आज मुझे एक बार फिर आदरणीय अंजली अग्रवाल जी की ये कविता याद आ गयी....
पानी के बुलबुले सी एक लड़की थी ॰॰॰॰
होठों पर मुस्कान लिये घर से निकली थी ॰॰॰॰
कि पड़ नजर शैतानों की॰॰॰॰
और डूब गयी नाव इंसानियत की॰॰॰॰
ओढ ली थी काली चादर आसमान ने॰॰॰॰
निर्वस्त्र कर दिया था भारत माँ को आज इस संसार ने॰॰॰॰
चीखें गूँजती रही मासूम सी जान की॰॰॰॰
बन गयी शिकार वो शैतानों के हवस की॰॰॰॰
कहर की अविरल धारा बहती रही॰॰॰॰
और वो ओस की बूंन्दो सी पिघलती रही ॰॰॰॰
जिस्म गलता रहा और तड़पती रही वो॰॰॰॰
आखिर बन ही गयी लाश वो॰॰॰॰
उसकी मृत आँखें जैसे सारा किस्सा बयां करती थी॰॰॰॰
उसके मृत होंठ सिसकते यह कहते थे कि॰॰॰॰
“ यह संसार नहीं दरिंदों का मेला है, नहीं रहना अब मुझे इस दुनिया में ,
यहाँ सिर्फ अपमान मेरा है ।”
“आज रेप मेरा नहीं इस देश का हुआ है, क्योंकि इस देश का कानून , अंधा है।”
उसकी मृत काया मानो चीख—चीख कर एक ही गुहार लगाती हो॰॰॰॰
“ कि तभी आग लगाना इस शरीर को॰॰॰॰
जब सुला दो इन लड़कियों में उन दरिंदों को
और दिला न पाये इंसाफ मुझे, तो सड़ जाने देना इस शरीर को ॰॰॰॰
क्योंकि जल तो गयी थी मैं , उसी दिन को॰॰॰॰
अब क्या जलाओगे तुम इस राख को —
इस राख को ”
।
पानी के बुलबुले सी एक लड़की थी ॰॰॰॰
होठों पर मुस्कान लिये घर से निकली थी ॰॰॰॰
कि पड़ नजर शैतानों की॰॰॰॰
और डूब गयी नाव इंसानियत की॰॰॰॰
ओढ ली थी काली चादर आसमान ने॰॰॰॰
निर्वस्त्र कर दिया था भारत माँ को आज इस संसार ने॰॰॰॰
चीखें गूँजती रही मासूम सी जान की॰॰॰॰
बन गयी शिकार वो शैतानों के हवस की॰॰॰॰
कहर की अविरल धारा बहती रही॰॰॰॰
और वो ओस की बूंन्दो सी पिघलती रही ॰॰॰॰
जिस्म गलता रहा और तड़पती रही वो॰॰॰॰
आखिर बन ही गयी लाश वो॰॰॰॰
उसकी मृत आँखें जैसे सारा किस्सा बयां करती थी॰॰॰॰
उसके मृत होंठ सिसकते यह कहते थे कि॰॰॰॰
“ यह संसार नहीं दरिंदों का मेला है, नहीं रहना अब मुझे इस दुनिया में ,
यहाँ सिर्फ अपमान मेरा है ।”
“आज रेप मेरा नहीं इस देश का हुआ है, क्योंकि इस देश का कानून , अंधा है।”
उसकी मृत काया मानो चीख—चीख कर एक ही गुहार लगाती हो॰॰॰॰
“ कि तभी आग लगाना इस शरीर को॰॰॰॰
जब सुला दो इन लड़कियों में उन दरिंदों को
और दिला न पाये इंसाफ मुझे, तो सड़ जाने देना इस शरीर को ॰॰॰॰
क्योंकि जल तो गयी थी मैं , उसी दिन को॰॰॰॰
अब क्या जलाओगे तुम इस राख को —
इस राख को ”
।
मार्मिक..
जवाब देंहटाएंशब्द रहित प्रतिक्रिया
सादर
मार्मिक ,समाज की घिनौनी सत्ययता का अनावरण करती रचना
जवाब देंहटाएंअंतःकरण को झकझोरती मार्मिक रचना। वेदना को स्वर देती, समाज को आइना दिखाती समयपरक रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (20-07-2017) को ''क्या शब्द खो रहे अपनी धार'' (चर्चा अंक 2672) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार
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