दोबारा
जहाँ मेरी सांसें अंतिम
कहलाईं
जहां धुंध-धुंध जलती रही मैं
और दिल बर्फ़-सा रिसता रहा
नष्ट होता वजूद मेरा,
कहानियां कहता रहा।
वो खेतों से गुज़रती
नन्हीं पगडंडियां..!!
वो पनघट की उतरती-चढ़ती सीढ़ियां ।
जहाँ अक्सर तुम मेरे
अधरो की मौन भाषा
पढ़ा करते थे
और हमें देख
शर्म से लाल सूरज
छुप जाया करता था
वो कोयली नदी का
हिम-सा पानी
जहां मेरे पैरो की बिछुए
अक्सर गुम हो जाया करते थे
और तुम्हारे हाथों का स्पर्श
मुझे सहला जाता था ह्रदय के कपाटों तक
वो पनधट पर हँसी-ठिठोली करती पनिहारिन
जिनकी चुहलबाज़ी
तुम्हें परेशान किया करती थी
और तुम मेरा हाथ थामे
चल देते थे
क्रोध की ज्वाला लिए...
और मैं हँस पड़ती
मानो मुझे कोई ...
तुमसे छीन ले चला....!!
एक और बार चले आओ .....
उस शहर में दोबारा
जहां हर दीवार पर
तुमने नाम मेरा लिखा था
शायद रुह को मेरी
तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!
#अनीता लागुरी (अनु)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-12-2017) को "गालिब के नाम" (चर्चा अंक-2832) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
क्रिसमस हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सफल कवित्व
जवाब देंहटाएंबहुत ही बसुंदर....आभार आदरणीय आप का....
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंएक और बार चले आओ .....
उस शहर में दोबारा
जहां हर दीवार पर
तुमने नाम मेरा लिखा था
शायद रुह को मेरी
तेरी यादों से रिहाई मिल जाए..!!!
बहुत सुंदर।