कहा छोड़ी कसर तुमने मुहब्बत को मिटाने मे ।
मुझे भी वक़्त थोड़ा चाहिए तुमको भूल जाने मे ।।
जुदा वो आरजू होती रही हर रोज़ बेमतलब ।
कई अरसे मुझे भी लग गये जिसको मनाने मे ।।
यहाँ हर रोज कोई आबरू दम तोड़ देती है ।
कहा इंसानियत अब रह गयी है इस जमाने मे ।।
निकलना है तुम्हे निकलो अभी दिन के उजालो मे ।
मजा आता बहुत अंधेरे को इज्जत लुटाने मे ।।
गले की चीख बन जाये कभी खामोशिया गर तो ।
बड़ा फिर जोर लगता है इन्हे तब चुप कराने मे ।।
---- हिमांशु मित्रा 'रवि'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-12-2017) को "महँगा आलू-प्याज" (चर्चा अंक-2812) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'