ब्लौग सेतु....

31 मार्च 2016

फर्ज और कर्ज किसी ओर...

मुड़  कर जाती  ज़ीस्त 
गुज़रते  लम्हों  को 
शाइस्तगी  से ताकीद   की
फ़र्ज़  और क़र्ज़ 
 किसी  ओर  रोज़,
खोने  और  पाने  का 
हिसाब  किसी  ओर  दिन
मुद्द्त्तो  के  बाद  मिली 
पलक्षिण  को  समेट  तो  लू,
शाद  ने  भी 
शाइस्तगी  से ताकीद  की,
हम  न  आएगे  बार - बार.. 
पर  हर इक  की
 हसरते जरूर  हूँ
मसरूफ   हू   पर 
 हर इक  के  नसीब में  हूँ,
मैं  भी  इक  गुज़रती 
ज़ीस्त  का  लम्हा हूँ  .. 
                                   ©पम्मी 
                                                                                   
 शाइस्तगी -सभ्य ,नम्र decent
शाद -ख़ुशी happiness


कलयुग के भगवान

                                                                                      
                                                                                                                         मैं तो सिर्फ तुमे ही मानता  महान 
तुम तो ठहरे कलयुग के भगवान 
तुम्हारी ताकत का है मुझे अंदाज़ा 
अपने  क्षेत्र  के  तुम  हो  राजा 
अपने घर भी तुमने बना दी दूकान 
तुम तो ठहरे कलयुग के भगवान 
भगवान से बड़ा है तुम्हारे लिए वोट 
वोट जो मिल गए तो बटोरो फिर नोट 
पांच साल तक रहते  फिर  अंजान 
तुम तो ठहरे कलयुग के भगवान 
जनता के भले की ली थी जो शपथ  
भोली जनता के लिए शपथ बनी कपट 
जनता तो जनता है तुम ठहरे प्रधान 
तुम तो ठहरे कलयुग के भगवान 
नौकर, बांग्ला, गाड़ी  मिले तुमे मुफ्त 
कुपथ भी होता तुम्हारे लिए सुपथ 
पार्टी चंदा लेकर बनते हैं नादान 
तुम तो ठहरे कलयुग के भगवान 
तुम्हारे गुणगान करे टीवी और अखबार 
किस्मत बदली तुमसे जुड़ा जो एक बार 
रिश्तेदार तुम्हारे सब बने धनवान 
तुम तो ठहरे कलयुग के भगवान 
कुकर्म करे फिर भी इज़्ज़त बढ़े तुम्हारी 
कई पढ़े लिखों पर एक अनपढ़ ही भारी 
बडे बडे अधिकारी भी तुमे करे प्रणाम 
तुम तो ठहरे कलयुग के भगवान 

30 मार्च 2016

              मुस्कानें...                        जी. एस परमार

खो गई है मुस्कानें  मेरी,
                      मै  ढुंढता चला हूँ |
मिलन  आस मे उनकी,
              हर  पल चलता चला हूँ |
बहा ले गई गम की आँधी,
                 मुस्कान फुहारों को |
दे गई यादों की धूल
            दिल के उजड़े गलियारों को |
उजड़े गलियारों में,
      अनजान राही सा चलता चला हूँ |
खो गई है मुस्कानें मेरी,
                     मैं ढुंढता चला हूँ |
मंदिर मे ढुंढा, मस्जिद मे ढुंढा ,
            ढुंढ लिया मैने गुरूद्वारों मे |
दिल मे जो छिपी थी,
कैसे मिलती वो दुनियां के दरबारों मे |
गम चमन के फूल भी ,
आँसूओं से,  लगने लगे है अब
आँसूओ के फूल हर दर पे,
                      चढ़ाता चला हूँ|
खो गई है मुस्कानें मेरी,
             मैं ढुंढता चला हूँ |
मिलन आस मे उनकी,
                पल पल चलता चला हूँ |
खो गई है मुस्कानें मेरी,
                 मैं ढुंढता चला हूँ |
            
                        जी. एस परमार

28 मार्च 2016

ये दुनिया (ग़ज़ल)

                                                                                    
हर रोज़ सबक सिखाती है ये दुनिया 
सताए हुए को और सताती है ये दुनिया 
तू सिर्फ अपना फ़र्ज़ निभाए जा 
वरना कहाँ अपना फ़र्ज़ निभाती है ये दुनिया  
क्यों दिल लगा कर बैठे हो इस जहाँ में 
सिर्फ झूठा प्यार जताती  है ये दुनिया 
चुप रहना ही अपना मुकद्दर समझो 
नहीं तो एक की चार सुनाती है ये दुनिया 
उम्मीद का  दामन छोड़ दे    दिल 
सिर्फ झूठे ख्वाब दिखाती है ये दुनिया 
माना कि  तेरा दिल पाक साफ  है 
सफ़ेद चादर पर दाग लगाती है ये दुनिया 
अपनी मुसीबतों से खुद ही लड़ेगा तू 
सिर्फ अपनी राह के कांटे हटाती है ये दुनिया 
कतरा कतरा मर जायेगा यहाँ पर 
सिर्फ शमशान तक पहुंचाती है ये दुनिया 

25 मार्च 2016

Whatsapp पर चर्चासेतु

पांच लिंकों का आनंद
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23 मार्च 2016

शहीद दिवस पर नमन

भारत माता के लाल थे वे,
आजादी की थी चाह बड़ी,
भारत माता के शान में बस,
चल निकले मुश्किल राह बड़ी ।

स्वाधीनता के दीवाने थे,
गौरों का दम जो निकाला था,
नस नस में थी आग दौड़ती,
खुद को आँधी में पाला था ।

इंकलाब की आग देश में,
खुद जलकर भी लगाया था,
मूँद कर आँखें सोये थे जो,
फोड़ कर बम यूँ जगाया था ।

सच्चे सपूत थे माता के,
अपना सुख दुःख सब भूल गए,
माता की बेड़ी तोड़ने को,
हँसते फांसी में झूल गए ।

वे बड़े अमर बलिदानी थे,
फंदे को जिसने चूमा था,
मेरा रंग दे बसंती चोला पर,
मरते मरते भी झूमा था ।

आदर्श बने लाखों युवा के,
नाम है जब तक है गगन,
सिंह भगत, सुखदेव, गुरु,
है आपको शत-शत नमन ।

भगतसिंह,सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस पर शत-शत नमन । 

-प्रदीप कुमार साहनी

21 मार्च 2016

ढपोरशंख

 भाषणबाजी में अव्वल, करने धरने में शून्य अंक,
आज के नेता हो चले हैं, जैसे कि ढपोरशंख ।

रोज नए नए वादे होते, करने के न इरादे होते,
जनता को भी लिए लपेटे, इनके कई कई प्यादे होते ।

राजनीति एक दल दल जैसी, ये खुद ही बन गए पंक,
निरे निखट्टू आज के नेता, जैसे कि ढपोरशंख ।

बस चुनाव में इनका आना, जीत कर ठेंगा है दिखाना,
वादे इनको याद करा दो, पहले से तैयार बहाना ।

दल बदलू और स्वार्थ परक ये, अपनो को ही मारे डंक,
लाभ के लिए कुछ भी कर दें, हो गए ये ढपोरशंख ।

होली तो इनकी ही हो ली, इनकी ही होती है दीवाली,
असली पैसों से ये खेले, पर सारे हैं लोग ये जाली ।

मुँह बाये हम आम लोग हैं, माल खा रहे ये कलंक,
अव्वल अब मक्कारी में भी, ये नेता हैं ढपोरशंख ।

- प्रदीप कुमार साहनी

18 मार्च 2016

क्यो है --(ग़ज़ल)

                                                                                                                                                                   
                                                                                                           हर  किसी ने दिल में बदरंग तस्वीर उतारी क्यों है 
आज मुल्क में मोहब्बत पर नफरत भारी क्यों है 
मजहब की चादर से अमन धुल सा गया है 
और आज का इंसान नफरत का पुजारी क्यो  है 
जिस मुल्क के रुखसार पर चमकते थे चाँद सितारे 
वहां चौदहवी की रात आज अंधियारी क्यो  है 
पूरी दुनिया में शांति की मिशाल थे हम 
फिर अपने ही घर में कत्लेआम जारी क्यों है 
सुना है दिल का अमीर होता है हर हिंदुस्तानी 
फिर हर शक्श मोहब्बत बांटने में भिखारी क्यों है 
जीती थी हमने इस जहाँ में दिलों की हर बाजी 
फिर अमन चैन के खेल में अपनी हार करारी क्यों है 
देता है जो मुल्क दुनिया को पैगाम ऐ मोहब्बत 
फिर अपने मुल्क से गद्दारी की तैयारी क्यों है 
 









16 मार्च 2016

आओ बदल लें खुद को थोड़ा

बड़ी-बड़ी हम बातें करते,
पर कुछ करने से हैं डरते,
राह को थोड़ा कर दें चौड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

ख्वाब ये रखते देश बदल दें,
चाहत है परिवेश बदल दें,
पर औरों की बात से पहले,
क्यों न अपना भेष बदल दें ।

चोला झूठ का फेंक दे आओ,
सत्य की रोटी सेंक ले आओ,
दौड़ा दें हिम्मत का घोड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

एक बहाना है मजबूरी,
खुद से है बदलाव जरुरी,
औरों को समझा तब सकते,
खुद सब समझो बात को पूरी ।

भीड़ में खुद को जान सके हम,
स्वयं को ही पहचान सकें हम,
अहम को मारे एक हथौड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

दो चेहरे हैं आज सभी के,
बदल गए अंदाज सभी के,
अपनी दृष्टि सीध तो कर लें,
फिर खोलेंगे राज सभी के ।

पथ पर पग पल-पल ही धरे यूँ,
जब-जब जग की बात करे यूँ,
क्या कर जब तक दंभ न तोड़ा,
आओ बदल ले खुद को थोड़ा ।

-प्रदीप कुमार साहनी

15 मार्च 2016

तुम्हारा बन जाऊँगा (ग़ज़ल)

           तू एक बार बुलाकर तो देख, तुम्हारा  बन जाऊंगा  
हो नज़र तो तेरी आसमान पर, तो सितारा बन जाऊंगा

तुझसे मिलने की आरज़ यूं ही कब तक रहेगी अधूरी 
अगर तुझ रौशनी से डर है , तो अँधियारा बन जाऊंगा

तुम क्यो रूठी बैठी हो बेदर्द ज़माने के दस्तूर से 
तेर लिए कुदरत का हसीं नज़ारा बन जाऊँगा 

बेवजह गम के दरिया में यूं ही डूबना ठीक बात नहीं 
तेरी मोहब्बत की किस्ती का मै किनारा बन जाऊँगा 

तुम तनहा मत समझो इस ज़माने में खुद को 
तू हाथ बढ़ा कर देख, तेरा सहारा बन जाऊँगा 

बुरा वक़्त कभी पूछ कर नही आता जिंदगी में 
तेरी ख़ुशी की खातिर अच्छे वक़्त का इशारा बन जाऊंगा 

11 मार्च 2016

गरीबो पे जंग -- राहुल कुमार


ये कैसा सरकार ने कदम उठा रखा है
जंग गरीबो पे खतरनाक चला रखा है
गरीबो को हटाना है, उन्ही के  देश से
प्याज की बढती  कीमत तो एक बहाना है
__________________
दो बूँद पानी की मिल जाए , शुक्र है
हम गरीबो को और, क्या ज्यादा  सुख है
लूटने के लिए सारा देश तो दे रखा है
अब क्या हमारी आत्मा से भी बैर निभाना है
________________
लाल बत्ती के शोर में गुम है इतने
हमारी आँखों से गिरते आँसू की आवाज ,
कहाँ  सुन पाएँगे
आतंक से जंग तो जीत नहीं पाए
अब क्या हम गरीबो के सीने पे
बन्दूक  चलायेगे  ??

लेखक परिचय - राहुल कुमार 


7 मार्च 2016

ये मेआर...

ये मेआर...

बेटियो से
मधु मिश्रित ध्वनि से पुछा

कहाँ से लाती हो, 
ये मेआर
नाशातो की सहर            
हुनरमंद तह.जीब,और तांजीम
सदाकत,शिद्दतो की मेआर,
जी..
मैने हँस कर कहाँ
मेरी माँ ने संवारा..
उसी ने बनाया है
स्वयं को कस कर
हर पलक्षिण में

इक नई कलेवर के लिए

शनैः शनैः पोशाक बदल कर

औरो को नहीं
बस..
खुदी को सवांरा...
इल्म इस बात की
कमर्जफ हम नहीं

हमी से जमाना है...
                © पम्मी

दिल की बातें क्या कहूँ नहीं बढ़ाई हाथ........शंकर मुनि राय "गड़बड़"

बासंती को देखकर आम गये बौराय।
कोयल रगड़े गाल तब फूल रहे मुस्काय॥

कलियों पर होने लगी भौंरों की भरमार।
मौसम मीठा हो गया पेड़ गिराये लार॥

लंबे दिन के बाद जब आती प्यारी रात।
दुल्हन-सी सकुचा रही पूरी न होती बात॥

जीजा के व्यवहार से साली मालामाल।
देवर-भाभी साथ तब मौसम लाल-गुलाल॥

ससुरालों में हो रही दामादों की भीर।
बीते दिन को याद कर सास हुईं गंभीर॥

मन का पंछी पूछता कहाँ बनायें नीड़।
कविता प्यारी छोड़ती नहीं हमारी पीड़॥

कितने गये बसंत पर गई न मन की हूक।
प्यारे सुनता ही रहा कोयलवाली कूक॥

मौसम "गड़बड़" हो गया यारो उसके साथ।
दिल की बातें क्या कहूँ नहीं बढ़ाई हाथ॥

शंकर मुनि राय "गड़बड़"
shankermunirai@gmail.com