राजेश त्रिपाठी
तो फिर भला जनता क्यों है भूखी सो रही।।
कहते हैं कि रोशन हैं मुल्क का हर मकां।
झोंपड़ी गरीब की क्यों अंधेरे में सो रही।।
सियासत मुल्क की अब मतलब परस्त है।
हवा जब जैसे चले वैसे ही करवट ले रही।।
गर्त में जाये तो जाये मुल्क फिक्र क्या।
अपनी तो सुबहो-शाम अब रंगीं हो रही।।
आप ख्वाबों में अब तो जीना छोड़िए।
गौर कीजै मुल्क की ऐसी-तैसी हो रही।।
कानून किसको कहते हैं, है क्या पता।
हर कदम बदसलूकी, सीनाजोरी हो रही।।
हिंद का क्या हस्र कर डाला सियासत ने।
हर सिम्त कहर है, इनसानियत है रो रही।।
आपको गर फिकर है तो किब्लां जागिए।
मुल्क को लीजै बचा, देर वरना हो रही।।
वे मतलबी हैं इंसां को इंसा से बांट रहे।
इंसानियत मायूस है और दम तोड़ रही।।े
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