तेवरीकार रमेशराज, राजर्षि जनक की भूमिका में
*योगेन्द्र
शर्मा
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कविवर
निराला का कथन है-“कविता बहुजीवन की छवि है।“ तेवरी भी माँ सीता की तरह, भूमि से ही
जन्मी है, और रमेशराज, राजर्षि जनक
की भूमिका में हैं। तेवरीकार, रमेशराज की कविता मूलतः आमआदमी की पीड़ा, असंतोष, क्षोभ व आक्रोश की कविता है।
समीक्ष्य पुस्तक में, कवि ने नन्दलाल-श्री कृष्ण को शासक, व गोपियों
को जनता जनार्दन के प्रतीक के रूप में लिया है। उनकी कविता का रंग, व्यवस्था-विरोध
का है। दो तेवर दर्शनीय हैः-
हम तो उनके सामने, हुए बहुत बलहीन
सब की बाँह मरोड़ कर खुश तो हैं नन्दलाल? बताओं कुछ
तो ऊधो?
जित घायल हर भाव हैं, घाव भरा हर चाव
नीबू वहाँ निचोड़ कर खुश तो हैं नन्दलाल? बताओं कुछ
तो ऊधो?
इस उपभोक्तावाद व भूमण्डलीकरण के युग में निर्धन और
धनहीन व धनवान और अधिक धनवान हो गया है। कवि अपनी लेखनी के माध्यम से हृदयस्पर्शी
बेवाक चित्रा प्रस्तुत करता है-
रोजगार नित खोजते, नन्हे-नन्हे हाथ
अब न पकड़ते तितलियाँ गोकुल रहे उदास। बसी हर मन में
पीड़ा।
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फटी रजाई, कम रूई, हुई खाट बेकार
जाड़े में मेहमान की रही समस्या रोज। समस्या हल कर
दीजे।
यूँ तो कागजों पर सरकार ने कई जनकल्याण की योजनाएं
बनायी हैं, ‘अच्छ दिनों’ की अगवानी
में। परन्तु लाल-फीताशाही व भ्रष्टाचार के कारण, आम जनता उनके लाभ से महरूम रह जाती है। तेवरीकार के
व्यंग्य की धार दर्शनीय है-
सरकारी अफसर कहै, इस सरका री नोट
ऊधो सारा देश है, रिश्वत ला की ओर। श्याम का अजब सुशासन।
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डकैतियाँ तो पड़ गयी, पहुँच न पायी चौथ
इस पर थानेदार ने डाकू डाँटे रोज। मरें हम कब तक ऊधो?
रमेशराज की कविता का तानाबाना सामान्यतया व्यंग्य है।
व्यंग्य भी ऐसा कि जिस पर वार किया हो, वह तिलमिला जाये। तेवरी दर्शनीय हैः-
अब फिर आये हो यहाँ पाँच साल के बाद
तुम वोटों की अर्चना, ऊधो जानो खूब। बड़े छलिया हो ऊधो।
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कुर्सी की उनकी चढ़ी, ऊधो ऐसी भाँग
मदमाते से डोलते, अब वे श्याम न श्याम। वोट हम क्यों दे उनको?
तेवरीकार की तेवरी, जनाक्रोश की संवाहक, दोधारी तलवार प्रतीत होती है-
ढाई आखर की डगर आज भूल कर श्याम
सच के व्याख्याता बनें, वेदों के विद्वान। प्रेम में बसी सियासत।
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जनपथ के रिसते हुए, छुए न कोई घाव
राजपथों से कब, उठे, भले दया के बोल? तल्खियाँ इसीलिये हैं?
गरीब की
बेटी के पक्षधर, रमेशराज की तल्खियों केवल राजनैतिक गलियारों से ही नहीं, समकालीन
व्यवस्था क प्रतिे भी हैं-
यूँ तो हुई जवान, निर्धन के घर जनम ले
रही कुँआरी ही खुशी, पीले हुए न हाथ, दुखों ने ऐसे घेरा।
तेवरीकार, प्रतीकों के माध्यम से आज के रहनुमाओं पर व्यंग्य-प्रहार करता चलता है-
फूलों से मकरन्द गुम, गायब रंग-सुगन्ध
पात-पात पर व्यंग्य-सा मनमोहन का प्यार। मुबारक उनको
गद्दी।
तेवरी, अपने शैशव काल में प्रायः कथित ग़ज़ल के शिल्प पर लिखी गयी थी। यद्यपि, तेवरीकार
ग़ज़ल की रवायतों को समय-समय पर तोड़ते रहे थे। यथा, तेवरी में अन्तिम शेर, अर्थात मक्ता शेर न कहना। यथा, ग़ज़ल की
प्रचलित बहरों से बाहर निकलना। परन्तु तेवरी आन्दोलन के प्रवर्तक रमेशराज ने अन्य
छन्दों, यथा, वर्णिक आदि, अन्य छन्दों
में भी तेवरी की रचना की, जो अपेक्षाकृत कठिन कार्य था।
शिल्पगत प्रयोगों की कड़ी में रमेश भाई ने, आनुप्रासिक
तेवरी, व यमकदार तेवरी की रचना कर अपनी काव्य प्रतिभा के
दर्शन कराये हैं-
पजरी पंकज-पाखुरी, पल-पल प्रकटे पीर
नर-नारी नन्दित नहीं, नयन-नयन नित नीर। चुभन-सी मन के भीतर।
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जिये न हरि मधु प्रेममय सुखद हवा की ओर
हैरत! है रत
आज भी मन सत्ता की ओर। श्याम का अजब सुशासन।
तेवरीकार रमेशराज का तेवरी शतक ‘ऊधौ कहियो जाय’, अपने
काव्यात्मक लालित्य, सामाजिक सरोकारों के कारण, हमें दुष्यंत कुमार जैसे कवि की याद दिलाता रहेगा। इस अनूठी काव्यकृति हेतु, तेवरीकार को
साधुवाद, बधाई।
समीक्ष्य पुस्तक-
ऊधौ कहियो जाय [तेवरी शतक]
कवि-रमेशराज
सार्थक सृजन प्रकाशन, 15@109, ईसानगर,
निकट थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001
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समीक्षक-योगेन्द शर्मा
सम्पर्क-3@29सी लक्ष्मीबाई मार्ग, रामघाट रोड, अलीगढ़।
मोबाइल-09897410320,09760002274
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