राजेश त्रिपाठी
आओ करें हिसाब,
क्या पाया क्या खोया हमने।
कैसे-कैसे जुल्म
सहे, किस-किस पर रोया हमने।।
संबंधों के गणित के कैसे-कैसे बदले समीकरण हैं।
किस-किस ने ठगा और कहां हमारी मात हुई है।।
कहां-कहां विश्वास है टूटा, किस लमहे घात हुई है।
मानवता कब-कब रोयी, आंखों से बरसात हुई है।।
कब-कब टूटे किसी
सुहागन के सिंदूरी सपने।
कब-कब उसको
शृंगार लगे शूल से चुभने।।
कब किसी मजलूम को हमने जुल्म में पिसते पाया है।
कब इनसान ने किया ऐसा, हैवान भी तब शरमाया है।।
यहां आदमी की अब बस पैसों से होती पहचान है।
हर एक ने बेच जिया यहां, जैसे अपना ईमान है।।
गम की कहानी अब
आंखों से बन आंसू लगी बहने।
जाने अब सीधे
इंसा को कितने गम होंगे सहने।।
आदमी का जीना मुहाल है, हर सिम्त नफरतों का अंधेरा घना है।
जिस तरफ देखो उस तरफ, जैसे मुश्किलों का माहौल तना है।।
हे प्रभु क्या हो रहा है, क्या यही वह गांधी का हिंदोस्तान है।
जहां सच्चा इंसां रो रहा , मस्ती से जी रहा वहां शैतान है।।
आओ अगर हो सके
तो हम गढ़ें फिर नये सपने।
जिससे मुल्क में
फिर चैन की बंशी लगे बजने।।
खूबसूरत पंक्तियाँ.....
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