ब्लौग सेतु....

29 अप्रैल 2014

क्या पाया क्या खोया हमने


                      राजेश त्रिपाठी
     
आओ करें हिसाब, क्या पाया क्या खोया हमने।
    कैसे-कैसे जुल्म सहे, किस-किस पर रोया हमने।।
संबंधों के गणित के कैसे-कैसे बदले समीकरण हैं।
किस-किस ने ठगा और कहां हमारी मात हुई है।।
कहां-कहां विश्वास है टूटा, किस लमहे घात हुई है।
मानवता कब-कब रोयी, आंखों से बरसात हुई है।।
     कब-कब टूटे किसी सुहागन के सिंदूरी सपने।
     कब-कब उसको शृंगार लगे शूल से चुभने।।
कब किसी मजलूम को हमने जुल्म में पिसते पाया है।
कब इनसान ने किया ऐसा, हैवान भी तब शरमाया है।।
यहां आदमी की अब बस पैसों से होती पहचान है।
हर एक ने बेच जिया यहां, जैसे अपना ईमान है।।
     गम की कहानी अब आंखों से बन आंसू लगी बहने।
     जाने अब सीधे इंसा को कितने गम होंगे सहने।।
आदमी का जीना मुहाल है, हर सिम्त नफरतों का अंधेरा घना है।
जिस तरफ देखो उस तरफ, जैसे मुश्किलों का माहौल तना है।।
हे प्रभु क्या हो रहा है, क्या यही वह गांधी का हिंदोस्तान  है।
जहां सच्चा इंसां रो रहा , मस्ती से जी रहा वहां शैतान है।।
     आओ अगर हो सके तो हम गढ़ें फिर नये सपने।
     जिससे मुल्क में फिर चैन की बंशी लगे बजने।।
    





25 अप्रैल 2014

मैं लिखता हूँ

सुलझी हुई ज़िन्दगी उलझाने के लिए लिखता हूँ
भरे हुए घाव कुरेदने के लिए लिखता हूँ !

कुछ सर्द एहसास दब से गयें है भीतर
उनका भी राग सुनाने के लिए लिखता हूँ !

लश्कर है फिरता ग़मों का इस ज़हन में
उन सबकी तरबियत के लिए लिखता हूँ !

घर घड़ी जो तमन्नायें उफान मारती हैं
उन्हें बहलाने फुसलाने के लिए लिखता हूँ !

मुझे खबर है किसी के इंतज़ार की
इसलिए नहीं चाहते हुए भी लिखता हूँ !

क्या मालूम कब रुक जाये नब्ज़े हयात
अपना भी रंग छोड़ जाने के लिए लिखता हूँ !

21 अप्रैल 2014

............. पहले से उजाले -- क्षमा जी :)

छोड़ दिया देखना कबसे
अपना आईना हमने!
बड़ा बेदर्द हो गया है,
पलट के पूछता है हमसे
कौन हो,हो कौन तुम?
पहचाना नही तुम्हे!
जो खो चुकी हूँ मैं
वही ढूंढता है मुझमे !
कहाँसे लाऊँ पहलेसे उजाले
बुझे हुए चेहरेपे अपने?
आया था कोई चाँद बनके
चाँदनी फैली थी मनमे
जब गया तो घरसे मेरे
ले गया सूरज साथ अपने !!!



लेखक परिचय -- क्षमा जी 

19 अप्रैल 2014

गाँव वैसे नहीं बदला

पिछले हफ्ते अरसो बाद अपना गाँव देखा।  सोचा था पूरा बदल गया होगा मगर पाया वही बचपन का गाँव कुछ नए जेवर पहने। उन यादों के एक हिस्से को ग़ज़ल में समेटने की कोशिश -

यहां लोगों का मिट्टी से रिश्ता बाकी है
पक्की सड़क से वो कच्चा रास्ता बाकी है !!

हर मुसीबत में लोग भागे चले आते हैं
आदमी का इंसानियत से राब्ता बाकी है  !!

एक पैर खड़ा बगुला वैसे हीं तकता है
कीचड़ में भी मछली ज़िंदा बाकी है !!

गाँव के बूढ़े भी नहीं जानते जिसकी उम्र 
उस बूढ़े पीपल पे अब भी पत्ता बाकी है !!

डाकिये को आज भी याद है सबका नाम 
पुराने मकान पे टंगा लाल डब्बा बाकी है !!

गाँव से बाहर बरगद के नीचे कुएं पे
सबके लिए एक बाल्टी रक्खा बाकी है !!

सूरज से पहले हीं लोगों को जगाता
मंदिर में लटका पुराना घन्टा बाकी है !!

सुबह सुबह खुली हवा में गाती कोयल 
शाम को लौटते तोते का जत्था बाकी है !!

पतली क्यारियों से होकर जाते हैं लोग वहाँ
खेतों के बीच देवी स्थान पे लहराता झंडा बाकी है !!

सुबह शाम उठता है धुँआ सब आँगन से
पक्के छत पे सूखता कच्चा घड़ा बाकी है !!

पुराने खम्भों पे नयी तारें बिछ गयी हैं
बिजली है फिर भी हाथ वाला पंखा बाकी है !!

फसलों की खशबू साथ ले चलती है हवा
उसमें अब भी वही निश्छलता बाकी है !!

पक्की सड़क से वो कच्चा रास्ता बाकी है !!

17 अप्रैल 2014

मैंने भी प्यार किया था

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http://rishabhpoem.blogspot.in/
जी हां हमको भी प्यार हुआ था,
उम्र 15  साल।
कद छोटा, रंग काला और थोड़ा मोटा,
जब पड़ा था इश्क का अकाल।।
जब फिल्मो के हीरो अमिताभ,
और विलेन था सकाल।
और जब मै नाई से,
कटवा रहा था अपने बाल।।
जब मै बाल कटवा रहा था,
तभी वहा बवाल।
नाई थोड़ा घबराया,
बाल की जगह कट गया मेरा गाल।।
मै भी जिज्ञासा वस बाहर आया,
तो देखा नया बवाल।
दो प्रेमी मित्र मना रहे थे,
नया-नया साल।।
दोनों ने एक दुसरे को कसके पकड़ा था,
तब मुझे आया एक ख्याल।
लोगो ने किया था,
उनको देखकर लोगो ने किया था बवाल।।
लेकिन उस बवाल को देखकर,
मेरे मन में आया प्यार का ख्याल।
मैंने भी प्यार करने की ठानी,
लेकिन मेरे मन में आया एक सवाल।।
मैंने अपने स्कूल में ही,
कर दिया बवाल।
स्कुल में देखा एक नया माल।।
मैंने फ्लट किया,
बड़े सुन्दर है आपके बाल ।
लगते है हमेशा,
संसद में लटके हुए लोकपाल।।
मैंने आगे झूठ बोला,
आपके सुन्दर और फुले हुए गाल।
कराते है मेरे मन में हमेशा,
कश्मीर जैसा बवाल।।
मैंने किया प्रेम का इजहार,
तो उसने कर दिए मेरे गाल लाल।
फिर वहा खड़े लोगो ने पिटा,
फिर उसने पूछा एक सवाल।।
वैसे तुमने किया क्या था,
जो उसने किया बवाल।
जो इन बेरहम लोगो ने कर दिया,
तेरा यह बुरा हाल।।
मैंने उन्हें बताया,
करना चाहा प्यार कर दिया यह हाल।
अरे अभी तेरी उम्र ही क्या है,
खुद को पागल बनने से  संभाल।।

गज़ल



आदमी!
क्या था क्या हो गया कहिए भला ये आदमी।
सीधा-सादा था, बन गया क्यों बला आदमी।।
अब भला खुलूस है कहां, जहरभरा है आदमी।
आदमी के काम आता , है कहां वो आदमी।।
था देवता-सा, है अब हैवान-सा क्यों आदमी।
बनते-बनते क्या बना,इतना बिगड़ा आदमी।।
मोहब्बत,  वो दया, कहां भूल गया आदमी।
नेक बंदा था, स्वार्थ में फूल गया आदमी।।
प्रेम क्या है, हया क्या, भूल गया  आदमी।
था कभी फूलों के जैसा, शूल हुआ आदमी।।
प्यास ना बुझा सके, वो  कूल हुआ आदमी।
सुधारा ना जा सके, वो भूल हुआ आदमी।।
इनकी करतूतें देख के, हलकान हुआ आदमी।
गुरूर में ऐंठा, धरती का भगवान हुआ आदमी।।
बुराइयों का पुतला बना, गिर गया है आदमी।
सच कहें बिन मौत ही, मर गया है आदमी।।
है वक्त अभी खुद को जरा, संभाल ले आदमी।
वरना नहीं मिलेगा,दुनिया में सच्चा आदमी।।
-राजेश त्रिपाठी

........... ना खुदाने सताया -- क्षमा जी :)

ना खुदाने सताया
ना मौतने रुलाया
रुलाया तो ज़िन्दगीने
मारा भी उसीने
ना शिकवा खुदासे
ना गिला मौतसे
थोडासा रहम  माँगा
तो वो जिन्दगीसे
वही ज़िद करती है,
जीनेपे अमादाभी
वही करती है...
मौत तो राहत है,
वो पलके चूमके
गहरी  नींद सुलाती है
ये तो ज़िंदगी है,
जो नींदे चुराती है
पर शिकायतसे भी
डरती हूँ उसकी,
गर कहीँ सुनले,
पलटके एक ऐसा
तमाचा जड़ दे
ना जीनेके काबिल रखे
ना मरनेकी इजाज़त दे......!!


लेखक -- क्षमा जी


15 अप्रैल 2014

आज का प्रेम

मनुष्य (इस संसार का सबसे अद्भुत प्राणी),
जिसका प्रेम प्रत्येक छण !
कलेंडर से जल्दी बदलता है,
और समय से भी तेज चलता है !!

औरत (संसार की सबसे रहस्यमय प्रजाती),
को देखते ही प्रेम में पड़ जाता है !
और फिर जनसंख्या और महंगाई,
से भी तेज बढता जाता है !!

पहले ही दिन अट्रैक्सन होता है,
फिर कनेक्सन होता है !
दूसरे ही दिन कन्वेंसन होता है,
और अंत में इस प्रेम नामक दवा,
की एक्सपायरी डेट ख़त्म हो जाती है !!

और फिर मनुष्य (मोबाईल फोन),
से औरत नामक सीम निकाल दी जाती है !
और फिर सस्ती, टिकाऊ  और सुन्दर ऑफर,
वाले सिम (महिला) की तलाश शुरू हो जाती है !!

और कभी - कभी तो यह,
'शादी' नामक ज्वार तक पहुँच जाती है !
और फिर 'तलाक' नामक भाटा पर,
आकर ख़त्म होती है !!

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14 अप्रैल 2014

काश कुछ ऐसा हो

काश कुछ ऐसा हो कि 
हम जो कह न पायें वो बात समझ जाओ
हम जो लिख न पायें वो जज्बात समझ जाओ
और जब पिघले ये दूरी
तुम वो रास्ता वो हालात समझ जाओ !

काश कुछ ऐसा हो कि
हम जो छोड़ न पायें वो निशाँ समझ जाओ
हम जो साथ न लायें वो कारवाँ समझ जाओ
मजबूरी दुनियादारी के बीच फसी
तुम वो अनकही दास्ताँ समझ जाओ !

काश कुछ ऐसा हो कि
हम जो देख न पायें वो ख्वाब समझ जाओ
हम जो समझ न पायें वो हिसाब समझ जाओ
बेअसर होती अपनी कहानी
तुम वो ज़िन्दगी की किताब समझ जाओ

काश कुछ ऐसा हो  कि
हम जो ला न पाये वो सौगात समझ जाओ
हम जो बचा न पाये वो आघात समझ जाओ
भीड़ में भटकती है परछाई अपनी
तुम वो साज़िश करती कायनात समझ जाओ !

4 अप्रैल 2014

--- मुल्क खामोश क्यों है -- क्षमा जी

दिलों में खुशी की कोंपल नहीं,
फिर ये मौसमे बहार क्यों है?
सूखे पड़े हैं पेड़ यहाँ,
इन्हें परिंदों का इंतज़ार क्यों है?
गुलों में शहद की बूँद तक नहीं,
इन्हें भौरों का इंतज़ार क्यों है?
दूरदूर तक दर्याये रेत है,
मुसाफिर तुझे पानी की तलाश क्यों है?
बेहरोंकी इस बेशर्म बस्तीमे ,
हिदायतों का शोर क्यों है?
कहते हैं,अमन-औ चैन का मुल्क है,
यहाँ दनादन बंदूक की आवाज़ क्यों है?
औरतको  देवी कहते हैं इस देश में,
सरेआम इसकी अस्मत  लुटती  है,
मुल्क फिर भी खामोश क्यों है ?

लेखक -- क्षमा जी