प्रकृति का स्वरूप
परिदृश्य परिवर्तित हो गया इसका
जिसकी अठखेलियों का
सम्मोहन कभी सूर्य की किरणों को
अल्पकालीन निद्रा मे डूबा देता था
जिसके आगमन पर चंद्र
जिसके आगमन पर चंद्र
भी बादलों का आवरण हटा देता था
जिसका एहसास मात्र दोहरी शुष्क
नयनों को नम कर देता था
जिसका अवलोकन मात्र ही ह्रदय
आघात को कम कर देता था
निश्चित ही ये वही है जिसकी गोद मे
बैठ कर पक्षी करलव करते थे
जिसकी सानिध्य मे रहकर घुमक्कड़
मूर्तियों में रंग को भरते थे
जिसके एक सूक्ष्म दृश्य से चौपालों का
शून्यकाल संतृप्ति मे आ जाता था
उसके आते ही मौसम का रूप
परिवर्तित हो जाता था
पर शायद उसमे
अब वो बात नही
दिन तो ढलता है पर उसके
आगे चाँदनी रात नही
निर्रथक समय संयोजित हो जाता है
मौसम का रंग भी परिवर्तित हो जाता है
पर चौपालों का शून्यचक्र नही बढ़ता
ये पवन भी शाखों का रूप नही गढ़ता
चिंतन न कर हे मानव !
ये तेरी ही परिकल्पनाओं का परिणाम है
गति देना चाहता था तू जिस जीवन को
आज उस पर ही अल्पविराम है
समय शेष है अब भी तू अपनी
नगण्य चेष्टाओ को संकुचित कर ले
बर्हिगमन कर स्वार्थ का अपनी
शिराओं से प्रकृति प्रेम के रक्त को भर ले
------ हिमांशु मित्रा 'रवि'
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