ब्लौग सेतु....

23 जून 2014

मुझें अमरत्व की चाह है -- जानू बरुआ


सेठ बने है, जब फ़िक्र में थे तो लामलेट हो रहें थे |
जिसके भाग्य में लिखा वो बेफिकर होकर झेले...
हमें तो इन्तजार है उस सूरज का ,
जो चमके मेरे प्रताप से ......
और मैं उसकी परछाई में खोकर,
हर्षित हूँ लेकिन उसमें मैं कहीं, ना हूँ ...|

जो मदत-मदत कह रहा ,
उसके हाथ खुले है, उपकार को |
भय भीतर खा रहा ,
फिर भी उसे तो रोटी मिल बांटकर है, खानी |


झूट का भार कमर तोड़ रहा
लेकिन झूटे धन की चाह उसे नहीं....|
अभय मुर्ख, सत्य के अर्थ तलाशने को निकला है... |

कर्म की महत्ता से परिचित है,
उससे सत्य कहता है |
उसे आभास नहीं है,
मैं किस दिशा में हूँ ??

अगर वो मुझसे
कठिन- कठोर परिश्रम मांगेगी,
तो और आगे बढ चलूँगा,
मुझें अमरत्व की चाह है
 " अपने कर्मों से प्रप्ति संभव " |

लेखक परिचय -- जानू बरुआ   


20 जून 2014

हो जाए ऐसा खुदा न खास्ता तो -- वंदना सिंह


हो जाए ऐसा खुदा न खास्ता तो 
याद आये भूला हुआ रास्ता तो 

नींदों में हमें है चलने कि आदत 
अगर शिद्दत से वो पुकारता तो

खामोशियों को जुबां हमने जाना 
कयामत ही होती गर बोलता तो

होता यूँ के टूटते बस भरम ही 
गर जाते में उसको टोकता तो

उसी कि नजर का जवाब हम थे 
आईने में खुद को निहारता तो

मर के भी मैं जी उठूंगा शायद 
दिया अपना जो उसने वास्ता तो




13 जून 2014

एक गज़ल



नजारों में वो बात न थी
वो लमहे जब तू मेरे पास न थी।
ज्यों जिंदगी मेरे पास न थी।।
यों बहारें थीं समां सुहाना था।
तेरे बगैर नजारों में वो बात न थी।
ख्वाबों की महफिल उदास थी।
नगमें सभी थे ज्यों खोये हुए।।
हम तेरी याद में जागा किये।
अश्कों से दामन भिगोये हुए।।
तुम गयी  याद तो साथ थी।
जिसके सहारे कटे रात-दिन।
तेरी फुरकत* में ओ बेवफा।
दिन गुजरे पल-छिन गिन-गिन।।
जालिम थी तेरी तिरछी नजर।
वो पड़ी तो दिल घायल हुआ।।
तू लाजवाब है लासानी है।
इस बात का कायल हुआ।।
तेरी पायल की रुनझुन।
कंगना की खनक।
आंखों की तेरी निराली चमक।
सब बेमिसाल है बाकमाल है।
इनकी न दूजी मिसाल है।।
तू है तो जिंदगी के हैं मायने।
तू नहीं तो सभी कुछ बेकार है।।
तू जमीं की फसले बहार* है।
तू सरापा* बस प्यार है प्यार है।।

पड़ जायें जहां नाजुक कदम।
जिंदगी झूम कर गाने लगे।।
खिजां में बहारें हंसने लगें।
गमजदा शख्स मुसकाने लगे।।
तेरे हुस्न का ऐसा कमाल है।
हर तरफ बस इसका जमाल है।।
नयन तेरे बिन बेचैन हैं।
दीदार का बस सवाल है।।
तू जो आये करार आ जाये।
जिंदगी में बहार आ जाये।।
तेरी नफरत भी ऐसी है।
इस नफरत पे प्यार आ जाये।।
      -राजेश त्रिपाठी
फुरकत*= जुदाई, विछोह
फसले बहार*= वसंत ऋतु
सरापा* सर से पैर तक



5 जून 2014

छोटी है ये ज़िन्दगी मगर काफी है

हमारी यादों पर तुम्हारी नज़र काफी है
छोटी है ये  ज़िन्दगी  मगर  काफी है

न  चाहा था ज्यादा, मिला  भी  नहीं
जैसे   भी  रहा  है   गुजर   काफी  है

इस  जहां  से  आगे  भी  लम्बा है  रास्ता
वैसे जीने के लिए इतना भी सफ़र काफी है

कितने ही नियत हुयीं ख़राब  अन्धेरे  में
दाग़-ए-दगा मिटाने को ये शहर काफी है

मातम का अँधेरा हो चाहे  जितना  घाना  
हँसी के लिए तो इक नूर-ए-सहर काफी है

सोयी  सोयी  सी  तबियत  है  हर  मंज़र  की
फिर भी, सोह्बत-ए-यार में चंद पहर काफी है

2 जून 2014

...... कड़ी धूप -- सदा जी


दर्द सहकर
मुस्‍कराती है
बहते हैं आंसू
जब मां के
बच्‍चों से छिपाती है
कड़ी धूप में
खुद नंगे सिर हो
तो कोई बात नहीं
दामन से अपने
लाल को ढंककर
झुलसने से बचाती है......!!