ब्लौग सेतु....

24 जुलाई 2017

गाजे घन....................

घनन घनन घन गाजे घन
सन सन सनन समीर
छनन छनन छन पायलें
कल कल नदिया नीर

कुहू कुहू कुक कोयली
पिहू पिहू मित मोर
हर रही चित चंचल को
सुखद सुहानी भोर
अंबर तक उड़ता आँचल
लहरे मन के तीर.      घनन घनन घन........

मगन मगन मन मीत का
बहके बहके नैन
मचलूँ निरखूँ रूप को
पाऊँ कैसे चैन
कड़वी तुमसे दूरियाँ 
मीठी मन की पीर.      घनन घनन घन........

खनन खनन खन कँगना
लगन अगन के फेर
मनन रुठन संग साजना
चुहल साँझ सवेर
बाँटे तोहफ़े प्रीत के
दोनों प्रेम फ़कीर.      घनन घनन घन........

…………………. © के. एल. स्वामी ‘केशव’


सत्य....



एक दिन इस प्रतिस्पर्धा  का अंत हो  जायेगा।
एक  दिन तू  अंतहीन  निद्रा  में  सो  जायेगा।।

बहुत परिश्रम किया है तुमने  ने जिसे पाने में।
एक दिन वो सब इस आभास  मे खो जायेगा।।

अचेत  पड़ा  होगा  तू   इस  धरा  की  गोद मे।
तब  कोई  आकर   तेरे  शव  पर  रो  जायेगा।।

दुर्गंध बहुत आयेगी तब तेरे शुभचिंतक को भी।
तेरे   सिरहाने  कुछ  अगरबत्तिया  बो  जायेगा।।

घृणा बहुत है तेरे लिये  जिनके  भी अंतर्मन मे ।
एक दिन  स्नेह  ही होगा  तेरे दर  जो  जायेगा।।

जल्दी होगी  लोगो  को तेरे  अंतिम संस्कार मे।
अश्रुओं का एक  झुंड तेरे  शव को धो जायेगा।।

जन्म मिला है जिसको  भी इस दुनिया मै देख।
एक दिन  निश्चय ही इस धरती  से वो  जायेगा।।

अभिमान  क्या  करना 'मित्रा' नश्वर  शरीर पर।
एक दिन आग से लिपट कर  राख हो  जायेगा।।

                   .  ----  हिमांशु मित्रा 'रवि' ----

22 जुलाई 2017

ख्वाहिशों का पंछी

बरसों से निर्विकार,
निर्निमेष,मौन अपने
पिंजरे की चारदीवारियों
में कैद, बेखबर रहा,
वो परिंदा अपने नीड़
में मशगूल भूल चुका था
उसके पास उड़ने को
सुंदर पंख भी है
खुले आसमां में टहलते
रुई से बादल को देख
शक्तिहीन परों को
पसारने का मन हो आया
मरी हुई नन्ही ख्वाहिशे
बुलाने लगी है पास
अनंत आसमां की गोद,
में भूलकर, काटकर
जाल बंधनों का ,उन्मुक्त
स्वछंद फिरने की चाहत
हो आयी है।
वो बैठकर बादलों की
शाखों पर तोड़ना
चाहता है सूरज की लाल
गुलाबी किरणें,देखना
चाहता है इंद्रधनुष के
रंगों को ,समेटना
चाहता है सितारों को,
अपने पलकों में
समाना चाहता है
चाँद के सपनीले ख्वाब
भरना चाहता है,
उदास रंगहीन मन में
हरे हरे विशाल वृक्षो़ के
चमकीले रंग,
पीना है क्षितिज से
मिलती नदी के निर्मल जल को
चूमना है गर्व से दिपदिपाते
पर्वतशिख को,
आकाश के आँगन में
अपने को पसारे
उड़ान चाहता है अपने मन
के सुख का,
नादां मन का मासूम पंछी
भला कभी तोड़ भी पायेगा
अपने नीड़ के रेशमी धागों का
सुंदर पिंजरा,
अशक्त पर, सिर्फ मन की उडान
ही भर सकते है,
बेजान परों में ताकत बची ही नहीं
वर्जनाओं को तोड़कर
अपना आसमां पाने की।

     #श्वेता🍁

18 जुलाई 2017

रेप-----अंजली अग्रवाल

आज मुझे एक बार फिर आदरणीय अंजली अग्रवाल जी की ये कविता याद आ गयी....

पानी के बुलबुले सी एक लड़की थी ॰॰॰॰

होठों पर मुस्कान लिये घर से निकली थी ॰॰॰॰

कि पड़ नजर शैतानों की॰॰॰॰

और डूब गयी नाव इंसानियत की॰॰॰॰

ओढ ली थी काली चादर आसमान ने॰॰॰॰

निर्वस्त्र कर दिया था भारत माँ को आज इस संसार ने॰॰॰॰

चीखें गूँजती रही मासूम सी जान की॰॰॰॰

बन गयी शिकार वो शैतानों के हवस की॰॰॰॰

कहर की अविरल धारा बहती रही॰॰॰॰

और वो ओस की बूंन्दो सी पिघलती रही ॰॰॰॰

जिस्म गलता रहा और तड़पती रही वो॰॰॰॰

आखिर बन ही गयी लाश वो॰॰॰॰

उसकी मृत आँखें जैसे सारा किस्सा बयां करती थी॰॰॰॰

उसके मृत होंठ सिसकते यह कहते थे कि॰॰॰॰

“ यह संसार नहीं दरिंदों का मेला है, नहीं रहना अब मुझे इस दुनिया में ,

यहाँ सिर्फ अपमान मेरा है ।”

“आज रेप मेरा नहीं इस देश का हुआ है, क्योंकि इस देश का कानून , अंधा है।”

उसकी मृत काया मानो चीख—चीख कर एक ही गुहार लगाती हो॰॰॰॰

“ कि तभी आग लगाना इस शरीर को॰॰॰॰

जब सुला दो इन लड़कियों में उन दरिंदों को

और दिला न पाये इंसाफ मुझे, तो सड़ जाने देना इस शरीर को ॰॰॰॰

क्योंकि जल तो गयी थी मैं , उसी दिन को॰॰॰॰

अब क्या जलाओगे तुम इस राख को —

इस राख को ”





17 जुलाई 2017

नई सुबह की नई किरण



ह्रदय  को  वो  चाहे   जितना  समझाले
फिर भी तो  उसको  थोड़ा  दुःख  होगा।
देख  कर  हाथो  की  गीली  मेहँदी  को
आज स्वयं उसका मुख भी बेमुख होगा।।

               कंधे पर जो हाथ कभी  रखती  थी वो
               हरी सौ  चूड़ियों  से  कल भर  जाएगा।
               चढ़ा हुआ जो आंख तलक  एक  आँसू
               छोड़ नयन को वो भी अब गिर जाएगा।।

पहनकर  लाल  रेशमी  जब वो  जोड़ा
श्रृंगार सोलवह कर रूप  सँवर आयेगी।
देखकर  सौन्दर्य आज  उस  दुल्हन  का 
ये रात  चांदनी  भी  कुछ  शर्म  जायेगी।।

               झनक  झनक कर पायल भी जब उसकी
               धुन छेड़  कर  ये  बिछड़न  राग  सुनायेगी ।
               सुनकर गीत  स्वयं की  पायल के  मुख  से
               सुप्त  स्मृतियाँ  ह्रदय  मे  घर  कर  जायेगी ।।

भरा  मांग  मे  उसकी  जो सिंदूर  ये  देखो
आज  पवित्रता   उसकी    और  बढ़ायेगा ।
सृजन किया है जीवन भर जिन रिश्तों का 
रूप   परिवर्तित  उनका  ये   कर   गायेगा ।।

               लगी हुई बिदिया ये चाँद के  मस्तक  पर
               किसी के प्रति ये समर्पण  को  दर्शाती  है ।
               हुआ अधिकृत ये सब तन मन भी उसका
               सात जन्मों  की  रूप-रेखा  समझाती  है ।।

नई सुबह की नई किरण मे वो आज
तोड़ वादों को कर लेगी स्वयं विदाई ।
चलना ही है इस चलनमय जीवन को
उसने भी इस संसार की रस्म निभाई ।।

               करता हूँ अब अंतिम अधिकार समर्पित
               याद नही  मैं  अब  उसको  कर  पाऊंगा ।
               मर्म  छुपा  लूँगा  दिल  मे  सच  कहता  हूँ
               अब   मैं  नही   किसी   को   बतलाऊँगा



                  -----  हिमांशु मित्रा 'रवि' --

16 जुलाई 2017

ख़ालीपन से दूर .....

           

     उठो चलो
     जी चुके बहुत
     सहारों में,
     ढूँढ़ो  न आसरा
     धूर्तों-मक्कारों में।


      सुख के पलछिन

      देर-सवेर
      आते तो हैं ,
      पर ठहरते नहीं
      कभी  बहारों में।


     मतवाली हवाओं

     का आना -जाना
     ब-दस्तूर ज़ारी है ,
     ग़ौर  से देखो
     छायी है धुंध
     दिलकश नज़ारों में।


     फ़ज़ाओं की

    बे-सबब  बे-रुख़ी से
     ऊब गया है मन ,
     फुसफुसाए जज़्बात
     दिल की
     दीवारों में।


     रोने से

     अब   तक   भला 
     किसे क्या मिला,
     मिलता है
     जीभर सुकूं
     वक़्त के मारों में।


     हवाऐं ख़िलाफ़

     चलती हैं
     तो चलने दे ,
     जुनूं लफ़्ज़ों से
     खेलने का
     पैदा कर क़लमकारों  में।


    मझधार की

    उछलती  लहरें
    बुला रही हैं,
    कब तक
    सिमटे  हुए 
    बैठे रहोगे  किनारों में।


     परिंदे भी

    चहकते ख़्वाब
    सजाते रहते हैं ,
    उड़ते हैं
    कभी तन्हा
    कभी क़तारों  में।

    @रवीन्द्र  सिंह  यादव

15 जुलाई 2017

तुम्हारा साथ.......

एक तुम्हारा साथ सजनी 
हमको हम से प्यारा है 
तुम चाह जीवन की मेरे
प्रेरक साथ तुम्हारा है....

बैठो जो पहलू में मेरे
रचूँ कविता साँझ-सवेरे
रहूँ निरखता रूप तुम्हारा
चंदा ज्यूँ बदली को घेरे....

करलूँ मैं बातें मीठी सी
रंग लूँ रात प्यार में
छू लूँ मैं हलके से तुमको
सावन की बहार में...

नैनों में देखूँ मैं दुनिया
दामन में सुख सपनों का 
हाथों में निरखूँ मैं किस्मत
आँगन को घर आपनों का....

.............................................© के. एल. स्वामी 'केशव'


कुछ भी व्यर्थ नहीं

हर रात नींद की क्यारी में
बोते है चंद बीज ख्वाब के
कुछ फूल बनकर मुस्कुराते है
कुछ दफ्न होकर रह जाते है
बनते बिगड़ते ज़िदगी के राह में
चंद सपनों के टूट जाने से
जीवन व्यर्थ नहीं हो सकता।

आस निराश के पंखो़ में उड़कर
पंछी ढ़ूढ़े बसेरा पेड़़ो से जुड़कर
कभी मिलती है छाँव सुखों की
धूप तेज लगती है दुखो की
हर दिन साँझ के रूठ जाने से
भोर का सूरज व्यर्थ नहीं हो सकता।

रोना धोना, रूठना मनाना
लड़ना झगड़ना बचपन सा जीवन
जिद में अड़ा कभी उदास खड़ा
खोने का डर पाने की हसरत
कभी बेवजह ही मुस्कुराता चला
मासूम ख्वाहिशों को हाथों मे लिये
चंद खिलौने के फूट जाने से
बचपन तो व्यर्थ नहीं हो सकता।

कुछ भी व्यर्थ नहीं जीवन में
हर बात में अर्थ को पा लो
चंद साँसों की मोहलत मिली है,
चाहो तो हर खुशी तुम पा लो
आँखों पे उम्मीद के दीये जलाकर
हर तम पे विजय तुम पा लो
कुछ गम के मिल जाने से
अर्थ जीवन का व्यर्थ नहीं हो सकता।

       #श्वेता🍁

9 जुलाई 2017

चूड़ियाँ

छुम छुम छन छन करती
कानों में मधुर रस घोलती
बहुत प्यारी लगी थी मुझको
पहली बार देखी जब मैंने
माँ की हाथों में लाल चूड़ियाँ
टुकुर टुकुर ताकती मैं
सदा के लिए भा गयी
अबोध मन को लाल चूड़ियाँ
अपनी नन्ही कलाईयों में
कई बार पहनकर देखा था
माँ की उतारी हुई नयी पुरानी
खूब सारी काँच की चूड़ियाँ

वक्त के साथ समझ आयी बात
कलाई पर सजी सुंदर चूड़ियाँ
सिर्फ एक श्रृंगारभर नहीं है
नारीत्व का प्रतीक है ये
सुकोमल अस्तित्व को
परिभाषित करती हुई
खनकती काँच की चूड़ियाँ
जिस पुरुष को रिझाती है
सतरंगी चूड़ियों की खनक से
उसी के बल के सामने
निरीह का तमगा पहनाती
ये खनकती छनकती चूड़ियाँ

ब्याह के बाद सजने लगती है
सुहाग के नाम की चूड़ियाँ
चुड़ियों से बँध जाते है
साँसों के आजन्म बंधन
चुड़ियों की मर्यादा करवाती
एक दायित्व का एहसास
घरभर में खनकती है चूड़ियााँ
सबकी जरूरतों को पूरा करती
एक स्वप्निल संसार सजाती
रंग बिरंगी काँच  की चूड़ियाँ

चूड़ियों की परिधि में घूमती सी
अन्तहीन ख्वाहिशें और सपनें
टूटते,फीके पड़ते,नये गढ़ते
चूड़ियों की तरह ही रिश्ते भी
हँसकर रोकर सुख दुख झेलते
पर फिर भी जीते है सभी
एक नये स्वप्न की उम्मीद लिए
कलाईयों में सजती हुई
नयी काँच चूड़ियों की तरह
जीवन भी लुभाता है पल पल
जैसे खनकती काँच की चूड़ियाँ

               #श्वेता🍁

6 जुलाई 2017

एक ख्वाब

खामोश रात के दामन में,
जब झील में पेड़ों के साये,
गहरी नींद में सो जाते है
उदास झील को दर्पण बना
चाँद मुस्कुराता होगा,
सितारों जड़ी चाँदनी की
झिलमिलाती चुनरी ओढ़कर
डबडबाती झील की आँखों में
मोतियों सा बिखर जाता होगा
पहर पहर रात को करवट
बदलती देख कर दिल
आसमां का धड़क जाता होगा
दूर अपने आँगन मे बैठा
मेरे ख्यालों में डूबा वो
हथेलियों में रखकर चाँद
आँखों में भरकर मुहब्बत
मेरे ख्वाब सजाता तो होगा।

5 जुलाई 2017

भाग्य विधाता....प्रमोद राय


न्यूज पोर्टल का “साप्ताहिक राशिफल” सेक्शन खूब हिट हो रहा था। कोई ऐसा दिन नहीं था, जब दो-चार ई-मेल न आते हों। पाठकों की जबर्दस्त प्रतिक्रिया को देखते हुए वेबसाइट के होमपेज पर “राशिफल” को थोड़ा हाईलाइट किया गया।

एक दिन कॉपी एडिटर राधेश्याम ने बॉस को बताया कि पंडित चतुरानन चतुर्वेदी के यहाँ से अभी तक राशिफल नहीं आया है। आमतौर पर राशिफल की कॉपी शुक्रवार तक दफ्तर में पहुँच जाती थी। राधेश्याम हस्तलिखित राशिफल को कंपोज करता, फिर उन्हें एडिट करके हर वीकेंड साइट पर अपलोड किया करता था। बॉस ने पंडित चतुरानन के यहाँ फोन करवाया तो पता चला कि आउट ऑफ स्टेशन हैं। बॉस ने खीझते हुए कहा, इसका भी भाव बढ़ता जा रहा है, लगता है कॉन्ट्रैक्ट तोड़ना पड़ेगा। फिर चुटकी बजाते हुए बोले, "यार राधेश्याम, एक काम करो। दो चार महीने पुराना राशिफल उठाओ, भाषा में थोड़ा फेरबदल करो और अपलोड कर दो।"

धश्याम ने वैसा ही किया। अगले हफ्ते फीडबैक और जबर्दस्त था। इस सेक्शन पर कई गुना ज्यादा “हिट”पड़े । ई-मेल की संख्या भी बढ़ी थी, जिनमें से कई में सटीक भविष्यवाणी के कसीदे पढ़े गए थे।

कुछ दिनों बाद फिर ऐसा हुआ कि पंडित चतुरानन चतुर्वेदी समय पर राशिफल नहीं भेज पाए। इस बार राधेश्याम को एक नया आयडिया सूझा। उसने पिछले महीने का राशिफल उठाया। राशियों का भाग्यफल परस्पर बदलते हुए मेष की जगह कर्क, तुला की जगह मिथुन और कुंभ की जगह धनु की भविष्यवाणियाँ “कट एण्ड पेस्ट” कर दीं। बिल्कुल नया राशिफल तैयार था।

कुछ दिनों बाद बेहतर फीडबैक और साइट की बढती रेटिंग को देखते हुए “साप्ताहिक राशिफल” को बदलकर “आज का राशिफल” कर दिया गया। अब यह सेक्शन रोजाना अपडेट होने लगा।

-प्रमोद राय

4 जुलाई 2017

बेबस आवाज

बेबस आवाज

बेबस है एक आवाज 
लोगो के जर्जर तहखाने मे
व्याकुल हो उठती है
जब कभी कोई 
शोर सुनाई देता है
डरी हुई थोड़ी सहमी सी 
इन महानगरों के 
दोहरे आचरण से
जहाँ असत्य का आधिक्य है
जहाँ सत्य का मुद्रा से विनिमय
उसकी आँखों के सामने होता है
जहाँ हर रोज कोई हिंसा किसी
नवजात रूपी अवधारणा 
का हरण कर लेती है
विलुप्ति की कगार पर 
खड़ी होकर 
हर क्षण खोजती है
कुछ दर्रो को 
जहाँ से वो स्वतंत्र होकर
सूर्य की किरणों का 
अवलोकन कर पाए
संचारित हो सके उनमे
प्राणदायक आशाए
पनपती है इसलिये
निरन्तर कि कोई धारणा 
अपवाद न बन जाये
अक्सर उलझ जाती है
परंपरावादी समाज मे
नही सुलझा पाती है खुद को 
धीरे धीरे ह्रसित होकर
स्वयं अपना ही अस्तित्व 
समाप्त कर लेती है


----- हिमांशु मित्रा 'रवि'

प्रकृति का स्वरूप....

 प्रकृति का स्वरूप


परिदृश्य परिवर्तित हो गया इसका 
     जिसकी अठखेलियों का 
सम्मोहन कभी सूर्य की किरणों को 
अल्पकालीन निद्रा मे डूबा देता था
 जिसके आगमन पर चंद्र 
भी बादलों का आवरण हटा देता था
जिसका एहसास मात्र दोहरी शुष्क 
      नयनों को नम कर देता था
जिसका अवलोकन मात्र ही ह्रदय 
    आघात को कम कर देता था 
निश्चित ही ये वही है जिसकी गोद मे 
    बैठ कर पक्षी करलव करते थे
जिसकी सानिध्य मे रहकर घुमक्कड़
  मूर्तियों में रंग को भरते थे
  जिसके एक सूक्ष्म दृश्य से चौपालों का 
  शून्यकाल संतृप्ति मे आ जाता था
    उसके आते ही मौसम का रूप 
      परिवर्तित हो जाता था
       पर शायद उसमे 
      अब  वो  बात  नही
     दिन तो ढलता है पर उसके 
         आगे चाँदनी रात नही 
       निर्रथक समय संयोजित हो जाता है 
        मौसम का रंग भी परिवर्तित हो जाता है
      पर चौपालों का शून्यचक्र नही बढ़ता 
        ये पवन भी शाखों का रूप नही गढ़ता 
         चिंतन न कर हे मानव ! 
         ये तेरी ही परिकल्पनाओं का परिणाम है
         गति देना चाहता था तू जिस जीवन को 
        आज उस पर ही अल्पविराम है
        समय शेष है अब भी तू अपनी
       नगण्य चेष्टाओ को संकुचित कर ले
    बर्हिगमन कर स्वार्थ का अपनी 
       शिराओं से प्रकृति प्रेम के रक्त को भर ले


                     ------ हिमांशु मित्रा 'रवि' 

मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो---साहिर

मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।

कदम कदम पे चट्टानें खड़ी रहें, लेकिन
जो चल निकलते हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते।
हवाएँ कितना भी टकराएँ आंधियाँ बनकर,
मगर घटाओं के परछम कभी नहीं झुकते।
मेरे नदीम मेरे हमसफर .....

हर एक तलाश के रास्ते में मुश्किलें हैं, मगर
हर एक तलाश मुरादों के रंग लाती है।
हज़ारों चांद सितारों का खून होता है
तब एक सुबह फिज़ाओं पे मुस्कुराती है।
मेरे नदीम मेरे हमसफर ....

जो अपने खून को पानी बना नहीं सकते
वो ज़िन्दगी में नया रंग ला नहीं सकते।
जो रास्ते के अन्धेरों से हार जाते हैं
वो मंज़िलों के उजालों को पा नहीं सकते।

मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो |

3 जुलाई 2017

त्रिवेणी: 770

बेहद सारगर्भित रसमय कविता त्रिवेणी: 770

भँवर..........निर्मला शर्मा 'निर्मल'










समुद्र की गहराई तक 
पहुँचने के लिए
मुझे इक भँवर चाहिए। 
लहरों के सहारे 
पार लग जाऊँ 
यह इच्छा नहीं है मेरी,
मुझे तो मंथन चाहिए 
अथाह प्यार चाहिए 
सागर की गहराई का 
जिसमें डूब कर 
उभर जाऊँ मैं।
-निर्मला शर्मा 'निर्मल'