हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है॥
कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख न करे,
अब इस जा कोई कंवारी न बेची जाएगी।
ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फ़सलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जायेगी॥
यह सर ज़मीन है गौतम की और नानक की,
इस अर्ज़े-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी।
हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी॥
कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहे,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना ! बधाई स्वीकार करें !
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साहिर साहब का जवाब नहीं है...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।
जवाब देंहटाएंदिल जो छूने वाले शब्द...आभार !
जवाब देंहटाएंbahut hi behtreen :)
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