ब्लौग सेतु....

30 जून 2017

गीत

बचा लो मेरा हिंदुस्तान

राजेश त्रिपाठी
ऐ मेरे प्यारे खुदा ऐ मेरे भगवान, बचा लो मेरा हिंदुस्तान।
        कुछ नासमझों की हरकत से तेरे बंदे हैं बेहद हलकान ।। (बचा लो)

कुछ  बंदे  अकल के  अंधे करते हैं मनमानी।
भूल  रहे इस देश के वासी हैं पहले हिंदुस्तानी।। 
जाति-धर्म  के  पचड़े में फंस करते हैं नादानी।
अपने  ही  भाई को  मारें कैसे हैं ये प्राणी ।।

जाने किस गफलत में डूबे इनका खोया धर्म- ईमान। (बचा लो)
सबको बराबरी का हक देता अपना देश स्वतंत्र।
धर्म-कर्म की  यहां आजादी  ये ऐसा गणतंत्र।।
लेके लुकाटी निकल पड़े यहां अभी कुछ लोग।
लोगों के घर-द्वार जलाते बढ़ता जाता है रोग।।

रोके से भी नहीं रुक रही इन बड़बोलों की जुबान। (बचा लो)
कौन क्या पहने, क्या खाये है इसकी आजादी।
इसको लेकर जुल्म ढा रहे करते हैं बरबादी।।
चहुंदिशि हाहाकार मचा है टूट रहा  विश्वास ।
गणतांत्रिक देश की खातिर बुरा है यह एहसास।।

इससे ताशमहल से ध्वस्त हो रहे जनता के अरमान।।  (बचा लो)
ड्रैगन आंख तरेर रहा है, पाक करे हरकत नापाक।
दुश्मनों से घिरा देश है जो करना चाहें इसको खाक।।
अपने भी  कर रहे हैं ऐसा कि देश हुआ है अशांत।
ऐसे में  तो  यही कहेंगे ये हैं बुद्धि से उद्भ्रांत ।।


समरसता के अमृत में विष घोलें ये हैं ऐसे अनजान।। (बचा लो)

महक-सी आ रही है साज़िशों की.....नकुल गौतम


झड़ी जब लग रही हो आँसुओं की
कमी महसूस क्या हो बदलियों की

हवेली थी यहीं कुछ साल पहले
जुड़ी छत कह रही है इन घरों की

वो मुझ पर मेहरबां है आज क्यों
महक-सी आ रही है साज़िशों की

मुझे पहले मुहब्बत हो चुकी है
मुझे आदत है ऐसे हादसों की

अदालत आ गए इंसाफ़ लेने
मती मारी गयी थी मुफ़लिसों की

चले हैं जंग लड़ने दोपहर में
ज़रा हिम्मत तो देखो जुगनुओं की

हमारा वक़्त भी अब आता होगा
'नकुल' बस देर है अच्छे दिनों की
-नकुल गौतम

27 जून 2017

फितूर था

तेरी निगाहों के नूर से दिल मेरा मगरूर था

भरम टूटा तो जाना ये दो पल का सुरूर था


परिंदा दिल का तेरी ख्वाहिश में मचलता रहा

नादां न समझ पाया कभी चाँद बहुत दूर था


एक ख्वाब मासूम सा पलकों से गिरकर टूट गया

अश्कों ने बताया ये बस मेरे दिल का फितूर था


चाहकर भी न मुस्कुरा सके वो  दर्द इतना दे गये

जज़्बात हम सम्हाल पाते इतना भी न शऊर था


दिल की हर दुआ में बस उनकी खुशी की चाह की

इतनी शिद्दत से इबादत कर ली यही मेरा कुसूर था


     #श्वेता🍁


क़ैद करोगे अंधकार में / पाश



क्या-क्या नहीं है मेरे पास
शाम की रिमझिम
नूर में चमकती ज़िंदगी
लेकिन मैं हूं
घिरा हुआ अपनों से
क्या झपट लेगा कोई मुझ से
रात में क्या किसी अनजान में
अंधकार में क़ैद कर देंगे
मसल देंगे क्या
जीवन से जीवन
अपनों में से मुझ को क्या कर देंगे अलहदा
और अपनों में से ही मुझे बाहर छिटका देंगे
छिटकी इस पोटली में क़ैद है आपकी मौत का इंतज़ाम
अकूत हूँ सब कुछ हैं मेरे पास
जिसे देखकर तुम समझते हो कुछ नहीं उसमें



26 जून 2017

अँधेरे में रौशनी की किरण – हेलेन केलर

27 जून 1880 - 1 जून 1968
कहते हैं जब सारे  दरवाजे बंद हो जाते हैं तो भगवान एक खिड़की खोल देता है , लेकिन अक्सर हम बंद हुए दरवाजे की ओर इतनी देर तक देखते रह जाते हैं कि खुली हुई खिड़की की ओर हमारी दृष्टी भी नही जाती। ऐसी परिस्थिति में जो अपनी दृण इच्छाशक्ति से असंभव को संभव बना देते हैं, वो अमर हो जाते हैं।दृण संकल्प वह महान शक्ति है जो मानव की आंतरिक शक्तियों को विकसित कर प्रगति पथ पर सफलता की इबारत लिखती है। मनुष्य के मजबूत इरादे दृष्टीदोष, मूक तथा बधिरता को भी परास्त कर देते हैं। अनगिनत लोगों की प्रेरणा स्रोत, नारी जाति का गौरव मिस हेलेन केलर शरीर से अपंग पर मन से समर्थ महिला थीं। उनकी दृण इच्छा शक्ति ने दृष्टीबाधिता, मूक तथा बधिरता को पराजित कर नई प्रेरणा शक्ति को जन्म दिया।

27 जून 1880 को जन्म लेने वाली ये बालिका 6 महिने में घुटनो चलने लगी और एक वर्ष की होने पर बोलने लगी। जब 19 माह की हुईं तो एक साधारण से ज्वर ने हँसती-खेलती जिंदगी को ग्रहण लगा दिया। ज्वर तो ठीक हो गया किन्तु उसने हेलन केलर को दृष्टीहीन तथा बधिर बना दिया। सुन न सकने की स्थिती में बोलना भी असंभव हो जाता है। माता-पिता बेटी की ये स्थिती देखकर अत्यधिक दुःखी हो गये। ऐसा लगने लगा कि उनकी पुत्री पर किसी ने मुश्किंलो का वज्रपात कर दिया हो। हेलन का बचपन कठिन दौर से गुजरने लगा, किसी को आशा भी न थी कि कभी स्थिति सुधर भी सकती है।

एक दिन हेलेन की माँ समाचार पत्र पढ रहीं थीं, तभी उनकी नजर बोस्टन की परकिन्स संस्था पर पङी। उन्होने पुरा विवरण पढा। उसको पढते ही उनके चेहरे पर प्रसन्नता की एक लहर दौङ गई और उन्होने अपनी पुत्री हेलन का दुलार करते हुए कहा कि अब शायद मुश्किलों का समाधान हो जाए। हेलन के पिता ने परकिन्स संस्था की संरक्षिका से अनुरोध किया जिससे वे हेलेन को घर आकर पढाने लगी। यहीं से हेलेन केलर की जिंदगी में परिर्वन शुरु हुआ। केलर की अध्यापिका सुलीवान बहुत मुश्किलों से उन्हे वर्णमाला का ज्ञान करा सकीं। एक-एक अक्षर को केलर कई-कई घंटो दोहराती थीं, तब कहीं जाकर वे याद होते थे। धीरे -धीरे वे बोलने का भी अभ्यास करने लगीं जिसमें उन्हें आंशिक सफलता प्राप्त हुई। हेलेन की इस सफलता के पीछे उनका संकल्प बल कार्य कर रहा था। कठिन परिश्रम के बल पर उन्होने लैटिन, फ्रेंच और जर्मन भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। 8 वर्षों के घोर परिश्रम से उन्होने स्नातक की डिग्री प्राप्त कर ली थी। उन्हे सारे संसार में लोग जानने लगे थे। आत्मा के प्रकाश से वे सब देख सकती थीं तथा बधिर होते हुए भी संगीत की धुन सुन सकती थीं। उनका हर सपना रंगीन था और कल्पना र्स्वणिम थी।

सुलिवान उनकी शिक्षिका ही नही, वरन् जीवन संगनी जैसे थीं। उनकी सहायता से ही हेलेन केलर ने टालस्टाय, कार्लमार्क्स, नीत्शे, रविन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी और अरस्तू जैसे विचारकों के साहित्य को पढा। हेलेन केलर ने ब्रेल लिपि में कई पुस्तकों का अनुवाद किया और मौलिक ग्रंथ भी लिखे। उनके द्वारा लिखित आत्मकथा ‘मेरी जीवन कहानी’ संसार की 50 भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है।

अल्पआयु में ही पिता की मृत्यु हो जाने पर प्रसिद्ध विचारक मार्कट्वेन ने कहा कि, केलर मेरी इच्छा है कि तुम्हारी पढाई के लिए अपने मित्रों से कुछ धन एकत्रित करूँ। केलर के स्वाभिमान को धक्का लगा। सहज होते हुए मृदुल स्वर में उन्होने मार्कट्वेन से कहा कि यदि आप चन्दा करना चाहते हैं तो मुझ जैसे विकलांग बच्चों के लिए किजीए, मेरे लिए नही।

एक बार हेलेन केलर ने एक चाय पार्टी का आयोजन रखा, वहाँ उपस्थित लोगों को उन्होने विकलांग लोगों की मदद की बात समझाई। चन्द मिनटों में हजारों डॉलर सेवा के लिए एकत्र हो गया। हेलेन केलर इस धन को लेकर साहित्यकार विचारक मार्कट्वेन के पास गईं और कहा कि इस धन को भी आप सहायता कोष में जमा कर लिजीए। इतना सुनते ही मार्कट्वेन के मुख से निकला, संसार का अद्भुत आश्चर्य। ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि हेलेन केलर संसार का महानतम आश्चर्य हैं।


मार्कट्वेन ने कहा था किः- 
19वीं शताब्दी के दो सबसे दिलचस्प व्यक्ति हैं, 
“नेपोलियन और हेलेन केलर”

हेलेन केलर पूरे विश्व में 6 बार घूमीं और विकलांग व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण वातावरण का निर्माण किया। उन्होने करोङों रूपये की धन राशि एकत्र करके विकलांगो के लिए अनेक संस्थानो का निर्माण करवाया। दान की राशि का एक रुपया भी वे अपने लिए खर्च नही करती थीं।

विश्व की अनेक विभूतियों से उनकी मुलाकात हुई थी। मुलाकात के दौरान रविन्द्रनाथ टैगोर तथा पं. जवाहरलाल नेहरु से वे बहुत प्रभावित हुईं थीं। हेलेन केलर की मस्तिष्क शक्ति इतनी जागरुक थी कि वे आगंतुक की पदचाप से ही उसके बारे में बहुत कुछ बता देती थीं। वे विभिन्न रंगो को स्पर्श करके पहचान लेती थीं। ‘एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा आप मात्र 19 महिने की थीं जब दिखाई देना बंद हो गया था, तो आप दिन रात कैसे बता पाती हैं। हेलेन केलर का उत्तर विज्ञान सम्मत था, उन्होने कहा कि – दिन में हलचल अधिक होती है। हवा का प्रवाह मंद रहता है। वातावरण में कंपन बढ जाती है और शाम को वातावरण शांत तथा कंपन मंद हो जाती है।‘

विज्ञान ने आज भले ही बहुत उन्नति कर ली हो, लगभग सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली हो किन्तु वे अभी भी सबसे खतरनाक शत्रु पर विजय पाने में असर्मथ है, वह शत्रु है मनुष्य की उदासीनता। विकलांग लोगों के प्रति जन साधारण की उदासीनता से हेलेन केलर बहुत दुःखी रहती थीं।

हेलेन केलर का कहना था किः- हमें सच्ची खुशी तबतक नही मिल सकती जबतक हम दूसरों की जिंदगी को खुशगवार बनाने की कोशिश नही करते। हेलेन केलर ने अंधे व्यक्तियों के हित के लिए उन्हे शिक्षित करने की जोरदार वकालत की।

हेलेन केलर को घोङे की सवारी करना बहुत प्रिय था। जब वे घोङे पर बैठकर हवा से बातें करती तो लोगों का ह्रदय अशुभ आशंका की ओर चला जाता। परंतु हेलेन केलर ने दृष्टीबाधिता के बावजूद सभी दिशाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। प्रभु के चरणों में जीवन का भार सौंपने वाली हेलेन केलर हमेशा निश्चिंत रहती थीं।

हेलेन केलर का कथन था किः- विश्वास ही वह शक्ति है जिसकी बदौलत ध्वस्त हुआ संसार भी सुख की रौशनी से आबाद हो सकता है।

1943 में,द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हेलेन देश भर के सैनिक अस्पतालों में घूम-घूमकर अंधे, गूंगे तथा बहरे सैनिकों से मिलती रहीं। 1946 में ‘अमेरीकन ब्रेल प्रेस’ को ‘द अमेरीकन फाउनडेशन फॉर ओवरसीज ब्लाइंड ’ नाम दिया गया। जो आज ‘हेलेन केलर इंटरनेशनल’ के नाम से जाना जाता है।

स्वालंबन उनके जीवन का प्रमुख गुण था। भोजन बनाना, वस्त्र पहनना, तथा साफ-सफाई के सभी कार्य़ वे स्वयं करती थीं। 1 जून 1968 को ह्रदय का दौरा पङने से वो इस संसार से विदा हो गईं, परन्तु उनका जीवन प्रत्येक मानव को जन्म-जन्मांतर तक प्रेरणा देता रहेगा। पुरूषार्थ का महत्व बताने वाली हेलेन केलर ने मानवीय चरित्र को नई गरिमा ही नही बल्कि मानव पुष्प को नई सुगंध से सुगंधित किया है। हिम्मत और हौसले की मिसाल हेलेन केलर का सम्पूर्ण जीवन हम सभी के लिए एक उदाहरण है।

हेलेन केलर के सम्मान में मेरे श्रद्धा शब्द सुमनः-


आँधियों को जिद्द थी जहाँ बिजलियाँ गिराने की,
हेलेन केलर को जिद्द थी वहीँ आशियाँ बनाने की।


(हेलेन केलर पर हिन्दी सिनेजगत में फिल्म भी बन चुकी है जिसका नाम ब्लैक था। उसमे हेलेन केलर की भूमिका रानी मुर्खजी ने बहुत ही संजीदगी से अदा की है।)



25 जून 2017

संदेश "आज के बच्चों के लिये"

चाँद पे जाना
मंगल पे जाना
दुनिया बचाना
बच्चो मगर
भूल ना जाना ।

मोबाइक में आना
मोबाइल ले जाना
कापी पेन बिना
स्कूल ना जाना ।

केप्री भी बनाना
हिपस्टर सिलवाना
खादी का थोडा़ सा
नाम भी बचाना ।

जैक्सन का डांस हो
बालीवुड का चांस हो
गांधी टैगोर की बातें
कभी तो सुन जाना ।

पैसा भी कमाना
बी एम डब्ल्यु चलाना
फुटपाथ मे सोने वालों
को ना भूल जाना ।

भगत सिंह का जोश हो
सुखदेव का होश हो
आजाद की कुर्बानी
जरा बताते चले जाना ।

पंख भी फैलाना
कल्पना में खो जाना
दुनिया बनाने वाला
ईश्वर ना भुलाना ।

कम्प्टीशन में आना
कैरियर भी बनाना
माँ बाबा के बुढापे
की लाठी ना छुटवाना ।

उलूक टाइम्स से साभार

अरे मीरा...ये कोविन्द है...गोविन्द नहीं....अशोक पुनमिया


कहाँ हो रहा है राष्ट्रपति चुनाव???
ये तो दलित-दलित खेल चल रहा है!
रामनाथ कौविंद आये या मीरा कुमार-क्या फर्क पडना है!
देश के सारे के सारे सियासी दल जात-पात के दलदल में लोट रहे हैं और 2019 के चुनावों पर गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं!
राजनीति की गिरावट मापने का अगर कोई थर्मामीटर बना होता तो निश्चित ही अब तो उसका पारा थर्मामीटर तोड़ कर बाहर आकर आत्महत्या कर चुका होता!
अब तक तो यह कहा जाता था कि राष्ट्रपति मात्र एक रबर स्टेम्प होता है! लेकिन अब ये भी कहा जाएगा कि राष्ट्रपति रबर स्टेम्प के साथ साथ वोटों के लिए एक मोहरा भी है,क्योंकि 56 इंची सीने से लगाकर तमाम पप्पू,अप्पू,लालू,भालू,और सियासत के सारे कालू राष्ट्रपति को मात्र मोहरा बना कर अपनी मूंछों पर ताव दे रहे हैं!
चुनावों के मद्देनज़र सभी नेताओं और दलों के तमाम "विज़न" फेल हो जाते हैं,और उनकी जीभ बस कुर्सी के लिए लपलपाने लग जाती है!
अंग्रेजों से मुक्त हुए भारत के अवाम की तरक्की तब तक संभव नहीं, जब तक कि क्षुद्र राजनीति हिंदमहासागर में डूब कर मर ना जाए!!
- अशोक पुनमिया

24 जून 2017

अंतिम अनुभव

उम्र  के  अंतिम  पड़ाव  पर 
सुध  बुध   भी   खो  गयी 
बंद कमरे में एक छोटी सी खिड़की 
मेरी  सारी  दुनिया  हो  गयी 
जो  मुझे  साँझ  और  सवेरे   
 से  परिचित  करवाती  थी  
झरोखे से आती सूरज की रौशनी 
सिर्फ एक कोने तक आती  थी 
ये जर्जर शरीर अपनी ही हडियों का 
 बोझ  भी  नहीं  उठा  पाता  था 
तन्हाई अब सिर्फ साथी थी  अपनी 
इसी से अपने दिल को बहलाता था 
जिंदगी का सफर जब शुरू हुआ था 
तब  साथ  में  इक  मेला  था 
मगर  अब परिवार के बीच  भी 
मैं  बिलकुल  अकेला  था 
मुठी  भर  दवाइयां  ही 
अब  आगे  की सच्ची साथी थी 
अंतिम  अनुभव  में ये  सीखा 
कि ये ही अंत तक साथ निभाती थी 
अगली  सुबह  ऐसा  लगा  जैसे 
मैं  हवा  में  उड़  रहा  था 
मेरा शरीर अंतिम सफर के  लिए 
चार कन्धों पर आगे बढ़ रहा था 
उस  टूटे  हुए  पिंजरे  से  
अब  पंछी  आज़ाद  हो  चुका  था 
काफी  इंतज़ार के बाद ही सही 
इक नए सफर का आगाज़ हो चुका था 

दुःसाहसी हेमंती फूल----अज्ञेय 




लोहे
और कंकरीट के जाल के बीच
पत्तियाँ रंग बदल रही हैं।
एक दुःसाहसी
हेमन्ती फूल खिला हुआ है।
मेरा युद्ध प्रकृति की सृष्टियों से नहीं
मानव की अपसृष्टियों से है।
शैतान
केवल शैतान से लड़ सकता है।
हम अपने अस्त्र चुन सकते हैं: अपना
शत्रु नहीं। वह हमें
चुना-चुनाया मिलता है।



23 जून 2017

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ ---अहमद फ़राज़

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ
बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ

अहमद फ़राज़


22 जून 2017

मेरे मन की



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शुक्रिया

सूर्यास्त: दुष्यंत कुमार

सूरज जब
किरणों के बीज-रत्न
धरती के प्रांगण में
बोकर
हारा-थका
स्वेद-युक्त
रक्त-वदन
सिन्धु के किनारे
निज थकन मिटाने को
नए गीत पाने को
आया,
तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,
ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप
और शान्त हो रहा।

लज्जा से अरुण हुई
तरुण दिशाओं ने
आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!
क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने
मुख-लाल कुछ उठाया
फिर मौन सिर झुकाया
ज्यों – 'क्या मतलब?'
एक बार सहमी
ले कम्पन, रोमांच वायु
फिर गति से बही
जैसे कुछ नहीं हुआ!

मैं तटस्थ था, लेकिन
ईश्वर की शपथ!
सूरज के साथ
हृदय डूब गया मेरा।
अनगिन क्षणों तक
स्तब्ध खड़ा रहा वहीं
क्षुब्ध हृदय लिए।
औ' मैं स्वयं डूबने को था
स्वयं डूब जाता मैं
यदि मुझको विश्वास यह न होता –-
'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य
ज्योति-किरणों से भरा-पूरा
धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को
जोतता-बोता हुआ,
हँसता, ख़ुश होता हुआ।'

ईश्वर की शपथ!
इस अँधेरे में
उसी सूरज के दर्शन के लिए
जी रहा हूँ मैं
कल से अब तक!

21 जून 2017

Pyara sa wah gaon


कृपया मेरा गीत सुनें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणी दें। 
धन्यवाद

तिमिर बंध

चीरकर सीना तम का
सूर्य दिपदिपा रहा
तोड़कर के तिमिर बंध
भोर मुस्कुरा रहा
उठ खड़ा हो फेंक दो तुम
जाल जो अलसा रहा
जो मिला जीवन से उसको
मन से तुम स्वीकार लो
धुँध आँखों से हटा लो
आसमां पे नाम लिख
जीवन की उर्वर जमीं में
कर्मों का श्रृंगार कर लो

जो न मिला न शोक कर
जो मिल रहा उपभोग कर
न भाग परछाई के पीछे
यही पाँव दलदल में खींचे
न बनाओ मन को काँच घट
हल्की ठेस से दरके हृदय पट
जिंदगी की हर कहानी का
मुख्य तुम किरदार हो
कर्म तुम्हारे तुम्हारी ज़ुबानी
बोलते असरदार हो
जीवन की लेखनी को धार कर लो
   
लड़कर समर है जीतना
हर बखत क्या झींकना
विध्न बाधा क्या बिगाडे
तूफां में रहे अडिग ठाडे
निराशा घुटन की यातना
ये बंध कठिन सब काटना
चढ़ कर इरादों के पहाड़
खोल लो नभ के किवाड़
खुशियाँ बाहें फैलाती मिलेगी
भर अंजुरी स्वीकार कर लो

      #श्वेता🍁

18 जून 2017

हाथ पब्लिक ने जोड़े....अल्हड़ बीकानेरी

सादर अभिवादन
अल्हड बीकानेरी अपनी अलग तरह की शायरी के लिए जाने जाते है आपका मूल नाम श्यामलाल शर्मा है आपको हरियाणा गौरव पुरस्कार, काका हाथरसी पुरस्कार भी मिला है | और आपको 1996 में राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया | उनकी पुण्यतिथि के मौके पर उनकी यह ग़ज़ल पेश है आशा है आपको पसंद आएगी |
17 मई 1937 - 17 जून 2009

लफ़्ज़ तोड़े मरोड़े ग़ज़ल हो गई
सर रदीफ़ों के फोड़े ग़ज़ल हो गई

लीद करके अदीबों की महफि़ल में कल
हिनहिनाए जो घोड़े ग़ज़ल हो गई

ले के माइक गधा इक लगा रेंकने
हाथ पब्लिक ने जोड़े गज़ल हो गई

पंख चींटी के निकले बनी शाइरा
आन लिपटे मकोड़े ग़ज़ल हो गई 

17 जून 2017

पापा

पापा,घने, विशाल वट वृक्ष जैसे है
जिनके सघन छाँह में,
हम बनाते है बेफ्रिक्र होकर
कच्चे पक्के जीवन के घरौंदे
और बुनियाद में रखते है
उनके अनुभवों की ईंट,
पापा के मजबूत काँधे पर चढ़कर
आसमान में उड़ने का स्वप्न देखते है
इकट्ठे करते है सितारे ख्वाहिशों के
और पापा की जेब में भर देते सारे,
उनके पास दो जादू भरे हाथ होते है
जिसमें पकडकर अनुशासन,
स्नेह और सीख की छेनी हथौड़ी
वो तराशते है बच्चों के
अनगिनत सपनों को,
अपने हृदय के भाव को
व्यक्त नहीं करते कभी पापा
सहज शांतचित्त गंभीर
ओढ़कर आवरण चट्टान का
खड़े रहते है हमसे पहले
हमारे छोटी से छोटी परेशानी में
कोई नहीं जानता पापा की
सोयी इच्छाओं के बाबत
क्योंकि पापा जीते है हमारे
अतीत, वर्तमान और भविष्य,
की कामनाओं को
पापा की उंगली पकड़कर
जब चलना सीखते है
हम भूल जाते है
जीवन राह के कंटकों को
डर नहीं लगता जग के
बीहड़ वन की भयावहता में
दिनभर के थके पापा के पास
लोरियाँ नहीं होती बच्चों को
सुलाने के लिए
पर उनकी सबल बाहों के
आरामदायक बिस्तर पर
चिंतामुक्त नींद आती है
पापा वो बैंक है
जिसमें जमा करते है
अपनी सारे दुख, तकलीफ,
परेशानी,ख्वाहिशें और अनगिनत आशाएँ,
और बदले में पाते है एक निश्चत
चिरपरिचित विश्वास ,सुरक्षा घेरा
और अमूल्य सुखी जीवन
की सौगात उनके आशीष के रूप मे।

    #श्वेता🍁



16 जून 2017

बाथटब टेस्ट......


एक पागलखाने की 
सैर के दौरान 
एक सैलानी ने 
पागलखाने के 
निर्देशक से पूछाः 
आप किस तरह ये 
पता करते हैं कि 
वह मरीज सही में पागल है

"सही सवाल" 
निर्देशक ने कहा...
"हम एक बाथटब को 
पानी से भर कर 
उस व्यक्ति को 
एक चाय का चम्मच, 
एक चाय का कप और 
एक बालटी देकर कहते हैं कि 
इस बाथटब को खाली कीजिए

"ओह...
मैं समझ गया" 
उस सैलानी ने कहा...
"एक सामान्य व्यक्ति तो 
बालटी ही पसंद करेगा..
क्योंकि वह चम्मच व कप से बड़ी है.... 

"नहीं" 
निर्देशक ने कहा...
सामान्य व्यक्ति 
पानी निकालने वाले 
प्लग को खींचकर 
पानी खाली कर देगा....

"आपको 
खिड़की के पास वाला 
बिस्तर चाहिए क्या ?"....


..... व्हाट्स एप्प से    

14 जून 2017

तू इश्क़ में कर ऐतबार.....मनीष कुमार सिंह


तू एक बार आ और उम्मीद जगा दे
इस तरह ख़ामोश रहकर न सजा दे

तू इश्क़ में कर ऐतबार एक बार इश्क़ पर
वह इश्क़ ही नहीं है जो इश्क़ को दगा दे

गीत ऐसा लिख जिसे सुनकर ज़माना जगे
और साज ऐसा बना जो मुर्दों को उठा दे

तेरा मुस्कुरा के जाना चुपके से शरमाना
ख़ुदा काश किसी को न ए क़यामत की अदा दे

ऐसी तो कोई जीत चाहिए ही नहीं ‘मनीष’ को
जो उसको जिताए किसी दूजे को हरा दे

12 जून 2017

स्मृतियों का ताजमहल

समेटकर नयी पुरानी
नन्ही नन्हीं ख्वाहिशें,
कोमल अनछुए भाव
पाक मासूम एहसास,
कपट के चुभते काँटे
विश्वास के चंद चिथड़़े,
अवहेलना के अगूंज
बेरूखी से रूखे लफ्ज़,
और कुछ रेशमी सतरंगी
तितलियों से उड़ते ख्वाब,
बार बार मन के फूलों
पर बैठने को आतुर,
कोमल नाजुक खुशबू में
लिपटे हसीन लम्हे,
जिसे छूकर महकती है
दिल की बेरंग दिवारे,
जो कुछ भी मिला है
तुम्हारे साथ बिताये,
उन पलों को बाँधकर
वक्त की चादर में लपेट
नम पलकों से छूकर,
दफन कर दिया है
पत्थर के पिटारों में,
और मन के कोरे पन्नों
पर लिखी इबारत को
सजा दिया है भावहीन
खामोश संगमरमर के
स्पंदनविहीन महलों में,
जिसके खाली दीवारों पर
चीखती है उदासियाँ,
चाँदनी रातों में चाँद की
परछाईयों में बिसूरते है
सिसकते हुए जज्बात,
कुछ मौन संवेदनाएँ है
जिसमें तुम होकर भी
कहीं नहीं हो सकते हो,
खामोश वक्त ने बदल दिया
सारी यादों को मज़ार में,
बस कुछ फूल है इबादत के
नम दुआओं में पिरोये
जो हर दिन चढ़ाना नहीं भूलती
स्मृतियों के उस ताजमहल में।

       #श्वेता🍁

11 जून 2017

सरिता



नदी  का  दर्द 


कल-कल  करती करवटें  बदलती  बहती  सरिता
का  आदर्श  रूप
हो गयी  अब   गए  दिनों  की  बात ,
स्वच्छ  जलधारा  का  मनभावन  संगीत
हो  गयी  अब  इतिहास  की  बात।


शहरीकरण  की आँधी  में

गन्दगी   को  खपाने   का
एकमात्र   उपाय / साधन 
एक  बे-बस  नदी  ही  तो  है ,
पर्यावरण  पर  आँसू  बहाने  के  लिए
सदाबहार  मुद्दा  हमारे  द्वारा  उत्पादित  गन्दगी  ही तो  है।


खुले  में  पड़ा  मल  हो

या
सीवर  लाइन  में  बहती  हमारी  गन्दगी,
समाज   की   झाड़न   हो
या
बदबूदार  नालों   में  बहती  बजबजाती  गंदगी
सब पहुँचते  हैं  एक  निर्मल  नदी  की  पवित्रता   भंग  करने
जल  को  विषाक्त / प्रदूषित   बनाने।

नदी   के  किनारों  पर

समाज   का   अतिक्रमण,
है   कुंठित  मानवीय  चेष्टाओं  का  प्रकटीकरण।

प्रपंच के  जाल  में  उलझा  मनुष्य

नदी  के  नाला  बनने  की  प्रक्रिया   को
देख  रहा  है  लाचारी  से ,
नदियों  के  सतत  सिमटने  का  दृश्य
फैलता  जा  रहा  है  पूरी   तैयारी    से।

नदी  के  किनारे  बैठकर

कविता  रचने  की  उत्कंठा
जर्जर  पंख  फड़फड़ाकर  दम  तोड़  रही  है ,
बहाव  में  छिपी  ऊर्जा  के  लिए
नदी  की  धारा  भौतिकता   मोड़  रही  है।



नदी  से अब  पवित्र  विचारों  का  झौंका  नहीं

नाक   सिकोड़ने  को  विवश  करता
सड़ांध  का  गुबार  उठता  है ,
हूक  उठती  है  ह्रदय  में
नदी  के बिलखने  का 
स्वर  उभरता है।

नदी अपने  उदगम  पर  पवित्र  है

लेकिन......
आगे   का  मार्ग
गरिमा   को  ज़ार-ज़ार  करता है ,
 बिन  बुलाये  मिलने  आ  रहा
गन्दगी  का  अम्बार
गौरव  को  तार-तार  करता है।

नदी  चीखती  है 

कराहती  है
कहती  है -
ज़हरीले  रसायन ,मल ,मूत्र ,मांस ,मलबा ......प्लास्टिक  और  राख
क्यों  मिलाये  जा  रहे  हैं  मुझमें......?

मासूम  बचपन  जब  मचलता  है

नदी  में  नहाने  को
देख   समझकर  मेरा  हाल
कहता  है  मुझे  गंदा  नाला
और  रोक  लेता  है  अपनी  चंचलता  का  विस्तार
कोई  बताएगा  मुझे ......
आप , तुम  में  से
किसी  मासूम  को  न  समझा  पाने  में 
मेरा  दोष  क्या  है ???

@रवीन्द्र  सिंह यादव