ब्लौग सेतु....

13 दिसंबर 2017

हुस्न



देख कर चंदा को शब में एक शावक बोलता।
ओ ! मेरी मैया बता तू हुस्न आख़िर चीज़ क्या?

हुस्न क्या बाज़ार बिकता या कि ठेलों पे मिला।
आइने को देख इंसां क्यों भला है कोसता?

माँगती गोरी है अक्सर हुस्न उसको दे खुदा।
हुस्न आख़िर क्या बला है तू ज़रा जल्दी बता।

तूने अक्सर ही कहा है हुस्न अच्छी बात में।
और चंदा से सजी ऐसी ही प्यारी रात में।

जिसमें झींगुर गा रहा हो बिन किसी संगीत के।
माँगती जिसमें हो राधा ,एक दिन बस कृशन से।

हुस्न क्या कोई खिलौना जिसको बच्चा माँगता।
और पाकर माँ से अपनी जो बहुत इठला रहा।

चोंच से दाना खिलाकर माँ बहुत इतरा चली।
प्यार से चुग्गे से बोली, "मैं रुको बतला रही।"

पर मियां पहले बताओ आज आख़िर क्या हुआ।
बेतुके से प्रश्न सहसा आज क्यों है पूछता?

शर्म से नज़रे झुका कर चुग्गा फिर हँसने लगा।
घोंसले पर सर लगाकर चुग्गा फिर छिपने लगा।

बोला,"पीपल के तले माँ ,एक आशिक़ कह रहा।
ओ ! मेरी माशूक तुमको हुस्न अल्ला ने दिया।

तब से कुछ ना कुछ सुना है हुस्न के बारे में माँ।
खोजता तब से हुँ इसको रहता आख़िर ये कहाँ ?

बात पे कुछ ग़ौर करके माँ ने चुग्गे से कहा।
"इस जहां में हर तरफ ही हुस्न है बिखरा हुआ।

उसका केवल एक पहलू ही जहां है देखता।
हुस्न को बस जिस्म से सारा जहां है जोड़ता।

हुस्न दुनिया से परे है ये नहीं साकार है।
हुस्न तो इक भावना जिसमें छिपा संसार है।

हुस्न को ही रात भर कवि, काव्य में लिखता रहे।
भोर में सीने लगाकर, चूम कर रोने लगे।

हुस्न परवाने की आँखों में है सदियों से छिपा।
जो सिखा देता उसे है इश्क़ का हर फ़लसफ़ा।

हुस्न मीठे दर्द में जिसमें खड़ी वो पास है।
आँसुओं में भीगना भी हुस्न का आभास है।

हुस्न है उस रात में जिसमें मिटा हर भेद है।
कल्पना सदियों से जिसकी कर रहा बस वेद है।

हुस्न है उस शर्म में जिसमें देहातिन छिप रही।
जब कभी खाँसी सुनाई दे रही है जेठ की।

गाँव की गोरी से जाकर मर्द को जब पूछना।
शर्म से उनका लजाना हुस्न ही है इक नया।

हुस्न है उस रात में जो पागलों सी हो गई।
और प्रिय को खोजती सड़कों पे अक्सर घूमती।

हुस्न है उस आँख में जो दर्द सबका देखती।
विश्व को खुद में समाकर और सब-कुछ भूलती।

थक गया चुग्गा बिचारा ऊँघने सा लग गया।
फिर भी माँ की बात सारी ध्यान से सुनता रहा।

माँ ने आगे फिर कहा ये " हुस्न ही का नूर है।
बेपिये ही मैकदे का शख़्स देखो चूर है।"

इस लिए बेटा ! सुनो तुम हुस्न को मत बाँधना।
ध्यान साँसों पे लगा धीरे से इसको साधना।

राह इसकी है कठिन पर शून्य सा विस्तार है।
ये मिला तो मिल गया समझो तुम्हें संसार है।

बात माँ की सुन रहा चुग्गा कहीं फिर खो गया।
इस से पहले माँ कहे चुग्गा खिसक कर सो गया।


- प्रणव मिश्र'तेजस'

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