ब्लौग सेतु....

25 जनवरी 2014

क्या मैं 'जिंदा' हूँ -- शिवनाथ कुमार


क्या मैं 'जिंदा' हूँ
'नहीं' तो थोड़ा एहसास
थोड़ी राख 'अतीत' की
भर दे कोई
मेरी मुठ्ठी में
गीत कोई गा दे 'वही'
 फिर से मेरे कानों में
और हो सके तो
पिला दे कोई मुझे
अमर संस्कारों की अमृत
करा दे स्पर्श
माँ की चरणों का
और लगा दे कोई
मिटटी मेरे बचपन की
कि मैं जिंदा हो जाऊँ फिर से
और चाँद उगने लगे
मेरे घर की देहरी पर
एक बार फिर से
हाँ, वैसे ही फिर से


-- शिवनाथ कुमार 


20 जनवरी 2014

........ तेरे आने से -- रीना मौर्या



तेरे आने से रोशन मेरा जहाँ हो गया
तेरे प्यार से महकता आशियाँ हो गया .....
तेरी आदाएं कोमल तितली सी है
तेरे आने से मेरा जीवन गुलिस्ताँ हो गया....

रंग इतने लाई है तू जीवन में मेरे
की अब हर शमाँ रंगीन हो गया ....
सादगी तेरे व्यवहार की ऐसी मनमोहक है
की मै तो तुझमे ही खो गया .....

यूँ शुभ कदमों से तू मेरे घर आई है
की मेरा घर , अब घर नहीं जन्नत हो गया .....
भोर की पहली किरण के साथ ही 
तेरा मधुर आवाज में कृष्ण को पुकारना
मेरा मंदिर , मंदिर नहीं गोकुलधाम हो गया ......

हे प्रिय, हे गंगा, हे तुलसी, हे लक्ष्मी
और किस - किस नाम से पुकारूँ मै तुझे
तेरी भोली सीरत पर मै तो  फ़ना हो गया...
तेरे आने से रोशन मेरा जहाँ हो गया
तेरे प्यार से महकता आशियाँ हो गया ....!


-- रीना मौर्या




15 जनवरी 2014

क्या गीत खुशी के गायें

               



राजेश त्रिपाठी
पीड़ा का पर्याय जिंदगी, जब आहत हैं भावनाएं।
रंजो-गम का आलम है, क्या गीत खुशी के गायें।।
      सपने सारे टूट रहे हैं, जब देश लुटेरे लूट रहे हैं।
      वे कहते प्रगति हो रही, हम तो पीछे छूट रहे हैं।।
      राजनीति के दांवपेंच से, आम आदमी है बेहाल।
      कौन सही है, गलत कौन, समझ न आये चाल।।
दहशत का है राज जहां पर, लुटती हैं ललनाएं।
अंधियारे का राज जहां, क्या गीत खुशी के गायें।।
      दिशा दिशा में दावानल, कण कण में कोहराम।
      कहीं धमाका कहीं गोलियां चलती हैं अविराम।।
      हर तरफ नफरतों का अंधेरा घना है।
आदमी आदमी का दुश्मन बना है।।
ईमान और इंसान बिक रहे, छीज रहीं मान्यताएं।
हो फरेब का राज जहां, क्या गीत खुशी के गायें।।
      सत्ता में जो जा बैठे हैं, उसके मद में वो हैं चूर।
      सब्जबाग झूठे दिखलाते,कहते अब दुख होंगे दूर।।
      पैसे वाले मस्ती में हैं, है गरीब तंगी से त्रस्त।
      महंगाई की मार से जिसकी जिंदगी है पस्त।।
पैसे से पहचान हो रही,फीकी हैं योग्यताएं।
आहत हैं अरमान, क्या गीत खुशी के गाये।।
      वादों की फसल बो रहे, ठंडे घरों में जो सो रहे।
      आम आदमी पस्त है, वे दिन-दिन मस्त हो रहे।।
      फाइलों में कैद हैं सपने, दूने होते हैं दुख अपने।
      हालत बदतर है पर उनकी लफ्फाजी क्या कहने।।
सब्र छूट रहा बशर का, जब टूट रहीं आशाएं।
गम की महफिल में, क्या गीत खुशी के गायें।।
     
     
     
     
     

.....फिसल गया वक्‍त :))

सभी साथियों को मेरा नमस्कार आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ सदा जी की रचना......फिसल गया वक्‍त के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!


फिसल गया वक्‍त ....
मैं किसी की आंख का ख्‍वाब हूं,
किसी की आंख का नूर हूं ।
भूल गया सब कुछ मैं तो खुद,
अपने आप से भी दूर हूं ।
हस्‍ती बनने में लगा वक्‍त मुझको,
पर अब मैं किसी का गुरूर हूं ।
फिसल गया वक्‍त रेत की तरह,
पर मैं ठहरा हुआ जरूर हूं ।
हक किसी का मुझपे मुझसे ज्‍यादा है,
मैं अपने वादे के लिये मशहूर हूं .........!!


-- सदा जी




4 जनवरी 2014

अश्कों के फूल चुन के संवारी है जिंदगी

 

 

 

 राजेश त्रिपाठी

पूछो न किस तरह से गुजारी है जिंदगी।
अश्कों के फूल चुन के संवारी है जिंदगी।।
आंखें खुलीं तो सामने अंधियारा था घना।
असमानता अभाव का माहौल था तना।।
मतलब भरे जहान में असहाय हो गये।
दुख दर्द मुश्किलों का पर्याय हो गये।।
दुनिया के दांव पेच से हारी है जिंदगी। (अश्कों के फूल ...)
आहत हुईं भलाइयां, सतता हुई दफन।
युग आ गया फरेब का, क्या करें जतन।।
ऐसे बुरे हालात की मारी है जिंदगी (अश्कों के फूल ...)
चेहरे पे जहां चेहरा लगाये है आदमी।
ईमानो-वफा बेच कर खाये है आदमी।।
हर सिम्त नफरतों के खंजर तने जहां।
कैसे वजूद अपना बचायेगा आदमी।।
जीवन की धूपछांव से हारी है जिंदगी (अश्कों के फूल..)
सियासत की चालों का देखो असर।
आग हिंसा की फैली शहर दर शहर।।
आदमी आदमी का दुश्मन बना है।
हर तरफ नफरतों का अंधेरा घना है।।
इन मुश्किलों के बीच हमारी है जिंदगी (अश्कों के फूल..)