बीते वक़्त की
एक मौज लौट आई,
आपकी हथेलियों पर रची
हिना फिर खिलखिलाई।
मेरे हाथ पर
अपनी हथेली रखकर
दिखाए थे
हिना के ख़ूबसूरत रंग,
बज उठा था
ह्रदय में
अरमानों का जल तरंग।
छायी दिल-ओ-दिमाग़ पर
कुछ इस तरह भीनी महक-ए-हिना,
सारे तकल्लुफ़ परे रख ज़ेहन ने
तेज़ धड़कनों को बार-बार गिना।
निगाह
दूर-दूर तक गयी,
स्वप्निल अर्थों के
ख़्वाब लेकर लौट आयी।
लबों पर तिरती मुस्कराहट
उतर गयी दिल की गहराइयों में,
गुज़रने लगी तस्वीर-ए-तसव्वुर
एहसासों की अंगड़ाइयों में।
एक मोती उठाया
ह्रदय तल की गहराइयों से,
आरज़ू के जाल में उलझाया
उर्मिल ऊर्जा की लहरियों से।
उठा ऊपर आँख से टपका गिरा........
रंग-ए-हिना से सजी हथेली पर,
अश्क़ का रुपहला धुआँ लगा ज्यों
चाँद उतर आया हो ज़मीं पर ........!
#रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत ही सुंदर....आभार आप का.....
जवाब देंहटाएंआभार आपका कुलदीप जी मनोबल बढ़ता है आपकी प्रतिक्रियाओं से।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-12-2017) को "शीत की बयार है" (चर्चा अंक-2823) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी रचना को चर्चामंच में स्थान देने के लिए। हार्दिक प्रसन्नता होती है जब रचना चर्चामंच जैसे प्रतिष्ठित मंच पर पाठकों के समक्ष उपलब्ध होती है। सादर।
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