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19 फ़रवरी 2017

तेवरीः शिल्प-गत विशेषताएं +रमेशराज




तेवरीः शिल्प-गत विशेषताएं

+रमेशराज
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    जब हम किसी कविता के शिल्प पर चर्चा करते हैं तो शिल्प से आशय होता है-उस कविता के प्रस्तुत करने का ढंग अर्थात प्रस्तुतीकरण। प्रस्तुत करने की यह प्रक्रिया उस कविता की भाषा, छंद, अलंकार, मुहावरे, शब्द-प्रयोग, प्रतीक, मिथक आदि विषय-वस्तुओं के ऊपर पूर्णरूपेण निर्भर होती है।
    इन संदर्भों में यदि हम तेवरी और ग़ज़ल के शिल्प पर सूक्ष्म चिन्तन-मनन करें तो तेवरी और ग़ज़ल एक दूसरे से किसी भी स्तर पर कोई भी साम्य स्थापित नहीं करतीं। तेवरी की रचना अधिकांशतः हिन्दी काव्य के छंदों पर आधारित है अर्थात् तेवरी में सन्तुलन लघु और दीर्घ स्वरों के प्रयोग, क्रम और संख्या अर्थात् मात्राओं के अनुसार किया जाता है। इसके लिये ग़ज़ल की बहरों की तरह लघु और दीर्घ स्वरों का एक निश्चित क्रम में आना कोई आवश्यक शर्त नहीं है। स्वर-प्रयोग इस बात पर ज्यादा निर्भर करते हैं कि रचना अधिक से अधिक सम्प्रेषणशील किस तरह बनायी जाये। और यही कारण है कि तेवरी में इस प्रकार के छंदों का प्रयोग काफी दृष्टिगोचर हो रहा है जो कि भारतीय संस्कृति में रचा-बसा है। चौपाई, दोहा, आल्हा, घनाक्षरी, सवैया, रोला, सरसी, तांटक आदि छंद आम जनता के जीवन के निकट से उठाये गये हैं ताकि तेवरी जन-मानस की भाषा-संस्कृति के साथ घुलमिल कर एक ऐसी भाषा और छंद का निर्माण करे जो अपना-सा लगे। छंदों का प्रयोग उनके पूर्व प्रचलित रूप में न करके उनको अन्त्यानुप्रास वैशिष्ट्य के कारण तेवरी के रूप में स्वीकारा गया है। उदाहरण स्वरूप-
‘‘बस्ती-बस्ती मिल रहे, अब भिन्नाये लोग
सीने में आक्रोश की, आग छुपाये लोग।
मन्दिर-मस्जिद में मिले, हर नगरी, हर गांव
धर्म, न्याय, भगवान से चोटें खाये लोग।
    उपरोक्त छंद दोहे के निकट का छंद है, किन्तु अपने अंत्यानुप्रास की विशेषता के कारण यह दोहा न होकर तेवरीका रूप ग्रहण किये हुए है क्योंकि इसकी प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ पंक्तियों के अन्त में भिन्नाये’, ‘छुपाये’, ‘खायेसमतुकांत और लोगशब्द की पुनरावृत्ति तथा तीसरी पंक्ति का चौथी पंक्ति के अंत्यानुप्रास से मेल न खाना इसे दोहे की विशेषताओं से भिन्न किये हुए हैं या ये कहा जाये कि उपरोक्त प्रयोग दोहों में तेवरी का प्रयोगहै तो कोई अतिशियोक्ति न होगी। ठीक यही बात तेवरी में हिन्दी काव्य के अन्य परम्परागत छंदों के साथ भी लागू होती है।
घनाक्षरी, चौपाई, सरसी, तांटक, आल्हा आदि के तेवरी में कुछ प्रयोग और देखें-
सबकौ खूं  पी लेत सहेली
खद्दरधारी प्रेत सहेली।
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डाकुओं का तुम ही सहारौ थानेदार जी
नाम खूब है रह्यौ तिहारौ थानेदार जी।
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लूटें गुन्डे लाज द्रोपदी नंगी है
देखो भइया आज द्रोपदी  नंगी है।
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बस्ती-बस्ती आदमखोरों की चर्चाएं हैं
अब तो डाकू तस्कर चोरों की चर्चाएं हैं।
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सारी उमर हुई चपरासी चुप बैठा है गंगाराम
चेहरे पर छा गई उदासी चुप बैठा है गंगाराम।
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गांव-गांव से खबर मिल रही, सुनिये पंचो देकर ध्यान।
जनता आज गुलेल हो रही, कविता होने लगी मचान।
    तेवरी की प्रथम दो पंक्तियों जिनके अग्र व पश्च तुकांत आपस में मिलते हैं, उन्हें प्रथम तेवर कहा जाता है। तत्पश्चात् तीसरी व चौथी पंक्ति [ जिनमें तुकांत-साम्य हो भी सकता है और नहीं भी ] को मिलाकर दूसरा तेवर बोला जाता है। ठीक इसी तरह तीसरा, चौथा, पांचवां, अन्तिम तेवर मिलाकर सम्पूर्ण तेवरी का निर्माण होता है।
    तेवरी के तेवरों की कोई संख्या निर्धारित नहीं है, वह दो से लेकर पचास-सौ तक भी हो सकती है। साथ ही कोई जरूरी नहीं कि तेवरी में ग़ज़ल के मतला-मक्ता जैसी कोई मजबूरी हो। समस्त तेवर ग़ज़ल के सामान्य शेरों या मतला-मक्ताओं की तरह भी प्रयुक्त हो सकते हैं। तेवरी में तुकांतों का प्रयोग संयुक्त तथा प्रथक दोनों रूपों में हो सकता है।
तेवरी के तेवरों का कथ्य किसी गीत की तरह श्रंखलाबद्ध तरीके से समस्त पंक्त्यिों के साथ आपस में जुड़ा होता है अर्थात् तेवरी के तेवरों के संदर्भ एक दूसरे के अर्थों को पूर्णता प्रदान करते हुए आगे बढ़ते हैं, जबकि ग़ज़ल के साथ इसके एकदम विपरीत है।
    इस प्रकार छन्दगत विशेषताओं के आधार पर यह बात बलपूर्वक कही जा सकती है कि तेवरी अलग है और ग़ज़ल अलग। जिनमें मात्र अन्त्यानुप्रास [ वो भी ज्यों का त्यों नहीं ] के अलावा कोई साम्य नहीं।
    तेवरी की भाषा जन सामान्य की बोलचाल की भाषा है। इसमें प्रयुक्त होने वाले शब्द जन साधारण के बीच से उठाये गये हैं। कुछ बोलचाल की भाषा के प्रयोग देखिए-
‘‘धींगरा ते कब हूं न पेस तियारी पडि़ पायी
         बोदे निर्बल कूं ही मारौ थानेदारजी।
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नाते रिश्तेदार और यारन की घातन में
जिन्दगी गुजरि गयी ऐसी कछु बातन में।
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यार कछु गुन्डन कौ नेता नाम परि गयौ
हंसि-हंसि देश कूं डुबाय रहे सासु के।’’
    कुछ खड़ी बोली के जन सामान्य के सम्बोधन के प्रयोग-
है हंगामा शोर आजकल भइया रे
हुए मसीहा चोर आजकल भइया रे।
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अब तो प्रतिपल घात है बाबा
दर्दों की सौगात है बाबा।
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कुंठित हर इंसान है भइया
करता अब विषपान है भइया।
    तेवरी की भाषा सपाट और एकदम साफ-साफ है। वह पाठक को लच्छेदार प्रयोगों के रहस्य में उलझाकर भटकाती नहीं है। इसी कारण तेवरी में अभिधा के प्रयोगों का बाहुल्य मिलता है-
खादी आदमखोर है लोगो
हर टोपी अब चोर है लोगो।
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देश यहां के सम्राटों ने लूट लिया
सत्ताधारी कुछ भाटों ने लूट लिया।
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वही छिनरे, वही डोली के संग हैं प्यारे
देख ले ये सियासत के रंग हैं प्यारे।
    तेवरी की भाषा इतनी सहज, सम्प्रेषणीय है कि उसे समझाने के लिये शब्दकोष नहीं टटोलने पड़ते-
रिश्वते चलती अच्छी खासी, खुलकर आज अदालत में
सच्चे को लग जाती फांसी, खुलकर आज अदालत में।
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रोजी-रोटी दें हमें या तो ये सरकार
वर्ना हम हो जायेंगे गुस्सैले खूंख्वार।
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खेत जब-जब भी लहलहाता है
सेठ का कर्ज याद आता है।
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हमारे पूर्वजों को आपने ओढ़ा-बिछाया है
कफन तक नोच डाला लाश को नंगा लिटाया है।
    तेवरी में प्रयुक्त होने वाले अलंकारों में तेवरी के तुकांतों में वीप्सा शब्दालंकार के प्रयोग बहुतायत से मिलते हैं। अर्थात् पंक्तियों के अंत में घृणा, शोक, विस्मय, क्रोधादि भावों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति के लिये शब्दों की पुनरावृत्ति होती है-
सब परिन्दे खौफ में अब आ रहे हैं हाय-हाय
बाज के पंजे उछालें खा रहे हैं हाय-हाय।
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खरबूजे पर छुरी चलायी टुकड़े-टुकड़े
इज्जत अपनी बची-बचायी टुकड़े-टुकड़े।
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इस बस्ती में हैं सभी टूटे हुए मकान
सुविधाओं के नाम पर लूटे हुए मकान।
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लूटता साहूकार, क्या कहिये
उसे खातों की मार, क्या कहिये।
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मन पर रख पत्थर कोने में
हम रोये अक्सर कोने में।
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हर सीने में आजकल सुविधाओं के घाव
रोज त्रासदी से भरी घटनाओं के घाव।
    अर्थालंकार के अन्तर्गत बिच्छू, सांप, शैतान, मछली, काठ के घोड़े, रोटी, बहेलिया, आदमखोर, तस्कर, चोर, डकैत, भेडि़या, चाकू, थानेदार, टोपी, वर्दी, कुर्सी, तलवार, गुलेल, साजिशी, जुल्मी, बाज, चील, अत्याचारी, जनसेवकजी, अपराधी, सम्राट, भाटआदि शब्दों का आदमी के लिये उपमानों तथा प्रतीक के रूप में प्रयोग खुलकर मिलता है।
मैं आदमखारों में लड़ लूं
तुझको चाकू बना लेखनी।
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जिस दिन तेरे गांव में आ जायेगी चील
बोटो-बोटी जिस्म की खा जायेगी चील।
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तड़प रहे हैं गरम रेत पर मछली-से
हम भूखे लाचार सेठ के खातों में।
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मंच-मंच पर चढ़े हुए हैं जनसेवकजी
हाथ जोड़कर खड़े हुए हैं जनसेवकजी।
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आदमी को खा रही हैं रोटियां
हिंसक होतो जा रही हैं रोटियां।
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सब ही आदमखोर यहां हैं
डाकू, तस्कर, चोर यहां हैं।
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आप इतना भी नहीं जानते, हद है
गिरगिट भी आज देश में आदमकद है।
    तेवरी में कई स्थानों पर शब्द-प्रयोग इस प्रकार मिलते हैं कि उनके चमत्कारों के कारण सम्प्रेषण अधिक बढ़ जाता है-
सिगरेट, गाय, धर्म, सूअर की बात यहां
मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर की बात यहां।
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दंगा, कर्फ्यू, गश्त, सन्नाटा
शहर-शहर आहत है लोगो।
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बर्दी टोपी लाठी गोली
घायल पीडि़त जनता भोली।
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चांद, सितारे, तारे, घुंघरू, पायल, झांझर, खुशबू, झील।
कैसे-कैसे बुनते सपने अब तो ये दीवाने लोग।
उपरोक्त तेवरों में शब्दों का इस तरह से प्रयोग किया है कि ये शब्द एक साथ मिलकर जो बिम्ब खड़ा करते हैं , उसमें कविता का मुख्य कथ्य छुपा होता है। जैसे प्रथम तेवर के सिगरेट, गाय, धर्म, सूअर, मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर यहां साम्प्रदायिकता का एक जीवंत बिम्ब बनाते हैं।
तेवरी में मुहावरों के अछूते प्रयोग भी मिलते हैं-
‘‘छोटा बड़ा एक दाम होगा
सियासत की फसल का आम होगा।
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जो भी बनता पसीने का लहू
तोंद वालों के काम आता है।
जो भी आता है मसीहा बनकर
सलीब हमको सौंप जाता है।
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भीड़ का चेहरा पढ़े फुरसत किसे
हाथ में सबके लगा अखबार है।
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वैसे तो बिच्छुओं की तरह काटते है ये
अटकी पे मगर तलुआ तलक चाटते हैं ये।
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गोबर कहता है संसद को और नहीं बनना दूकान
परचों पर अब नहीं लगेंगे आंख मूँदकर और निशान।
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हर आदमी आज परेशान है भाई
हादसों के गांव का मेहमान है भाई।
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आजादी का मतलब केवल हाथ जोड़कर खड़े रहो
धोखा देते रहे सियासी चुप बैठा है गंगाराम।
    उपरोक्त तेवरों में सियासत की फसल का आम’, ‘मसीहा बनकर आना’, ‘सलीब सोंपना’, ‘भीड़ का चेहरा पढ़ना’, ‘बिच्छू की तरह काटना’, ‘तलुआ तलक चाटना’, ‘संसद का दूकान बनना’, ‘आंख मूंदकर निशान लगाना’, ‘हादसों के गांव का मेहमान’, ‘हाथ जोड़कर खड़ा रहनाआदि ऐसे मुहावरों के सीधे और सहज प्रयोग हैं जो तेवरी के शिल्प में चार चांद लगा देते हैं।
    तेवरी में समसामयिक यथार्थ के संदर्भों में प्रयुक्त कुछ पौराणिक ऐतिहासिक प्रतीकों और मिथकों के सार्थक प्रयोग और देखिए-
‘‘पी लिया सच का जहर जब से हमारे प्यार ने
जिन्दगी लगती हमें सुकरात का एक घाव है।
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अम्ल से धोये गये अब के सुदामा के चरण
पांव में अब कृष्ण की परात का एक घाव है।
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हंसा रही है एक मुर्दा चेहरे को
जि़न्दगी-सुलोचना क्या करें?
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हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम।
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होरी के थाने से डर है
झुनियां आज जवान हो गयी।
    इस प्रकार यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि भाषा अलंकार, मुहावरे, प्रतीक, मिथक और शब्द-प्रयोग के आधार पर भी तेवरी और ग़ज़ल में किंचित साम्य नहीं है। एक तरफ ग़ज़ल की भाषा, मुहावरे प्रतीक मिथक, अलंकार और शब्द-प्रयोग में जहां साकी, शराब, मयखाना, वस्ल, दर्द, अलम, यास, तमन्ना, हसरत, तन्हाई, फिराक, महबूबा, नामावर, जाहिद, सुरूर, कमसिनी, प्रेम के तीर खाने की हवस, तसब्बुरे-जाना, मख्मूर आखें, गाल, चाल, तिल, जुल्फों के इर्द भटकाते हैं, वहां तेवरी आम आदमी की भाषा के साथ एकाकार होकर सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति देती है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

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