मैं जीना चाहूं बचपन अपना,
पर कैसे उसको फिर जी पाऊं!
मैं उड़ना चाहूं ऊंचे आकाश,
पर कैसे उड़ान मैं भर पाऊं!
मैं चाहूं दिल से हंसना,
पर जख्म न दिल के छिपा पाऊं।
मैं चाहूं सबको खुश रखना,
पर खुद को खुश न रख पाऊं।
न जाने कैसी प्यास है जीवन में,
कोशिश करके भी न बुझा पाऊं।
इस चक्रव्यूह से जीवन में,
मैं उलझी और उलझती ही गई।
खुशियों को दर पर आते देखा,
पर वो भी राह बदलती गई।
बनकर इक पिंजरे का पंछी,
मैं बंधन में नित बंधती गई।
आंखों के सपने ,सपने ही रहे,
औरों के पूरे करती रही।
हर मोड़ पर सबका साथ दिया,
अपने ग़म में बस अकेली रही।
मेरे मन की बस मन में रही,
पल-पल बस मैं घुटती रही।
नित नई परीक्षा जीवन की,
बस जीवन को ही पढ़ती रही।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 21 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सहृदय आभार सखी सादर
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (22-09-2019) को "पाक आज कुख्यात" (चर्चा अंक- 3466) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
सहृदय आभार सखी सादर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय
हटाएंबहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय
हटाएंबहुत सुंदर और भावपूर्ण रचना।
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
iwillrocknow.com
सहृदय आभार 🙏
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