हमने एक और ग़लती अपनायी है
आम की खेती बबूल से करवायी है
पिछले मौसम में गर्मी भ्रष्ट थी
अबके मात्र वादों की बाढ़ आयी है
कुबेर और भिखारी एक ही जानो
भेद बतलाने में वादाखिलाफ़ी है
उसने मक्कारी से सही कमाई तो है
फ़िज़ूल में हाय हाय और दुहाई है
लूटने का मौसम आया, लूटेरे आयें
बाँझ मिट्टी की बोली लगने वाली है
हवा अब भी बेपरवाह है फिरती
कोई बताये उस पर भी शामत आयी है
शाख से झूलते मुर्झाये जिस्म ने बताया
इस इलाके में सूखे की कारवायी है
गर गूंगे हो 'शादाब' तो गूंगे रहो
जिसने मुँह खोला जान पे बन आयी है !
आम की खेती बबूल से करवायी है
पिछले मौसम में गर्मी भ्रष्ट थी
अबके मात्र वादों की बाढ़ आयी है
कुबेर और भिखारी एक ही जानो
भेद बतलाने में वादाखिलाफ़ी है
उसने मक्कारी से सही कमाई तो है
फ़िज़ूल में हाय हाय और दुहाई है
लूटने का मौसम आया, लूटेरे आयें
बाँझ मिट्टी की बोली लगने वाली है
हवा अब भी बेपरवाह है फिरती
कोई बताये उस पर भी शामत आयी है
शाख से झूलते मुर्झाये जिस्म ने बताया
इस इलाके में सूखे की कारवायी है
गर गूंगे हो 'शादाब' तो गूंगे रहो
जिसने मुँह खोला जान पे बन आयी है !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (08-11-2014) को "आम की खेती बबूल से" (चर्चा मंच-1791) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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