तू एक बार आ और उम्मीद जगा दे
इस तरह ख़ामोश रहकर न सजा दे
तू इश्क़ में कर ऐतबार एक बार इश्क़ पर
वह इश्क़ ही नहीं है जो इश्क़ को दगा दे
गीत ऐसा लिख जिसे सुनकर ज़माना जगे
और साज ऐसा बना जो मुर्दों को उठा दे
तेरा मुस्कुरा के जाना चुपके से शरमाना
ख़ुदा काश किसी को न ए क़यामत की अदा दे
ऐसी तो कोई जीत चाहिए ही नहीं ‘मनीष’ को
जो उसको जिताए किसी दूजे को हरा दे
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (15-06-2017) को
जवाब देंहटाएं"असुरक्षा और आतंक की ज़मीन" (चर्चा अंक-2645)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
Nice
जवाब देंहटाएंबहुत खूब.
जवाब देंहटाएंवाह..क्या खूब..
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
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