ब्लौग सेतु....

31 दिसंबर 2017

भिक्षुक.....सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"


वह आता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता 
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!
-सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
साभारः कविता कोश

30 दिसंबर 2017

पोल-खोलक यंत्र - अशोक चक्रधर


ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
....इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।

और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा...भी....जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्‌
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभीजी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।

लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।

एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।

ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
- वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
- और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।

ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!

साभार-कविता कोश 

29 दिसंबर 2017

जीवन की ही जय है....मैथिलीशरण गुप्त

मृषा मृत्यु का भय है
जीवन की ही जय है ।

जीव की जड़ जमा रहा है
नित नव वैभव कमा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।

नया जन्म ही जग पाता है
मरण मूढ़-सा रह जाता है
एक बीज सौ उपजाता है
सृष्टा बड़ा सदय है
जीवन की ही जय है।

जीवन पर सौ बार मरूँ मैं
क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं
यदि न उचित उपयोग करूँ मैं
तो फिर महाप्रलय है
जीवन की ही जय है।
-मैथिलीशरण गुप्त

साभार-कविता कोश 

28 दिसंबर 2017

तेरी यादों से रिहाई मिल जाये.....अनीता लागुरी(अनु)


लौट आना उस शहर में

दोबारा

जहाँ मेरी सांसें  अंतिम

कहलाईं 

जहां धुंध-धुंध जलती रही मैं

और दिल बर्फ़-सा रिसता रहा

नष्ट होता वजूद मेरा,

कहानियां​ कहता  रहा।

वो खेतों से गुज़रती

नन्हीं  पगडंडियां..!!

वो पनघट की उतरती-चढ़ती सीढ़ियां ।

जहाँ  अक्सर  तुम मेरे

अधरो की मौन भाषा

पढ़ा करते थे

और हमें देख

शर्म से लाल सूरज

छुप जाया करता था 

वो कोयली नदी का

हिम-सा पानी

जहां मेरे पैरो की बिछुए 

अक्सर  गुम हो जाया करते थे 

और तुम्हारे हाथों  का स्पर्श

मुझे सहला जाता था ह्रदय के कपाटों तक 

वो पनधट पर  हँसी-ठिठोली करती पनिहारिन

जिनकी चुहलबाज़ी 

तुम्हें परेशान किया करती थी 

और तुम मेरा हाथ थामे

चल देते थे 

क्रोध की ज्वाला लिए...

और मैं  हँस पड़ती 

मानो मुझे कोई  ...

तुमसे छीन ले  चला....!!

एक और बार चले आओ ..... 

उस शहर में दोबारा

जहां हर दीवार पर 

तुमने नाम मेरा लिखा था

शायद रुह को मेरी

तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!

#अनीता लागुरी (अनु)

27 दिसंबर 2017

सब कुछ अब बेपरदा है.......डॉ. विमल किशोर ढौंडियाल

सिकत नाव चलाता हूँ
किससे कहूँ क्या छिपाउँ
सब कुछ अब बेपरदा है
लव सिले हैं वदन मौन है
क्यों आगोश में जलजला है?

डूब रही है कश्ती मेरी
खींच रहा भँवर इस कदर
क्या मिट जाएगी हस्ती मेरी?
मैंने तो गुलसिताँ सजाया था सपनों का
तेरे आँसुओं के सैलाब में
क्यों उजड रही है बस्ती मेरी?

पैगंबर के पैगाम को
ताउम्र निभाने का वादा था
हमराही माना था तुझको
क्या गुनाह बस इतना था?

खुदानाम का
खौफ दिखाकर
रोका तुझको
बिलख बिलख कर

पर तू मस्त कुरंग सी
बगिया मेरी बंजर करने
आई गर्वित सज्जित होकर
म्रत्युदूत के संग सी

अब मैं बस पछताता हूँ
रोकना चाहता हूं तुझको
जलताडन मैं करता हूँ
सलिल अग्नि से
भय खाकर अब
सिकत नाव चलाता हूँ
-डॉ. विमल किशोर ढौंडियाल 

26 दिसंबर 2017

सतरंगी सँसार.....डॉ. इन्दिरा गुप्ता

अतरंगी सा रंग रहा 
सतरंगी सँसार 
सहस्त्र रंग का हो रहा 
निश दिन कारोबार ! 

हर रंग खिल खिल कहे 
काहे पँख पसारे नाय 
बेरंगी सँसार को 
पल मै रंग दे आय ! 

पवन बहे परवाज़ रंग 
नदी निरन्तरता नीर 
पाहन चढ़ चट्टान को 
रंग देते कर्मठ वीर ! 

दुख सुख और अवसाद के 
होते रंग हजार 
छाये जब सँतोष रंग 
सब मिल एक रंग बन जाये ! 
डॉ.इन्दिरा गुप्ता ✍

25 दिसंबर 2017

फिर शहर जला दिया ......डॉ.विमल ढौंडियाल

आज फिर तुमने शहर जला दिया
हरि भूमि राह देख रही
मृत्यु ताण्डव झेल रही
आस की हर साँस में
पाञ्चजन्य पुकार रही
कृष्ण की इस धर्मधरा पर
क्यों फिर रक्त बहा दिया
आज फिर तुमने शहर जला दिया |

चीर फिर लहरा रहा
भीम उर को चीर रहा
कौरव हैं निस्तब्ध नि:शब्द
पाण्डव बिगुल बजा रहा
दुशासन के हाथ बचाने 
याज्ञसैनी को जला दिया
आज फिर तुमने शहर जला दिया
-डॉ.विमल ढौंडियाल 

24 दिसंबर 2017

हसरतों की बरातों को जगह नहीं है ....बदरुल अहमद

इस दिल से तल्ख़ यादों को मिटा दे 
हसरतों को तू कोई और जगह दे 

इंसान की काठी कमजोर बहुत है 
मिटटी में इसकी कुछ और मिला दे 

हसरतों की बरातों को जगह नहीं है 
शैतानो की बस्ती को शमशान बना दे 

ऐ औरों के खुदा "अहमद" की तमन्ना है 
जो कर सके प्यार, वो इंसान बना दे

-बदरुल अहमद


23 दिसंबर 2017

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं.....राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये व्यवहार नहीं
धरा ठिठुरती है सर्दी से
आकाश में कोहरा गहरा है
बाग़ बाज़ारों की सरहद पर
सर्द हवा का पहरा है
सूना है प्रकृति का आँगन
कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं
हर कोई है घर में दुबका हुआ
नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं
चंद मास अभी इंतज़ार करो
निज मन में तनिक विचार करो
नये साल नया कुछ हो तो सही
क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही
उल्लास मंद है जन -मन का
आयी है अभी बहार नहीं
ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
ये धुंध कुहासा छंटने दो
रातों का राज्य सिमटने दो
प्रकृति का रूप निखरने दो
फागुन का रंग बिखरने दो
प्रकृति दुल्हन का रूप धार
जब स्नेह – सुधा बरसायेगी
शस्य – श्यामला धरती माता
घर -घर खुशहाली लायेगी
तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि
नव वर्ष मनाया जायेगा
आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर
जय गान सुनाया जायेगा
युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध
नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध
आर्यों की कीर्ति सदा -सदा
नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
अनमोल विरासत के धनिकों को
चाहिये कोई उधार नहीं
ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं   

-राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर 

22 दिसंबर 2017

आज मैं माँ हूँ....निधि सिंघल

अक्सर माँ डिब्बे में भरती रहती थी 
कंभी मठरियां , मैदे के नमकीन 
तले हुए काजू ..और कंभी मूंगफली 
तो कभी कंभी बेसन के लड्डू 
आहा ..कंभी खट्टे मीठे लेमनचूस 

थोड़ी थोड़ी कटोरियों में 
जब सारे भाई बहनों को 
एक सा मिलता 
न कम न ज्यादा 
तो अक्सर यही ख्याल आता 
माँ ..ना सब नाप कर देती हैं 
काश मेरी कटोरी में थोड़ा ज्यादा आता 
फिर सवाल कुलबुलाता 
माँ होना कितना अच्छा है ना 
ऊँचा कद लंबे हाथ 
ना किसी से पूछना ना किसी से माँगना 
रसोई की अलमारी खोलना कितना है आसान 
जब मर्जी खोलो और खा लो 

लेकिन रह रह सवाल कौंधता 
पर माँ को तो कभी खाते नहीं देखा 
ओह शायद 
तब खाती होगी जब हम स्कूल चले जाते होगे 
या फिर रात में हमारे सोने के बाद 
पर ये भी लगता ये डिब्बे तो वैसे ही रहते 
कंभी कम नही होते 
छुप छुप कर भी देखा 
माँ ने डिब्बे जमाये करीने से 
बिन खाये मठरी नमकीन या लडडू 
ओह्ह..... 
अब समझी शायद माँ को ये सब है नही पसन्द 
एक दिन माँ को पूछा माँ तुम्हें लड्डू नही पसन्द 
माँ हँसी और बोली 
बहुत है पसन्द और खट्टी मीठी लेमनचूस भी 
अब माँ बनी पहेली 
अब जो सवाल मन मन में था पूछा मैंने 
माँ तुमको जब है सब पसन्द 
तो क्यों नही खाती 
क्या डरती हो पापा से 
माँ हँसी पगली 
मैं भी खूब खाती थी जब मै बेटी थी 
अब माँ हूँ जब तुम खाते हो तब मेरा पेट भरता है 
अच्छा छोडो जाओ खेलो 
जब तुम बड़ी हो जाओगी सब समझ जाओगी 

आज इतने अरसे बाद 
बच्चे  की पसन्द की चीजें भर रही हूँ 
सुन्दर खूबसूरत डिब्बों में 
मन हीं मन बचपन याद कर रही 
सच कहा था माँ ने 
माँ बनकर हीं जानोगी 
माँ का धैर्य माँ का प्यार माँ का संयम 
सच है माँ की भूख बच्चे संग जुड़ी है
आज मैं माँ हूँ ....
- निधि सिंघल

21 दिसंबर 2017

ये दिलासा...तरुणा मिश्रा

मुझे आज इतना दिलासा बहुत है..
कि उसने कभी मुझको चाहा बहुत है ;

उसी की कहानी उसी की हैं नज़्में...
उसी को ग़ज़ल में उतारा बहुत है ;

बड़ी सादगी से किया नाम मेरे...
तभी दिल मुझे उसका प्यारा बहुत है ;

उठाओ न ख़ंजर मेरे क़त्ल को तुम...
मुझे तो नज़र का इशारा बहुत है ;

किसी और से कोई पहचान क्या हो...
सितमगर वही एक भाया बहुत है ;

सिवा उसके कोई नहीं आज मेरा....
वही दर वही इक ठिकाना बहुत है ;

गले तो मिले दिल मिलाते नहीं हैं...
ज़माने में यारों दिखावा बहुत है ;

निग़ाहें मिलाते अगर सिर्फ़ हम से...
यक़ीनन ये कहते भरोसा बहुत है ;

ज़माने का आख़िर भरोसा ही क्या है....
फ़क़त इक तुम्हारा सहारा बहुत है ;

लुटाए हुए आज बैठी हूँ ख़ुद को ..
मुहब्बत करो तो ख़सारा बहुत है ;

तुम्हें पा लिया है ज़माना गंवा कर..
मेरे वास्ते ये असासा बहुत है ;

कड़ी धूप का है ज़माना ये ‘तरुणा’...
मुझे उसकी पलकों का साया बहुत है...!!
-'तरुणा'..!!!

20 दिसंबर 2017

विधवा

नियति के क्रूर हाथों ने
ला पटका खुशियों से दूर,
बहे नयन से अश्रु अविरल
पलकें भींगने को मजबूर।

भरी कलाई,सिंदूर की रेखा
है चौखट पर बिखरी टूट के
काहे साजन मौन हो गये
चले गये किस लोक रूठ के
किससे बोलूँ हाल हृदय के
आँख मूँद ली चैन लूट के

छलकी है सपनीली अँखियाँ
रोये घर का कोना-कोना
हाथ पकड़कर लाये थे तुम
साथ छूटा हरपल का रोना
जनम बंध रह गया अधूरा
रब ही जाने रब का टोना

जीवन के कंटक राहों में
तुम बिन कैसे चल पाऊँगी?
तम भरे मन के झंझावात में
दीपक मैं कहाँ जलाऊँगी?
सुनो, न तुम वापस आ जाओ
तुम बिन न जी पाऊँगी

रक्तिम हुई क्षितिज सिंदूरी
आज साँझ ने माँग सजाई
तन-मन श्वेत वसन में लिपटे 
रंग देख कर आए रूलाई
रून-झुन,लक-दक फिरती 'वो',
ब्याहता अब 'विधवा' कहलाई

19 दिसंबर 2017

अश्क़ का रुपहला धुआँ

    बीते वक़्त की
एक मौज लौट आई, 
आपकी हथेलियों पर रची
हिना फिर खिलखिलाई। 

मेरे हाथ पर 
अपनी हथेली रखकर 
दिखाए थे 
हिना  के  ख़ूबसूरत  रंग, 
बज उठा था 
ह्रदय में 
अरमानों का जल तरंग।




छायी दिल-ओ-दिमाग़ पर 


कुछ इस तरह भीनी महक-ए-हिना, 


सारे तकल्लुफ़ परे रख ज़ेहन ने 


तेज़ धड़कनों को बार-बार गिना।   

निगाह 
दूर-दूर तक गयी, 
स्वप्निल अर्थों के 
ख़्वाब लेकर लौट आयी। 

लबों पर तिरती मुस्कराहट 
उतर गयी दिल की गहराइयों में, 
गुज़रने लगी तस्वीर-ए-तसव्वुर 
एहसासों की अंगड़ाइयों में।

एक मोती उठाया 
ह्रदय तल  की गहराइयों से, 
आरज़ू के जाल में उलझाया 
उर्मिल ऊर्जा की लहरियों से। 
उठा ऊपर आँख से टपका गिरा........ 

रंग-ए-हिना से सजी हथेली पर, 
अश्क़  का रुपहला धुआँ लगा ज्यों 
चाँद उतर आया हो ज़मीं  पर ........! 

#रवीन्द्र सिंह यादव