ब्लौग सेतु....

23 नवंबर 2017

बता दूँगा तेरा हर ऐब मैं फिर से

जरा तुम इश्क  को फिर से निखरने दो ।
महक तुम हुस्न की फिर से बिखरने दो ।।

यक़ी कर लूं  मुहब्बत का  तेरी फिर से ।
वफ़ा गर  आग से  फिर  से  गुजरने दो ।।

उसी ने काँच  तोड़ा  इस  दफा फिर से ।
बटोरो  मत  इन्हें  फिर  से  बिखरने दो ।।

बता   दूँगा   तेरा  हर  ऐब  मैं  फिर  से ।
बशर्ते   इश्क़   मे  फिर   से  उतरने  दो ।।

रूठा है  वक़्त ये  अबकी दफा फिर से ।
मुझे एक  बार बस  फिर से  सवरने दो ।।

    - हिमांशु मित्रा 'रवि'

12 नवंबर 2017

हे प्रिय

ये सुनने मे कोई कष्ट नही

तुम किसी और की हो 

सत्य है ये 

कष्ट तो तब होता है

जब तुम मेरे वास्तविक स्वप्न मे आती हो

कदाचित न आया करो

हे प्रिय! 

तुम्हारे आने से मेरी सांस

ऊर्ध्वप्रवाहित होने लगती है 

कौन सा बल है तुम मे,

जो धरा के मनुष्य मे नही

यदि होता तो मेरे लिए सरल होता

प्रतिदिन टूटते इन अश्रुओं के बांध को 

एक स्थायित्व देना

     -- हिमांशु मित्रा

11 नवंबर 2017

जिंदगी का मान न कर

बड़ी ख़ुशी के लिए छोटी ख़ुशी को कुर्बान न कर 
खुदा के हसीं लम्हो का तू यूं अपमान न कर 
कतरा-कतरा मिट जाएगी तेरी जिंदगी यूं ही 
जन्नत जमीं पर है तेरी ,काबू में आसमान न कर  
समेट ले हर हसीं लम्हे को तू दामन में 
पहले ही देर है अब तू सुबह से शाम न कर 
धुलने दे दिल के जज़्बातों को किसी के आंसुओं से 
बेवजह यूं ही तू अपने पराये की पहचान न कर 
इन बेवफा साँसों का पल भर का भी भरोसा नहीं 
तू यूं ही सालों का इकठा सामान न कर 
 जहाँ जीत कर भी हासिल क्या हुआ सिकंदर को 
मौत साथ है तेरे तू इस जिंदगी का मान न कर 
तेरा ये ठिकाना कल किसी और का घर होगा हितेश 
जिंदगी की चाह में तू मौत को यूं बदनाम न कर

10 नवंबर 2017

डाकिया



डाकिया अब भी आता है बस्तियों में 
थैले में नीरस डाक लेकर, 
पहले आता था 
जज़्बातों से लबालब थैले में  आशावान सरस डाक लेकर। 


गाँव से शहर चला बेटा या चली बेटी तो माँ कहती थी -
पहुँचने पर चिट्ठी ज़रूर भेजना 
बेटा या बेटी चिट्ठी लिखते थे 
क़ायदे भरपूर लिखते थे 
बड़ों को प्रणाम 
छोटों को प्यार लिखते थे 
साथ लाये सामान का हाल लिखते थे 
ज़माने की चाल लिखते थे
थोड़ा लिखा बहुत समझना लिखते थे । 



साजन और सजनी भी ख़त लिखते थे 
आशिक़ महबूबा भी ख़त लिखते थे
मित्र-मित्र को प्यारे ख़त लिखते थे 
ख़त आचरण और यादों के दस्तावेज़ बनते थे
कभी-कभी ठोस कारगर क़ानूनी सबूत बनते थे 
डाकिया को  ख़त  कभी न बोझ लगते थे
ख़त पढ़कर सुनाने में महाबोझ लगते थे।

कभी  बेरंग ख़त भी आता था 
पाने वाला ख़ुशी से दाम चुकाता था 
डाकिया सबसे प्यारा सरकारी मुलाज़िम होता था 
राज़,अरमान,राहत,दर्द ,रिश्तों की फ़सलें बोता था  
डाकिया चिट्ठी  तार पार्सल रजिस्ट्री मनी ऑर्डर  लाता था  
डाकिया कहीं ख़ुशी बिखराता कहीं ग़म के सागर लाता था।  


आज भी डाकिया आता है
राहत कम आफ़त ज़्यादा लाता है
पोस्ट कार्ड नहीं रजिस्ट्री ज़्यादा लाता है
ख़ुशियों का पिटारा नहीं
थैले में क़ानूनी नोटिस लाता है। 

#रवीन्द्र सिंह यादव

शब्दार्थ / Word  Meanings 

बेरंग ख़त = ऐसा पत्र जो प्रेषक  द्वारा बिना टिकट लगाए या डाकघर में मिलने वाले लिफ़ाफ़े में रखकर न भेजा गया  हो बल्कि सादा  लिफ़ाफ़े में भेजा गया हो जिसे पाने वाला टिकट का दुगना दाम चुकाकर प्राप्त करता था।  समय और पैसे की कमी के चलते ऐसा किया जाता था / A  Without  Ticket  Letter

तार = आपातकालीन या ख़ुशी की सूचना अति शीघ्र पहुँचाने के लिए यह संचार सुबिधा बड़े डाकघरों में सुबह 8 बजे से रात्रि 9  बजे तक उपलब्ध होती थी।  27 शब्दों का शुल्क 50 रुपये लिया जाता था इस सुबिधा के 163 साल चलने के बाद 15 जुलाई 2013 को समापन के वक़्त / Telegram  



8 नवंबर 2017

वफ़ा लिपट कर थी रात भर रोई


कही  गुम है शदा  इसकी खबर क्या।
जब हमारे  हर दफा  अब सबर क्या।।

मका  भी  फुर्सत  से   लूटा  गया था।
लुट गया सब  रखे भी तो नजर क्या।।

वफ़ा  लिपट   कर  थी  रात  भर रोई।
गिरा अश्क जिधर देखे वो अधर क्या।।

हुई  खत्म   मुहब्बत   दरमियां  हमारे।
ज़हाँ  मैं   है   बता  कोई  अजर  क्या।।

मिरी   इस    हार    पर   वो   खुश  है।
बता  देखा   कभी   ऐसा   मंज़र  क्या।।

उसे  याद  तक  नही  आता 'मित्रा' ये।
जमी  दिल  की  रहेगी अब बंजर क्या।।
          
           ✍🏻✍🏻हिमांशु मित्रा 'रवि'

5 नवंबर 2017

ग़ज़ल



अफसान-ऐ-दर्द को नज्मो की तरह गाने की जरूरत नही है।
आश्ना हु मैं हाँ अब तुम्हे कुछ भी  बताने  की  जरूरत नही है।।

बन्द हो चुके  उसके लिए  अब इन  दिनों  इस राह के दरवाजे।
कह दो उसे उसको अब दिल-ए-राह आने की जरूरत नही है।।

हँस कर  हर  दफा  छोड़  देता  है  तुझे  वो बहुत  आसानी  से।
हर बार  की तरह  फिर से लौट कर आने  की जरूरत नही  है।।

हर तरफ ये कैसा  फ़ुसूँ है उस  सितमगर  की  हँसी  यादों  का।
हूँ तलबगार इन सब  का  इनको  मिटाने  की  जरूरत  नही है।।

तू अब कहा भी क्यों नही देता सितमगर के सभी  राज  जनिब।
उसका गम़्माज़ नही 'मित्रा' उससे छुपाने की  जरूरत  नही  है।।


           ---- हिमांशु मित्रा 'रवि' ---