सेठ बने है, जब फ़िक्र में थे तो लामलेट हो रहें थे |
जिसके भाग्य में लिखा वो बेफिकर होकर झेले...
हमें तो इन्तजार है उस सूरज का ,
जो चमके मेरे प्रताप से ......
और मैं उसकी परछाई में खोकर,
हर्षित हूँ लेकिन उसमें मैं कहीं, ना हूँ ...|
जो मदत-मदत कह रहा ,
उसके हाथ खुले है, उपकार को |
भय भीतर खा रहा ,
फिर भी उसे तो रोटी मिल बांटकर है, खानी |
झूट का भार कमर तोड़ रहा
लेकिन झूटे धन की चाह उसे नहीं....|
अभय मुर्ख, सत्य के अर्थ तलाशने को निकला है... |
कर्म की महत्ता से परिचित है,
उससे सत्य कहता है |
उसे आभास नहीं है,
मैं किस दिशा में हूँ ??
अगर वो मुझसे
कठिन- कठोर परिश्रम मांगेगी,
तो और आगे बढ चलूँगा,
मुझें अमरत्व की चाह है
" अपने कर्मों से प्रप्ति संभव " |
लेखक परिचय -- जानू बरुआ