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27 फ़रवरी 2014
25 फ़रवरी 2014
एक गजल
हैवान हो गये
राजेश त्रिपाठी
इनसान थे कभी जो, हैवान हो गये।
वो तो मुश्किलों का सामान हो गये।।
कहीं औरतों की अस्मत है लुट रही।
कहीं मजलूमों की सांसें हैं घुट
रही।।
कहीं हर तरफ नफरत है पल रही।
इनसानी वसूलों की बलि है चढ़
रही।।
खतरों के हर तरफ इमकान हो गये।
ये देख कर हम तो हैरान हो गये।।
मतलबपरस्त हैं अब यार हैं कहां।
सच पूछिए तो सच्चा प्यार है
कहां।।
इनसान से बढ़ कर पैसा हो जहां।
कैसे कोई अजमत बचायेगा वहां।।
इनसान तो धरती के भगवान हो गये।
जो मुफलिस हैं और भी हलकान हो गये।।
फाकाकशी कहीं है कहीं जुल्म-ओ-बरबादी।
तकलीफजदा है मुल्क की आधी आबादी।।
सियासत की चालों का हुआ ओ असर है।
बेल नफरत की फैली शहर दर शहर है।।
चारों तरफ कोहराम के मंजर हैं हो गये।
अमन के फरिश्ते तो जाने कहां सो गये।।
हद हो गयी अब तो कोई जतन कीजिए।
मुल्क में अमन हो इल्म ऐसा कीजिए।।
जुल्मत से ये दुनिया है बेजार हो
गयी।
मुहब्बत की रोशनी की दरकार हो
गयी।।
जो हो रहा वह देख कर हम तो पशेमान हो गये।
क्या थे, क्या था होना क्या यहां इनसान हो गये।।
22 फ़रवरी 2014
कुछ लपटे तो वहा भी उठ रही थी - कुँवर जी
हर और आग थी,
जलन थी,
धुआँ...
बड़ी मुश्किल से एक कोना ढूँढा ...
बैठे,
कुछ अपने दिल में झाँका,
देखा...
कुछ लपटे तो वहा भी उठ रही थी!
अब..?
लेखक-- कुंवर जी
जलन थी,
धुआँ...
बड़ी मुश्किल से एक कोना ढूँढा ...
बैठे,
कुछ अपने दिल में झाँका,
देखा...
कुछ लपटे तो वहा भी उठ रही थी!
अब..?
लेखक-- कुंवर जी
14 फ़रवरी 2014
वो तेरा मुसकराना सबेरे-सबेरे
राजेश
त्रिपाठी
वो तेरा मुसकराना सबेरे-सबेरे।
ज्यों बहारों का आना सबेरे-सबेरे।।
पागल हुई
क्यों ये चंचल हवा।
आंचल
तेरा क्यों उड़ाने लगी।।
बागों
में कोयल लगी बोलने ।
मन मयूरी
को ऐसा लुभाने लगी।।
कामनाओं ने लीं फिर से अंगडाइयां।
जो तुम याद आयीं सबेरे-सबेरे।।
मौसम में
रौनक नयी आ गयी।
हर तरफ
रुत बसंती है छा गयी।।
मन हुआ
बावरा तेरे प्यार में।
तुम बिन
भाता नहीं कुछ संसार में।।
तुम नहीं तो ऐसा मुझको लगा।
मन गया हो ठगा सबेरे-सबेरे।।
तुम जिधर
देखो जिंदगी सांस ले।
तुमसे हर
कली ऐसा एहसास ले।।
गंध भर
दे, तन-मन कर दे मगन।
जग उठे
मन में मिलन की अगन।।
बज उठी हैं हवाओं में शहनाइयां।
क्या तुमने कहा कुछ सबेरे-सबेरे।।
तुम मेरी
जिंदगी, तुम मेरा ख्वाब हो।
हर
सवालों को तुम ही तो जवाब हो।।
तेरी
आंखों में देखे हैं शम्सो-कमर*।
नूर ही नूर है जिधर है तेरी नजर।।
जिंदगी जिंदगी बन गयी।
नजर तुमसे मिली जो सबेरे-सबेरे।।
तुम
विधाता का सुंदर वरदान हो।
तुम
धड़कते दिलों का अरमान हो।।
तुम मेरी
बंदगी, जिंदगी हो मेरी।
तुम मेरी
कामना, कल्पना हो मेरी।।
यों लगा घिरी सावनी फिर घटा।
तुमने जुल्फी संवारीं सबेरे-सबेरे।
* शम्सो-कमर=सूरज-चांद
* शम्सो-कमर=सूरज-चांद
13 फ़रवरी 2014
.......बिना कर्म के मुक्ति नही--- समीर महाजन
संसार कर्म प्रधान है, बिना कर्म के
कुछ भी सम्भव
नहीं। थोड़ा पढ़-लिख कर
व्यक्ति सोचता है कि कर्म
करूंगा तो फल मिलेगा, वो फल इस
जन्म में या अगले
जन्म में भोगना पड़ेगा। इससे
अच्छा है कि कर्म
ही ना करूं, फिर फल
नहीं मिलेगा और इस
तरह मैं मुक्त
हो जाऊंगा। जबकि भगवान कह रहे
हैं कि कर्म किए
बिना न तो योग
सिद्धि मिलेगी और न ही मुक्ति।
उनका साफ संदेश है कि हमें कर्म बंद
नहीं करना है।
निठल्ला या खाली होकर
नहीं बैठना है,
क्योंकि जो निठल्ला बैठता है
वो मन से और
ज्यादा कर्म बनाता है। इस बात
को अच्छी तरह से
समझना होगा कि हमें कर्म करने से
बचने
की नहीं बल्कि कर्म करने के भाव
को बदलने की जरूरत
है।
जब हम यह सोच कर कर्म करते हैं
कि मैं कुछ कर
रहा हूं, तब फल की इच्छा जन्म
लेती है और
यही मुक्ति में बाधा बनती है। जब
हम भाव को बदलकर
कर्म से बिना जुड़े अनासक्त भाव से
कर्म करते हैं
तो फल की इच्छा खुद-ब-खुद खत्म
हो जाती है और
मोक्ष की प्राप्ति होती है।
लेखक-- समीर महाजन
कुछ भी सम्भव
नहीं। थोड़ा पढ़-लिख कर
व्यक्ति सोचता है कि कर्म
करूंगा तो फल मिलेगा, वो फल इस
जन्म में या अगले
जन्म में भोगना पड़ेगा। इससे
अच्छा है कि कर्म
ही ना करूं, फिर फल
नहीं मिलेगा और इस
तरह मैं मुक्त
हो जाऊंगा। जबकि भगवान कह रहे
हैं कि कर्म किए
बिना न तो योग
सिद्धि मिलेगी और न ही मुक्ति।
उनका साफ संदेश है कि हमें कर्म बंद
नहीं करना है।
निठल्ला या खाली होकर
नहीं बैठना है,
क्योंकि जो निठल्ला बैठता है
वो मन से और
ज्यादा कर्म बनाता है। इस बात
को अच्छी तरह से
समझना होगा कि हमें कर्म करने से
बचने
की नहीं बल्कि कर्म करने के भाव
को बदलने की जरूरत
है।
जब हम यह सोच कर कर्म करते हैं
कि मैं कुछ कर
रहा हूं, तब फल की इच्छा जन्म
लेती है और
यही मुक्ति में बाधा बनती है। जब
हम भाव को बदलकर
कर्म से बिना जुड़े अनासक्त भाव से
कर्म करते हैं
तो फल की इच्छा खुद-ब-खुद खत्म
हो जाती है और
मोक्ष की प्राप्ति होती है।
लेखक-- समीर महाजन
11 फ़रवरी 2014
खुशियों को साथ ले के आती हैं बेटियां
राजेश त्रिपाठी
मात-पिता का गौरव बन चंदा सा चमके।
जिसके यश का सौरभ सारे जग में महके।।
घर की सुंदर अल्पना, देवों का वरदान।
बेटी तो है घर में खुशियों की पहचान।।
घर-घर में दीप खुशी के जलाती हैं बेटियां।
धनवान हैं वे जिनके घर आती हैं बेटियां।।
बेटी है नाम ममता का समता का नाम है।
बेटी अगर है घर में तो सुख भी ललाम है।।
लक्ष्मी का रूप है वे सरस्वती का वेष है।
जिस घर नहीं हैं बेटियां समझो क्लेश है।।
ममता का पाठ सबको पढ़ाती हैं बेटियां।
भगवान की कृपा से आती हैं बेटियां।।
बोझ नहीं ये तो खुदा की हैं नियामत।
जो इनको सताया तो आयेगी कयामत।।
बेटी हैं तो दुनिया बहुत खुशगवार है।
बेकार हैं वो जिन्हें न बेटी से प्यार है।।
माता-पिता से प्यार निभाती हैं बेटियां।
हर वक्त अपना फर्ज निभाती हैं बेटियां।।
बेटे को सिर पे बिठा बेटी को भूलते।
जो बदगुमां हो गफलत में झूमते।।
बेटे से चोट खाके होते हैं पशेमां।
रोते हैं जार-जार तब वो नादान।
नफरत के बियाबां से बचाती हैं बेटियां।
खुशियों की आमद हो जहां आती हैं बेटियां।।
मां,बहन और जाने कितने वेष में।
साथ निभाती हैं वे दुख-क्लेश में।।
वे हैं तो दुनिया है वरना वीरान है।
बेटी नहीं तो घर मानिंदे शमशान है।।
हर घर को फुलवारी-सा सजाती हैं बेटियां।
चंदन सी शीतल कितनी प्यारी हैं बेटियां।।
आओ इन्हें लगा लें गले जीवन धन्य हम करें।
हर घर में एक बेटी हो, पावन संकल्प हम करें।।
बेटी को समझे कमतर वे सचमुच बड़े लाचार हैं।
नारी है कुदरत का वरदान, सृष्टि का आधार है।।
घर-घर को स्वर्ग-सा बनाती हैं बेटियां।
खुशियों को साथ लेके आती हैं बेटियां।।
8 फ़रवरी 2014
गीत
पीर प्रवाहित है रग -रग में ,
दर्द समाहित है नस -नस में ,
मुझमें पीड़ा समाधिस्थ है ,
प्राण नियंत्रण से बाहर है //
रेचक करना भूल गई हूँ ,
कुम्भक की विधि याद नहीं है,
कैसे ध्यान -धारणा हो अब ,
नाड़ी शोधन ज्ञात नहीं है
प्रियतम प्रेम प्रयाण से पहले
योग सुभग इक़ सपना भर है //
विचलित चित्त न धीरज जाने ,
विरहा की गति चरम हुई है ,
ब्रह्मरन्ध्र तुममें विलीन है ,
साँसों की गति विषम हुई है /
आयुष लेकर क्या करना है ,
बहुत निकट नटवर नागर है //
आठों प्रहर साधनामय हैं ,
शुभ संकेत प्रदर्शित होते /
चारों धाम मिले मन भीतर ,
अचल सुहाग समर्पित होके /
अंतर्ज्योतित अभयानंदित ,
ह्रदय सुखद दुख का सागर है //
@-भावना
दर्द समाहित है नस -नस में ,
मुझमें पीड़ा समाधिस्थ है ,
प्राण नियंत्रण से बाहर है //
रेचक करना भूल गई हूँ ,
कुम्भक की विधि याद नहीं है,
कैसे ध्यान -धारणा हो अब ,
नाड़ी शोधन ज्ञात नहीं है
प्रियतम प्रेम प्रयाण से पहले
योग सुभग इक़ सपना भर है //
विचलित चित्त न धीरज जाने ,
विरहा की गति चरम हुई है ,
ब्रह्मरन्ध्र तुममें विलीन है ,
साँसों की गति विषम हुई है /
आयुष लेकर क्या करना है ,
बहुत निकट नटवर नागर है //
आठों प्रहर साधनामय हैं ,
शुभ संकेत प्रदर्शित होते /
चारों धाम मिले मन भीतर ,
अचल सुहाग समर्पित होके /
अंतर्ज्योतित अभयानंदित ,
ह्रदय सुखद दुख का सागर है //
@-भावना
6 फ़रवरी 2014
.......आरक्षण मदभेद है -- समीर महाजन
आरक्षण मदभेद है ,
और भारत माँ को भी खेद है ,
बट गए हम अपनो मे,
और जातियो से प्रतिछेद है ,
वाह रे वाह सरकार इस देश की,
तु इंसान के वेश मे प्रेत है ,
कभी ये देश सोने की चिड़िया था
अब तो बस
रेत है ,
और भारत माँ को भी खेद है,
आतंक मचाया सरकार ने खुद और रुपये से भी उसकी कुर्सी-मेज है ,
रोको दुनिया वालो और फैलादो संदेश मेरा ,
नहीं तो आगे हमारी जिंदगी निषेद है ,
और भारत माँ को भी खेद है !!!
"मित्रो इस संदेश को दूर-दूर तक फैलाये "
लेखक - समीर महाजन
और भारत माँ को भी खेद है ,
बट गए हम अपनो मे,
और जातियो से प्रतिछेद है ,
वाह रे वाह सरकार इस देश की,
तु इंसान के वेश मे प्रेत है ,
कभी ये देश सोने की चिड़िया था
अब तो बस
रेत है ,
और भारत माँ को भी खेद है,
आतंक मचाया सरकार ने खुद और रुपये से भी उसकी कुर्सी-मेज है ,
रोको दुनिया वालो और फैलादो संदेश मेरा ,
नहीं तो आगे हमारी जिंदगी निषेद है ,
और भारत माँ को भी खेद है !!!
"मित्रो इस संदेश को दूर-दूर तक फैलाये "
लेखक - समीर महाजन
3 फ़रवरी 2014
....सीमेंट के इस जंगल में -- आशा लाता सक्सेना :)
सीमेंट के इस जंगल में
चारों ओर दंगल ही दंगल
वाहनों की आवाजाही
भीड़ से पटी सड़कें
घर हैं या मधुमक्खी के छत्ते
अनगिनत लोग रहते
एक ही छत के नीचे
रहते व्यस्त सदा
रोजी रोटी के चक्कर में
आँखें तरस गयीं
हरियाली की एक झलक को
कहने को तो पेड़ लगे हैं
पर हैं सब प्लास्टिक के
हरे रंग से पुते हुए
दिखते सब असली से
नगर सौन्दरीकरण के नाम पर
जाने कितना व्यय हुआ
पर वह बात कहाँ
जो है प्रकृति के आंचल में
सांस लेने के लिए भी
सहारा कृत्रिम वायु का
ठंडक के लिए सहारा
कूलर और ए.सी. का
है आज की जीवन शैली
इन बड़े शहरों की
सीमेंट सरियों से बने
इस जंगल के घरोंदों की
और वहा
रहने वालों की .........!
-- आशा लाता सक्सेना
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