डाकिया अब भी आता है बस्तियों में
थैले में नीरस डाक लेकर,
पहले आता था
जज़्बातों से लबालब थैले में आशावान सरस डाक लेकर।
गाँव से शहर चला बेटा या चली बेटी तो माँ कहती थी -
पहुँचने पर चिट्ठी ज़रूर भेजना
बेटा या बेटी चिट्ठी लिखते थे
क़ायदे भरपूर लिखते थे
बड़ों को प्रणाम
छोटों को प्यार लिखते थे
साथ लाये सामान का हाल लिखते थे
ज़माने की चाल लिखते थे
थोड़ा लिखा बहुत समझना लिखते थे ।
साजन और सजनी भी ख़त लिखते थे
आशिक़ महबूबा भी ख़त लिखते थे
मित्र-मित्र को प्यारे ख़त लिखते थे
ख़त आचरण और यादों के दस्तावेज़ बनते थे
कभी-कभी ठोस कारगर क़ानूनी सबूत बनते थे
डाकिया को ख़त कभी न बोझ लगते थे
ख़त पढ़कर सुनाने में महाबोझ लगते थे।
कभी बेरंग ख़त भी आता था
पाने वाला ख़ुशी से दाम चुकाता था
डाकिया सबसे प्यारा सरकारी मुलाज़िम होता था
राज़,अरमान,राहत,दर्द ,रिश्तों की फ़सलें बोता था
डाकिया चिट्ठी तार पार्सल रजिस्ट्री मनी ऑर्डर लाता था
डाकिया कहीं ख़ुशी बिखराता कहीं ग़म के सागर लाता था।
आज भी डाकिया आता है
राहत कम आफ़त ज़्यादा लाता है
पोस्ट कार्ड नहीं रजिस्ट्री ज़्यादा लाता है
ख़ुशियों का पिटारा नहीं
थैले में क़ानूनी नोटिस लाता है।
#रवीन्द्र सिंह यादव
शब्दार्थ / Word Meanings
बेरंग ख़त = ऐसा पत्र जो प्रेषक द्वारा बिना टिकट लगाए या डाकघर में मिलने वाले लिफ़ाफ़े में रखकर न भेजा गया हो बल्कि सादा लिफ़ाफ़े में भेजा गया हो जिसे पाने वाला टिकट का दुगना दाम चुकाकर प्राप्त करता था। समय और पैसे की कमी के चलते ऐसा किया जाता था / A Without Ticket Letter
तार = आपातकालीन या ख़ुशी की सूचना अति शीघ्र पहुँचाने के लिए यह संचार सुबिधा बड़े डाकघरों में सुबह 8 बजे से रात्रि 9 बजे तक उपलब्ध होती थी। 27 शब्दों का शुल्क 50 रुपये लिया जाता था इस सुबिधा के 163 साल चलने के बाद 15 जुलाई 2013 को समापन के वक़्त / Telegram