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7 अगस्त 2013

बादल... रचनाकार धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’



आदरणीय,
प्रस्तुत है एक कविता।
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बादल
बादल अंधे और बहरे होते हैं
बादल नहीं देख पाते रेगिस्तान का तड़पना
बादलों को नहीं सुनाई पड़ती बाढ़ में बहते इंसानों की चीख
बादल नहीं बोल पाते सांत्वना के दो शब्द
बादल सिर्फ़ गरजना जानते हैं
और ये बरसते तभी हैं जब मजबूर हो जाते हैं
सागर
गागर, घड़ा, ताल, झील
नहर, नदी, दरिया
यहाँ तक कि नाले भी
लुटाने लगते हैं पानी जब वो भर जाते हैं
पर समुद्र भरने के बाद भी चुपचाप पीता रहता है
इतना ही नहीं वो पानी को खारा भी करता जाता है
ताकि उसे कोई और न पी सके
पहाड़
पहाड़ सिर्फ़ ऊपर उठना जानते हैं
खाइयाँ कितनी गहरी होती जा रही हैं
इसकी परवाह वो नहीं करते
ज्यादा खड़ी चढ़ाई होने पर सबसे कमजोर हिस्सा
अपने आप उनका साथ छोड़ देता है
और इस तरह उनकी मदद करता है ऊँचा उठने में
एक दिन पहाड़ उस उँचाई से भी अधिक ऊँचे हो जाते हैं
जहाँ तक पहुँचने के बाद
विज्ञान के अनुसार उनका ऊपर उठना बंद हो जाना चाहिए
पूँजीपति
एक दिन अनजाने में
ईश्वर बादल, सागर और पहाड़ को मिला बैठा
उस दिन जन्म हुआ पहले पूँजीपति का
जिसने पैदा होते ही ईश्वर को कत्ल कर दिया
और बनवा दिये शानदार मकबरे
रच डालीं मकबरों की उपासना विधियाँ
तब से पूँजीपति ही
ईश्वर के नाम पर मजलूमों का भाग्य लिखता है
और उस पर अपने हस्ताक्षर कर ईश्वर की मोहर लगता है
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सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन

4 टिप्‍पणियां:

  1. तब से पूँजीपति ही
    ईश्वर के नाम पर मजलूमों का भाग्य लिखता है
    और उस पर अपने हस्ताक्षर कर ईश्वर की मोहर लगता है

    बहुत बेहतरीन रचना
    latest post नेताजी सुनिए !!!
    latest post: भ्रष्टाचार और अपराध पोषित भारत!!

    जवाब देंहटाएं
  2. बादल कुछ जदा नराज लगते हैं आप लेकिन ये याद रखिए सब कुछ पाने पर भी सिकायत तो रहती ही हैं

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बहुत शुक्रिया कुलदीप जी मुझे स्थान देने के लिए

    जवाब देंहटाएं

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