / मुंशी रहमान खान

सुजान न लेवहिं नाम यह तलाक न उमदह नाम।
घ्रणित काम यह अति बुरा नहिं असलौं का काम।
नहिं असलौं का काम नारि जो अपनी छोड़ै।
करैं श्‍वान का काम हाथ दुसरी से जोडै़।।
कहैं रहमान बसें खग मिलकर जो मूर्ख अज्ञान।
कहु लज्‍जा है की न‍हीं दंपति लडै़ सुजान।।



17 जनवरी 2018

-------तीन कविताएँ...मनु वैरागी


माँ, मैं शून्य था।
तुम्हारी कोख में आने से पहले
शून्य आकार था। एकदम शून्य
आपने जीवन दिया मुझे...
अंश बना तुम्हारा...
अनेक उपकार हैं तुम्हारे
मैं आहवान करता हूँ माँ तुम्हारा!
..............................................
लिखी रेत पे कविता
लिखा नाम तुम्हारा
लिखा क़लमा...
परवाज़ रूह हो गयी
जुगनू की रोशनी में...

...............................
हाँथो से तस्वीर उतरी
उंगुलियों ने रंग पहना
दिल के कैनवास पर
ज़िन्दगी एक नई दौड़ी



16 जनवरी 2018

ख्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है / अनवर जलालपुरी

ख्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है
वैसे अभी मरने का इरादा भी नहीं है

हर चेहरा किसी नक्श के मानिन्द उभर जाए
ये दिल का वरक़ इतना तो सादा भी नहीं है

वह शख़्स मेरा साथ न दे पाऐगा जिसका
दिल साफ नहीं ज़ेहन कुशादा भी नहीं है

जलता है चेरागों में लहू उनकी रगों का
जिस्मों पे कोई जिनके लेबादा भी नहीं है

घबरा के नहीं इस लिए मैं लौट पड़ा हूँ
आगे कोई मंज़िल कोई जादा भी नहीं


15 जनवरी 2018

आंख में आंसू भर—भर आये....सुदेश यादव जख्मी


वो  हमको   ऐसा  बिसराये,  सावन   में
आंख में आंसू भर—भर आये, सावन में

बिजली  चमके  बादल  गरजे,  डर जाउं
रिमझिम मन में प्यास जगाये,सावन में

खिलते  फूल  महकती कलियां, न भायें
पुरवा   बैरन  आग  लगाये ,सावन   में

इतना  हरजाई  निकलेगा,  सनम मेरा
इश्क  किया  करके  पछताये, सावन में

पिछले खत पढ—पढ के ये दिल,रोता है
अब  विरहन से  सहा  न जाये, सावन में

क्या  लेना  दुनियां  से मुझको, बिन तेरे
दिलकश  ये  मौसम  न  भाये, सावन में

नहीं  गिला, शिकवा  हमको, बेगानों से
जख्मी  ने  ही  जख्म  लगाये,सावन में

        -सुदेश यादव जख्मी
    कवि, साहित्यकार

14 जनवरी 2018

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए / दुष्यंत कुमार

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए

तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए
हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन

मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए
उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना

ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए
वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं

सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए
बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा

ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए
ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है

जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए.


13 जनवरी 2018

अगर कुछ दाँव पर रख दें, सफ़र आसान होगा क्या / मदन मोहन दानिश

अगर कुछ दाँव पर रख दें, सफ़र आसान होगा क्या
मगर जो दाँव पर रखेंगे वो ईमान होगा क्या

कमी कोई भी वो ज़िन्दगी में रंग भरती है
अगर सब कुछ ही मिल जाए तो फिर अरमान होगा क्या

मगर ये बात दुनिया की समझ में क्यों नहीं आती
अगर गुल ही नहीं होंगे तो फिर गुलदान होगा क्या

बगोला-सा कोई उठता है क्यों रह-रह के सीने में
जो होना है तआल्लुक का इसी दौरान होगा क्या

कहानी का अहम् किरदार क्यों ख़ामोश है दानिश
कहानी का सफ़र आगे बहुत वीरान होगा क्या

12 जनवरी 2018

अगर औरत बिना संसार होता / गिरधारी सिंह गहलोत

अगर औरत बिना संसार होता।
वफ़ा का ज़िक्र फिर बेकार होता।

ये किस्से हीर लैला के न मिलते।
हर एक आशिक़ यहाँ बेजार होता।

क़लम ख़ामोश रहता शायरों का
बिना रुजगार के फ़नकार होता।

नहीं फिर जिक्र होठों पर किसी के
नयन जुल्फ-ओ-लब-ओ-रुख़्सार होता।

न करता कोई बातें ग़म ख़ुशी की
किसी को कब किसी से प्यार होता।

सजावट धूल खाती फिर मकाँ की
लटकता आइना ग़मख़्वार होता।

सभी ख़ामोश होती महफ़िलें भी
नहीं फिर रूप का बाज़ार होता।

बहन माशूक मां बेटी ओ बीबी
बिना कोई न रिश्तेदार होता।

'तुरंत ' अब ये हक़ीक़त और जानो
बिना औरत बशर क्या यार होता।


11 जनवरी 2018

अगर उदास है वो तो कोई मजबूरी है / डी. एम. मिश्र

अगर उदास है वो तो कोई मजबूरी है
कोई वज़ह है अगर दो दिलों में दूरी है।

आज जी भर के चाँदनी को अपनी देखेंगे
हमारे पास अभी एक रात पूरी है।

आप जाँये तो मुस्करा के यहाँ से जाँये
इस ग़ज़ल में ये शेर भी बहुत ज़रूरी है।

आप दे लाख दलीलें, हजा़र तहरीरें
सही है वो जिसे समाज की मंज़ूरी है।

हरेक बात का उत्तर वो हाँ में देता है
अजीब चीज़ ज़माने में जी-हुज़ूरी है।

हमारे घर से आज शाम का धुआँ न उठा
तुम्हारे मयकदे की शाम तो अँगूरी है।



10 जनवरी 2018

अगर आदमी ख़ुद से हारा न होता / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'

                          अगर आदमी ख़ुद से हारा न होता ,
                          ख़ुदा को किसी ने पुकारा न होता !

                          कहां आसमां पर ख़ुदा बैठ जाता ,
                          जो हम ने ज़मीं पर उतारा न होता !

                          बदलता नहीं वक़्त यह रंग अपने ,
                          किसी आदमी का गुज़ारा न होता !

                          नहीं ख़्वाब कोई हक़ीक़त में ढ़लता ,
                          जो दस्ते-जुनूं ने सँवारा न होता !

                          बुझानी अगर आग आसान होती ,
                          किसी राख में फिर अँगारा न होता !

                          कहीं पर भी होती अगर एक मंज़िल ,
                          तो गर्दिश में कोई सितारा न होता !

                          ये सारे का सारा जहां अपना होता ,
                          अगर यह हमारा तुम्हारा न होता !
                                   

9 जनवरी 2018

अंधेरा मिटता नहीं है मिटाना पड़ता है / भारतभूषण पंत

अंधेरा मिटता नहीं है मिटाना पड़ता है
बुझे चराग़ को फिर से जलाना पड़ता है।

ये और बात है घबरा रहा है दिल वर्ना
ग़मों का बोझ तो सब को उठाना पड़ता है।

कभी कभी तो इन अश्कों की आबरू के लिए
न चाहते हुए भी मुस्कुराना पड़ता है।

अब अपनी बात को कहना बहुत ही मुश्किल है
हर एक बात को कितना घुमाना पड़ता है।

वगर्ना गुफ़्तुगू करती नहीं ये ख़ामोशी
हर इक सदा को हमें चुप कराना पड़ता है।

अब अपने पास तो हम ख़ुद को भी नहीं मिलते
हमें भी ख़ुद से बहुत दूर जाना पड़ता है।

इक ऐसा वक़्त भी आता है ज़िंदगी में कभी
जब अपने साए से पीछा छुड़ाना पड़ता है।

बस एक झूट कभी आइने से बोला था
अब अपने आप से चेहरा छुपाना पड़ता है।

हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
ये बार बार हमें क्यूँ बताना पड़ता है।

8 जनवरी 2018

अंगारों पर चलकर देखें / इसाक अश्क

अंगारों पर चलकर देखे
दीपशिखा-सा जलकर देखे

गिरना सहज सँभलना मुश्किल
कोई गिरे, सँभलकर देखे

दुनिया क्या, कैसी होती है
कुछ दिन भेस बदलकर देखे

जिसमें दम हो वह गाँधी-सा
सच्चाई में ढलकर देखे

कर्फ़्यू का मतलब क्या होता
बाहर जरा निकल कर देखे


7 जनवरी 2018

अंगारों के तकिये रखकर / ज्ञान प्रकाश विवेक

अंगारों के तकिए रखकर
हम बारूदों के घर सोये

सन्नाटों के जल में हमने
बेचेनी के शब्द भिगोये

टी-हाऊस में शोर-शराबा
जंगल में सन्नाटा रोये

एक कैलेंडर खड़ा हुआ है
तारीख़ों का जंगल ढोये

हाथ में आए शंख-सीपियाँ
हमने दरिया खूब बिलोये

दिन का बालक सुबह-सवेरे
धूप के पानी से मुँह धोये

चौराहे पर खड़ा कबीरा
जग का मुजरा देखे, रोये


6 जनवरी 2018

अँधेरे चारों तरफ़ / राहत इन्दौरी

अँधेरे चारों तरफ़ सायं-सायं करने लगे
चिराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे

तरक़्क़ी कर गए बीमारियों के सौदागर
ये सब मरीज़ हैं जो अब दवाएँ करने लगे

लहूलोहान पड़ा था ज़मीं पे इक सूरज
परिन्दे अपने परों से हवाएँ करने लगे

ज़मीं पे आ गए आँखों से टूट कर आँसू
बुरी ख़बर है फ़रिश्ते ख़ताएँ करने लगे

झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले
वो धूप है कि शजर इलतिजाएँ करने लगे

अजीब रंग था मजलिस का, ख़ूब महफ़िल थी
सफ़ेद पोश उठे काएँ-काएँ करने लगे



5 जनवरी 2018

अँधेरा जब मुक़द्दर बन के घर में बैठ जाता है / डी. एम. मिश्र

अँधेरा जब मुक़द्दर बन के घर में बैठ जाता है
मेरे कमरे का रोशनदान तब भी जगमगाता है।

किया जो फ़ैसला मुंसिफ़ ने वो बिल्कुल सही लेकिन
ख़ुदा का फ़ैसला हर फ़ैसले के बाद आता है।

अगर मर्ज़ी न हो उसकी तो कुछ हासिल नहीं होता
किनारे पर लगे कश्ती तो साहिल डूब जाता है।

खिलौने का मुक़द्दर है यही तो क्या करे कोई
नहीं खेलें तो सड़ जाये, जो खेलें टूट जाता है।

ख़ुदा ने जो बनाया है ज़रूरी ही बनाया है
कभी ज़र्रा, कभी पर्वत हमारे काम आता है।

यही विश्वास लेकर घर से अपने मैं निकल आया
अँधेरे जंगलों में रास्ता जुगनू दिखाता है।



4 जनवरी 2018

'मीर' कोई था 'मीरा' कोई लेकिन उनकी बात अलग / निश्तर ख़ानक़ाही

छोड़ो मोह! यहाँ तो मन को बेकल बनना पड़ता है
मस्तों के मयख़ाने को भी मक़तल बनना पड़ता है

सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है

जलते दिए को लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी-कैसी झेल के बिपता, काजल बनना पड़ता है

'मीर' कोई था 'मीरा कोई लेकिन उनकी बात अलग
इश्क़ न करना, इश्क़ में प्यारे पागल बनना पड़ता है

शहर नहीं थे, गाँव से पहले जंगल बनना पड़ता है

"निश्तर" साहब! हमसे पूछो, हमने ज़र्बे झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है


3 जनवरी 2018

'आए भी वो गए भी वो' / शमशेर बहादुर सिंह

'आए भी वो गए भी वो'--गीत है यह, गिला नहीं
हमने य' कब कहा भला, हमसे कोई मिला नहीं।

आपके एक ख़याल में मिलते रहे हम आपसे
यह भी है एक सिलसिला गो कोई सिलसिला नहीं।

गर्मे-सफ़र हैं आप तो हम भी हैं भीड़ में कहीं
अपना भी काफ़िला है कुछ आप ही का काफ़िला नहीं।

दर्द को पूछते थे वो, मेरी हँसी थमी नहीं
दिल को टटोलते थे वो, मेरा जिगर हिला नहीं।

आई बहार हुस्न का ख़ाबे-गराँ लिए हुए :
मेरे चमन कि क्या हुआ, जो कोई गुल खिला नहीं।

उसने किए बहुत जतन, हार के कह उठी नज़र :
सीनए-चाक का रफ़ू हमसे कभी सिला नहीं।

इश्क़ की शाइरी है ख़ाक़, हुस्न का ज़िक्र है मज़ाक
दर्द में गर चमक नहीं, रूह में गर जिला नहीं

कौन उठाए उसके नाज़, दिल तो उसी के पास है;
'शम्स' मज़े में हैं कि हम इश्क़ में मुब्तिला नहीं।




2 जनवरी 2018

सरोज स्मृति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"  की पुत्री सरोज की मृत्यु 18 वर्ष की उम्र में हो गयी। सरोज स्मृति नामक इस रचना में कवि ने अपनी पुत्री की स्मृतियों को संजोया है।


ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --

अशब्द अधरों का सुना भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --
"जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --

कहता तेरा प्रयाण सविनय, --
कोई न था अन्य भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!

धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।

सोचा है नत हो बार बार --
"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर!" --
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। --
देखें वे; हसँते हुए प्रवर,
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण,
देखता रहा मैं खडा़ अपल
वह शर-क्षेप, वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन-जीवन का रवि,
लेकर-कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रँग भरती विमला,
वांछित उस किस लांछित छवि पर
फेरती स्नेह कूची भर।

अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ,
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक

प्राणों की प्राणों में दब कर
कहती लघु-लघु उसाँस में भर;
समझता हुआ मैं रहा देख,
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।

तू सवा साल की जब कोमल
पहचान रही ज्ञान में चपल
माँ का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण
भरती जीवन में नव जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गई चली
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक-विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खाई भाई की मार, विकल
रोई उत्पल-दल-दृग-छलछल,
चुमकारा सिर उसने निहार
फिर गंगा-तट-सैकत-विहार
करने को लेकर साथ चला,
तू गहकर चली हाथ चपला;
आँसुओं-धुला मुख हासोच्छल,
लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल।
तब भी मैं इसी तरह समस्त
कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध-गति मुक्त छंद,
पर संपादकगण निरानंद
वापस कर देते पढ़ सत्त्वर
दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
लौटी लेकर रचना उदास
ताकता हुआ मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोंचता हुआ घास
अज्ञात फेंकता इधर-उधर
भाव की चढी़ पूजा उन पर।
याद है दिवस की प्रथम धूप
थी पडी़ हुई तुझ पर सुरूप,
खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूरस्थित प्रवास में चल
दो वर्ष बाद हो कर उत्सुक
देखने के लिये अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आँगन में फाटक के भीतर,
मोढे़ पर, ले कुंडली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ-गाथ।
पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह।
हँसता था, मन में बडी़ चाह
खंडित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।

इससे पहिले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढी़ लिखी हो -- सुन्दर हो।
आये ऐसे अनेक परिणय,
पर विदा किया मैंने सविनय
सबको, जो अडे़ प्रार्थना भर
नयनों में, पाने को उत्तर
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर --
"मैं हूँ मंगली," मुडे़ सुनकर
इस बार एक आया विवाह
जो किसी तरह भी हतोत्साह
होने को न था, पडी़ अड़चन,
आया मन में भर आकर्षण
उस नयनों का, सासु ने कहा --
"वे बडे़ भले जन हैं भैय्या,
एन्ट्रेंस पास है लड़की वह,
बोले मुझसे -- 'छब्बीस ही तो
वर की है उम्र, ठीक ही है,
लड़की भी अट्ठारह की है।'
फिर हाथ जोडने लगे कहा --
' वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,
हैं सुधरे हुए बडे़ सज्जन।
अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन।
हैं बडे़ नाम उनके। शिक्षित
लड़की भी रूपवती; समुचित
आपको यही होगा कि कहें
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।'

आयेंगे कल।" दृष्टि थी शिथिल,
आई पुतली तू खिल-खिल-खिल
हँसती, मैं हुआ पुन: चेतन
सोचता हुआ विवाह-बन्धन।
कुंडली दिखा बोला -- "ए -- लो"
आई तू, दिया, कहा--"खेलो।"
कर स्नान शेष, उन्मुक्त-केश
सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश
आईं करने को बातचीत
जो कल होनेवाली, अजीत,
संकेत किया मैंने अखिन्न
जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न;
देखने लगीं वे विस्मय भर
तू बैठी संचित टुकडों पर।

धीरे-धीरे फिर बढा़ चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर
आईं, लावण्य-भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यौं मालकौस नव वीणा पर,
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद मंद
फूटी उषा जागरण छंद
काँपी भर निज आलोक-भार,
काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल --
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय दल
क्या दृष्टि। अतल की सिक्त-धार
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता उर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील नील,
पर बँधा देह के दिव्य बाँध;
छलकता दृगों से साध साध।
फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर
माँ की मधुरिमा व्यंजना भर
हर पिता कंठ की दृप्त-धार
उत्कलित रागिनी की बहार!
बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,
मेरे स्वर की रागिनी वह्लि
साकार हुई दृष्टि में सुघर,
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।
शिक्षा के बिना बना वह स्वर
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को, अपना स्वर
भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,
जागा उर में तेरा प्रिय कवि,
उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज
तरु-पल्लव कलिदल पुंज-पुंज
बह चली एक अज्ञात बात
चूमती केश--मृदु नवल गात,
देखती सकल निष्पलक-नयन
तू, समझा मैं तेरा जीवन।

सासु ने कहा लख एक दिवस :--
"भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना-पोसना रहा काम,
देना 'सरोज' को धन्य-धाम,
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,
है काम तुम्हारा धर्मोत्तर;
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर
अपने घर रहो, ढूंढकर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होंगे सहाय हम सहोत्साह।"

सुनकर, गुनकर, चुपचाप रहा,
कुछ भी न कहा, -- न अहो, न अहा;
ले चला साथ मैं तुझे कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत बार-बार --
"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल -- नहीं सुजल।"
फिर सोचा -- "मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूं पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द्र-बंध की निराधार।

वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गंध,
उन चरणों को मैं यथा अंध,
कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं, ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह!"
फिर आई याद -- "मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्वज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इंगित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय।" बँध गया भाव,
खुल गया हृदय का स्नेह-स्राव,
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन।
बोला मैं -- "मैं हूँ रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त --
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण
यदि महाजनों को तो विवाह
कर सकता हूँ, पर नहीं चाह
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूं यह नहीं सुघर,
बारात बुला कर मिथ्या व्यय
मैं करूँ नहीं ऐसा सुसमय।
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूंगा स्वयं मंत्र
यदि पंडितजी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझो, कुल धन्या का।"

आये पंडित जी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक ससर्ग
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मन्द,
होंठो में बिजली फँसी स्पन्द
उर में भर झूली छवि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर
तू खुली एक उच्छवास संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग,
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैनें वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त की प्रथम गीति --
श्रृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग --
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमन्त्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, "वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह अन्य कला।"

कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूंदे दृग वर महामरण!

मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!









1 जनवरी 2018

नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन---डॉ.जगदीश व्योम  

आमों पर खूब बौर आए
भँवरों की टोली बौराए
बगिया की अमराई में फिर
कोकिल पंचम स्वर में गाए।
फिर उठें गंध के गुब्बारे
फिर महके अपना चंदन वन
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

गौरैया बिना डरे आए
घर में घोंसला बना जाए
छत की मुंडेर पर बैठ काग
कह काँव-काँव फिर उड़ जाए
मन में मिसिरी घुलती जाए
सबके आँगन हों सुखद सगुन।
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

बच्चों से छिने नहीं बचपन
वृद्धों का ऊबे कभी न मन
हो साथ जोश के होश सदा
मर्यादित बने रहें जन मन
ऐसे दुख कभी नहीं आएँ
बदरंग हो जाए घर आँगन।
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

घाटी में फिर से फूल खिलें
फिर रुके शिकारे तैर चलें
बह उठे प्रेम की मंदाकिनी
हिमशिखर हिमालय से पिघलें।
सोनी मचले महिवाल चले
राँझे की हीर करे नर्तन
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

विज्ञान ज्ञान के छुए शिखर
पर चले शांति के ही पथ पर
हिंदी भाषा के पंख लगा
कंप्यूटर जी पहुँचें घर-घर।
वह देश रहे खुशहाल 'व्योम'
धरती पर जहाँ प्रवासी जन
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

डॉ.जगदीश व्योम