ब्लौग सेतु....

20 नवंबर 2013

जीने की अभिलाषा

राजेश त्रिपाठी





एक अंकुर
चीर कर पाषाण का दिल
 बढ़ रहा आकाश छूने।
 जमाने के थपेड़ों से
 निडर और बेखौफ।
 उसके अस्त्र हैं दृढ़ विश्वास, 
अटूट लगन और 
बड़ा होने की उत्कट चाह। 
इसीलिए वह बना पाया
 पत्थर में भी राह। 
 उसका सपना है 
एक वृक्ष बनना, 
 आसमान को चीर
 ऊंचे और ऊंचे तनना। 
 बनना धूप में 
किसी तपते की छांह,
 अपने फलों से बुझाना
 किसी के पेट की आग।
 इसीलिए जाड़ा, गरमी,
 बारिश की मार सह रहा है वह
 जैसे दूसरों के लिए जीने की
 सीख दे रहा है वह।
 है नन्हा पर बड़े दिलवाला,
 इसीलिए बड़े सपने
 देख रहा है एक अंकुर।

14 नवंबर 2013

कविता

  उसने सोचा





राजेश त्रिपाठी

उसने सोचा

चलो खेलते हैं

एक अनोखा खेल

खेल राजा-प्रजा का

खेल ईनाम-सजा का।

वैसा ही

जैसे खेलते हैं बच्चे।

उसने सुना था

चाणक्य ने

राजा का खेल खेलते देख

किसी बच्चे को

बना दिया था चंद्रगुप्त मौर्य

दूर-दूर तक फैला था

जिसका शौर्य

उसने बनाया एक दल

कुछ हां-हुजूरों का

मिल गया बल

उनसे कहा,

आओ राजनीति-राजनीति खेले

सब हो गये राजी

बिछ गयीं राजनीति की बिसातें

राज करने को चाहिए था

एक देश

शायद वह भारत था

चाहें तो फिर कह सकते हैं इंडिया

या फिर हिंदुस्तान

यहीं परवान चढ़े

उस व्यक्ति के अरमान

राजनीति की सीढ़ी दर सीढ़ी

चढ़ता रहा

यानी अपनी एक नयी दुनिया गढ़ता रहा।

दुनिया जहां है फरेब,

जिसने ऊपर चढ़ने को दिया कंधा

उसे धकिया ऊपर चढ़ने का

यानी शातिर नेता बने रहने की राह में

कदम दर कदम चढ़ने का।

आज वह ‘राजा’ है

हर ओर बज रहा डंका है।

अब वह आदमी को नहीं

पैसे को पहचानता है,

जिनकी मदद से आगे बढ़ा

उन्हें तो कतई नहीं जानता,

इस मुकाम पर पहुंच

वह बहुत खुश है

राजनीति का खेल

बुरा तो नहीं,

उसने सोचा।

7 नवंबर 2013

मुल्क की ऐसी-तैसी हो रही

                          
     
 राजेश त्रिपाठी

 






वे कह रहे हैं मुल्क में है तरक्की हो रही।
तो फिर भला जनता क्यों है भूखी सो रही।।

कहते हैं कि रोशन हैं मुल्क का हर मकां।
झोंपड़ी गरीब की क्यों अंधेरे में सो रही।।

सियासत मुल्क की अब मतलब परस्त है।
हवा जब जैसे चले वैसे ही करवट ले रही।।

गर्त में जाये तो जाये मुल्क फिक्र क्या।
अपनी तो सुबहो-शाम अब रंगीं हो रही।।

आप ख्वाबों में अब तो जीना छोड़िए।
गौर कीजै मुल्क की ऐसी-तैसी हो रही।।

कानून किसको कहते हैं, है क्या पता।
हर कदम बदसलूकी, सीनाजोरी हो रही।।

हिंद का क्या हस्र कर डाला सियासत ने।
हर सिम्त कहर है, इनसानियत है रो रही।।

आपको गर फिकर है तो किब्लां जागिए।
मुल्क को लीजै बचा, देर वरना हो रही।।

वे मतलबी हैं इंसां को इंसा से बांट रहे।
इंसानियत मायूस है और दम तोड़ रही।।े

3 नवंबर 2013

 जाने कितने कैदखाने

राजेश त्रिपाठी

हमने अपने गिर्द

खड़े कर रखे हैं

जाने कितने कैदखाने

हम बंदी हैं

अपने विचारों के

आचारों के

न जाने कितने-कितने

सामाजिक विकारों के।

हमने खींच रखे हैं

कुछ तयशुदा दायरे

अपने गिर्द,

उनमें भटकते हम

भूल बैठे हैं कि

इनके पार

है अपार संसार।

उसकी नयनाभिराम सृष्टि,

उसके रंग, उसकी रौनक।

हम बस लगा कर

एक वाद का चश्मा

बस उसी से दुनिया

रहे हैं देख।

वाद का यह चश्मा

सिर्फ खास किस्म की

दुनिया लाता है सामने।

उसेक परे हम

कुछ नहीं देख पाते

या कहें देखना नहीं चाहते।

इस चश्मे का

अपना एक नजरिया है

अपना सिद्धांत है

यह क्रांति को ही

बदलाव का जरिया

मानता है

लेकिन बदलती दुनिया

कर चुकी है साबित

हर क्रांति धोखा है छलावा है

अगर उसमें इनसानी हित नहीं।

हम इन विचारों से आना है बाहर

हम आजाद हो जाना चाहते हैं

खास किस्म के वाद से

जो आदमी आदमी में

करता है फर्क

जो सुनना नहीं चाहता

कोई तर्क।

हम आजाद होना चाहते हैं

हर उस बंधन से

जो रच रखा है

हमने अपने गिर्द