वोटों की खातिर फिर देखो आली जनाब आये हैं।
लेकर के पिटारे में कितने हसीन ख्वाब आये हैं।।
रंग कोई हो इन सबके इरादे तो एक हैं।
मत पूछिए कौन बुरे यहां कौन नेक हैं।।
सबका मकसद कुर्सी बस कुर्सी ही कुर्सी है।
जानिए इनमें कौन असली कौन फर्जी है।।
यह पूछिए क्या बीते पांच सालों का हिसाब लाये हैं।
अब तक क्यों थे गायब, क्यों भला जनाब आये हैं।।
सज गयी चुनावों की दुकान, आये कैसे-कैसे श्रीमान।
इक कहता बस मेरी बात सुनो, दूजा तो है बेईमान।।
उसको दिया मुल्क तुमने, बेच खायेगा हिंदुस्तान।
मतदाता चकित बड़ा, किस पर कीजै इत्मीनान।।
इक नागनाथ दूजा है सांपनाथ, कैसे-कैसे ये अजाब लाये हैं।
वादों की दौलत साथ में, लुभावने नारे भी लाजवाब लाये हैं।।
देश की जनता भूखी है, महंगाई की मारी है।
झूठे विकास के दावों से वह बेचारी हारी है।।
आंकड़े गवाही देते हैं, भूखी आधी आबादी है।
हम खाद्यान्न में निर्भर हैं हो रही मुनादी है।।
हर बशर परीशां, है हौलनाक मंजर बेहिसाब आये हैं।
जाने नेता आखिर किस मुश्किल का जवाब लाये हैं।।
साम्यवाद के जीवित शव पर मानवता रोती है।
किसी देश में क्या ऐसी भी आजादी होती है।।
ललनाओं की लाज छिन रही, मजलूमों की रोटी।
स्वार्थी नेता खेल रहे हैं, बस राजनीति की गोटी।।
क्या-क्या इनको करना है इसकी ये किताब लाये हैं।
आपकी वोटों की आखिर, ये दर-दर बेताब आये हैं।।
पूछो ये क्या देंगे भूखों को रोटी, प्यासों को पानी।
क्या कभी सुधारेंगे ये मजलूमों की बेबस जिंदगानी।।
या ये बरसाती मेढ़क हैं कुछ दिन तो यों टर्रायेंगे।
फिर सुविधा पा, चुप होकर दड़बों में छिप जायेंगे।।
बतलाइए क्या मुश्किलों का क्या कोई जवाब लाये हैं।
गर नहीं तो किब्लां यह कहे क्यों यहां जनाब आये हैं।।
-राजेश त्रिपाठी
लेकर के पिटारे में कितने हसीन ख्वाब आये हैं।।
रंग कोई हो इन सबके इरादे तो एक हैं।
मत पूछिए कौन बुरे यहां कौन नेक हैं।।
सबका मकसद कुर्सी बस कुर्सी ही कुर्सी है।
जानिए इनमें कौन असली कौन फर्जी है।।
यह पूछिए क्या बीते पांच सालों का हिसाब लाये हैं।
अब तक क्यों थे गायब, क्यों भला जनाब आये हैं।।
सज गयी चुनावों की दुकान, आये कैसे-कैसे श्रीमान।
इक कहता बस मेरी बात सुनो, दूजा तो है बेईमान।।
उसको दिया मुल्क तुमने, बेच खायेगा हिंदुस्तान।
मतदाता चकित बड़ा, किस पर कीजै इत्मीनान।।
इक नागनाथ दूजा है सांपनाथ, कैसे-कैसे ये अजाब लाये हैं।
वादों की दौलत साथ में, लुभावने नारे भी लाजवाब लाये हैं।।
देश की जनता भूखी है, महंगाई की मारी है।
झूठे विकास के दावों से वह बेचारी हारी है।।
आंकड़े गवाही देते हैं, भूखी आधी आबादी है।
हम खाद्यान्न में निर्भर हैं हो रही मुनादी है।।
हर बशर परीशां, है हौलनाक मंजर बेहिसाब आये हैं।
जाने नेता आखिर किस मुश्किल का जवाब लाये हैं।।
साम्यवाद के जीवित शव पर मानवता रोती है।
किसी देश में क्या ऐसी भी आजादी होती है।।
ललनाओं की लाज छिन रही, मजलूमों की रोटी।
स्वार्थी नेता खेल रहे हैं, बस राजनीति की गोटी।।
क्या-क्या इनको करना है इसकी ये किताब लाये हैं।
आपकी वोटों की आखिर, ये दर-दर बेताब आये हैं।।
पूछो ये क्या देंगे भूखों को रोटी, प्यासों को पानी।
क्या कभी सुधारेंगे ये मजलूमों की बेबस जिंदगानी।।
या ये बरसाती मेढ़क हैं कुछ दिन तो यों टर्रायेंगे।
फिर सुविधा पा, चुप होकर दड़बों में छिप जायेंगे।।
बतलाइए क्या मुश्किलों का क्या कोई जवाब लाये हैं।
गर नहीं तो किब्लां यह कहे क्यों यहां जनाब आये हैं।।
-राजेश त्रिपाठी
***आपने लिखा***मैंने पढ़ा***इसे सभी पढ़ें***इस लिये आप की ये रचना दिनांक 31/03/2014 यानी आने वाले इस सौमवार को को नयी पुरानी हलचल पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...आप भी आना औरों को भी बतलाना हलचल में सभी का स्वागत है।
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